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८६ | चिन्तन के विविध आयाम [ खण्ड २ ]
बढ़ते हैं । बढ़ते समय अनेक परिषह आते हैं, पर जो परिषहों को जीतकर वीर योद्धा की तरह आगे बढ़ता है वही अपने अन्तिम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त करता है ।
कर्मवाद जैन दर्शन की आधारशिला है । कर्मवाद का प्ररूपण करने के लिए पूर्व जन्म का निरूपण किया गया है। वर्तमान में जो सुख दुःख उपलब्ध होते हैं उसका मुख्य कारण कर्म ही है । कर्म के कारण ही प्रतिनायक बनकर नायक से बदला लेता है । पर नायक क्षमा का वह आदर्श उपस्थित करता है जिसके कारण भव परम्परा का अन्त हो जाता है |
आचार्यश्री जयमल्ल जी महाराज श्रमण संस्कृति के सन्त हैं । अतः उनके काव्य में लौकिक सुख की प्रमुखता नहीं । किन्तु अध्यात्मिक आनन्द की प्रमुखता है । उन्होंने संसार के ऐश्वर्य का नहीं, किन्तु संसार की नश्वरता का वर्णन बड़ा ही सुन्दर किया है ।
भृगु पुरोहित के चरित्र में महारानी कमलावती सम्राट से कहती है"राजन् ! रत्नजड़ित पिंजड़े में तोते को आप भले ही बन्द कर दें, परन्तु वह उसे बन्धन ही समझता है । रहने को बढ़िया स्थान है, खाने को पकवान है और पीने को दूध है पर स्वतन्त्रता का आनन्द वहाँ कहाँ है ? यही स्थिति मेरी भी है । ये विराट राजमहल, भौतिक वैभव मेरे लिए बन्धन स्वरूप हैं, एक क्षण के लिए भी मुझे इनमें आनन्द की उपलब्धि नहीं हो रही है—
करेंगे
" रत्न जड़ित हो राजाजी पिंजरो, सुवो तो जाणे है फंद | इसी पण हूँ, थांरां राज में रति न पाऊँ आनंद || "
आनन्द तभी मिलेगा जब हम
कर्म बन्धन को तोड़कर संयम को ग्रहण
आपणे वन में सुखे जाय ।
"हस्ती जिम बन्धन तोड़ने, यूँ कर्मबन्धन तोड़ी संजम ग्रहाँ, होस्यां ज्यूं सुखी मुगत मांय ॥ "
संयम का मार्ग कोई सरल मार्ग नहीं है, वह कंटकाकीर्ण पथ है । उसपर चलना कितना कठिन है । देखिये आचार्यश्री जयमल्ज जी महाराज ने श्रमण जीवन की कठोर चर्या का कितना सजीव वर्णन किया है
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"मुनिवर मोटा, अणगार करता उग्र विहार, पड़ रही तावडे री भोट, तिरसा सूं सूखा होट । कठिन परिसो साधनो ए ॥
तालवे कोई नहीं थूक, जीभ गई ज्यांरी सूख, होटो रे आई खरपटी ए ॥
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