Book Title: Chintan ke Vividh Aayam
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 157
________________ ४६ | चिन्तन के विविध आयाम [खण्ड २] कौन-सा जीव है जो एकान्त मिथ्यादृष्टि है और साथ ही एकान्त शुक्ललेश्यी भी। क्योंकि दोनों परस्पर विरोधी हैं। महासतीजी ने कहा-तेरह सागर की स्थिति वाले किल्विषी देव में एकान्त मिथ्यादृष्टि होती है और साथ ही वे एकान्त शुक्ललेश्यी भी हैं। __इस प्रकार उन्नीस प्रश्नों के उत्तरों को सुनकर आचार्य प्रवर और सभा प्रमूदित हो गयी और उन्होंने कहा-मैंने कई सन्त-सतियां देखीं, पर इनके जैसी प्रतिभासम्पन्न साध्वी नहीं देखी। महासती मदनकुवरजी जिस प्रकार प्रकृष्ट प्रतिभा की धनी थीं उसी प्रकार उत्कृष्ट आचारनिष्ठा भी थीं । गुप्त तप उन्हें पसन्द था । प्रदर्शन से वे कोसों दूर भागती थीं । वे साध्वियों के आहारादि से निवृत्त होने पर जो अवशेष आहार बच जाता और पात्र धोने के बाद जो पानी बाहर डालने का होता उसी को पीकर संतोष कर लेती । कई बार नन्हीं सी गुड की डेली या शक्कर लेकर मुंह में डाल लेती। यदि कोई उनसे पूछता-क्या आज आपके उपवास है, वे कहतीं-नहीं, मैंने तो मीठा खाया है । ___उनमें सेवा का गुण भी गजब का था। उन्हें हजारों जैन कथाएं और लोक कथाएँ स्मरण थीं। समय-समय पर बालक और बालिकाओं को कथा के माध्यम से संसार की असारता का प्रतिपादन करती । कर्म के मर्म को समझाती । उनका मानना था कि बालकों को और सामान्य प्राणियों को कथा के माध्यम से ही उपदेश देना चाहिए जिससे वह उपदेश ग्रहण कर सके । उन्होंने मुझे बाल्यकाल में सैकड़ों कथाएँ सुनाई थीं । सन् १६४६ में तीन दिन के संथारे के साथ उदयपुर में उनका स्वर्गवास हुआ। (६) महासती सल्लेकुंवरजी-आपकी जन्मस्थली उदयपुर थी और आपका उदयपुर में ही मेहता परिवार में पाणिग्रहण हुआ। आप को महासतीजी के उपदेश को सुनकर वैराग्य भावना जागृत हुई और अपनी पुत्री सज्जनकुवर के साथ आपने आहती दीक्षा ग्रहण की। आप सेवापरायणा साध्वी थीं। (७) महासती सज्जनकुंवरजी-आपकी माता का नाम सल्लेकुवर था और आपने माँ के साथ ही महासतीजी की सेवा में दीक्षा ग्रहण की थी । (८) महासती तीजकुंवरजी-आपकी जन्मस्थली उदयपुर के सन्निकट तिरपाल गाँव में थी । आपका पाणिग्रहण उसी गाँव में सेठ रोडमलजी भोगर के साथ सम्पन्न हुआ । गृहस्थाश्रम में आपका नाम गुलाबदेवी था । आपके दो पुत्र थे जिनका नाम प्यारेलाल और भैरूलाल था तथा एक पुत्री थी जिसका नाम खमाकुवर था। आपने महासतीजी के उपदेश से प्रभावित होकर दो पुत्र और एक पुत्री के साथ दीक्षा ग्रहण की । आपके पति का स्वर्गवास बहुत पहले हो चुका था। आपश्री ने श्रमणीधर्म स्वीकार करने के पश्चात् नौ बार मासखमण की तपस्याएँ की, सोलह वर्षों तक आपने एक घी के अतिरिक्त दूध, दही, तेल और मिष्ठान इन चार विगयों का त्याग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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