Book Title: Chintan ke Vividh Aayam
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 187
________________ ७६ | चिन्तन के विविध आयाम [खण्ड २] ___ कथा वह है जहाँ कवि स्वयं नायक के जीवनवृत्त का वर्णन गद्य में करता है । जैसे दशकुमार चरित्र, पंचतंत्र, कादम्बरी आदि । कथा में भी रोमांचक तत्व की प्रधानता रहती है। छन्दोबद्ध रचना पद्य है। छन्दोबद्ध होने से उसमें संगीत की सरसता रहती है जिससे सुनने में वह बहुत मधुर लगती है। पद्य के भी दो विभाग है-प्रबन्धकाव्य और मुक्तककाव्य । प्रबन्धकाव्य में एक कथा रहती है और सभी पद्य एक दूसरे से संबंधित होते हैं। उसमें वर्णन भी होता है, प्राक्कथन भी होता है; पारस्परिक सम्बन्ध होने के कारण प्रभाव का प्राधान्य रहता है। किन्तु मुक्तककाव्य स्वतन्त्र सत्ता लिये हुए होता है । उसके पद्य एक दूसरे से मिलते नहीं हैं । वे पूर्ण रूप से स्वतन्त्र होते हैं। प्रबन्धकाव्य के भी महाकाव्य और खण्डकाव्य ये दो प्रकार हैं । महाकाव्य में सर्वांगीण जीवन का चित्र होता है । वह सर्गबद्ध, विशाल, अलंकारयुक्त श्लिष्ट भाषा का प्रयोग, राज दरबार, दूतप्रेषण, सैन्यप्रयाण, युद्ध, जीवन के विविध रूपों व अवस्थाओं का चित्रण, महाकाव्य का नायक, कुलीन, वीर, विद्वान्, उसके उदात्त गुणों का वर्णन होता है । उसमें समस्त रसों का परिपाक होता है और लोक स्वभाव की अभिव्यक्ति होती है । चार पुरुषार्थों को स्थान दिया जाता है । इस प्रकार भामह ने 'काव्यालंकार में, दण्डी ने 'काव्यादर्श' में, रुद्रट ने 'काव्यालंकार' में और वाग्भट, आचार्य हेमचन्द्र,' आचार्य अमरचन्द्र, विश्वनाथ प्रभृति विद्वानों ने महाकाव्य के स्वरूप पर विभिन्न दृष्टियों से चिन्तन किया है। भारतीय चिन्तकों ने महाकाव्य को सर्गबद्ध होना आवश्यक माना है । आचार्य हेमचन्द्र और वाग्भट के अभिमतानुसार वह आश्वासकबद्ध भी हो सकता है । सर्ग न अधिक बड़े होने चाहिए, न अत्यन्त लघु ही । विश्वनाथ ने सर्गों की संख्या के सम्बन्ध में चिन्तन किया है, पर अन्य आचार्यों ने नहीं । कथानक के सम्बन्ध में 1 काव्यानुशासन ८-८ वृत्ति हेमचन्द्र । ३ वही० पृ० १७। ३ काव्यालंकार, परि० १, श्लो० १९-२३ । • काव्यादर्श, परि०१, श्लो०१४-१६ । 5 काव्यालंकार, अ० १६, श्लो० २-१६ । काव्यानुशासन । 7 काव्यानुशासन अ०८। 8 काव्यकल्पलता वृत्ति । , साहित्य दर्पण, परि० ६, श्लोक ३१५-३२८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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