Book Title: Chintan ke Vividh Aayam
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 219
________________ १०८ | चिन्तन के विविध आयाम [खण्ड २] दर्शन, साहित्य और संस्कृति को समझने की उसकी भावना भी है । क्षमता भी है। अतीतकाल में एक वीर अर्जुन ने कुरुक्षेत्र के मैदान में यह जिज्ञासा प्रस्तुत की थी कि क्या कर्तव्य हैं और क्या अकर्तव्य हैं ? श्रीकृष्ण ने उसकी जिज्ञासाओं का समाधान दिया। आज के युवक वीर अर्जुन की भाँति जाज्वल्यमान समस्याएं समुपस्थित करते हैं, पर अभिभावकगण या धर्मगुरु जो श्रीकृष्ण की भांति हैं, वे उनकी समस्याओं का सही समाधान नहीं करते । उन्हें सही स्वरूप नहीं बताते, जिससे उनमें अनास्था जागृत होती है और वह प्रतिशोध के रूप में प्रस्फुटित होती है । आवश्यकता है-युवकों की समस्याओं का सही समाधान किया जाय । उन्हें धर्म का मर्म बताया जाय । आत्मा-परमात्मा के गुरु गम्भीर रहस्यों को बताया जाय और साथ ही कथनी और करनी में एकरूपता लायी जाय, जिससे युवक में आस्था जागृत होगी, और धर्म के सही स्वरूप को समझकर वे उसे हृदय से अपनायेंगे। ___ मैं युवाशक्ति से एक बात कहना चाहूंगा कि तुम गुलाब के फूल की तरह हो, तुम में मनमोहक सौरभ है, तुम अपनी सौरभ से विश्व को आकर्षित कर सकते हो । किन्तु तुम्हारे जीवन में जो दुर्गुणों के काँटे हैं, जिसके कारण तुम्हारे सद्गुण रूपी फूल आच्छादित हो चुके हैं। आवश्यकता है-उन दुर्गुणों के काटों को हटाने की ! तुम्हारे जीवन में से दुर्गुण नष्ट हो जायेंगे तो तुम्हारा जीवन जन-जन के लिए मंगलमय होगा। ___ मैं आस्था और विचारशील युवकों को आह्वान करता हूँ कि तुम उस पुण्य धरती में पैदा हुए हो जिसकी आन, बान और शान निराली रही हैं, जहाँ के युवक देश के लिए, समाज के लिए, राष्ट्र के लिए और धर्म के लिए हंसते और मुस्कराते हुए कुर्बान होते रहे हैं । तुम्हें भी वह आदर्श उपस्थित करना है । हे भारत के भाग्य विधाता युवको ! तुम आगे बढ़ो ! तुम आगे बढ़ोगे तो सभी आगे बढ़ेंगे। "शुभास्ते सन्तु पन्थानः । भद्रन्ते भूयात् ॥" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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