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स्थानकवासी परम्परा के एक आध्यात्मिक कवि श्रीनेमीचन्द जी महाराज | ६६
यो सतियों केरो मुख वचन नहीं झूठो ।
मो वचन जो झूठो होय जगत् होय डबको ॥" जब लक्ष्मण ने रावण पर चक्र का प्रयोग किया, उस समय का सजीव चित्रण कवि ने इस प्रकार प्रस्तुत किया है कि पढ़ते ही पाठक की भुजाएं फड़फड़ाने लगती हैं । रणभेरी की गूंज, वीर हृदय की कड़क और कायर-जन की धड़क स्पष्ट सुनायी देती है। देखिए
"लक्ष्मण कलकल्यो कोप में परजल्यो,
कड़कड़ी भीड़ ने चक्र वावे । आकाशे भमावियो सणण चलावियो,
जाय वैरी नो शिरच्छेद लावे ॥
हरि रे कोपावियो चक्र चलावियो ।” - जोधपुर के राजा की लावणी में कर काल की छाया का सजीव चित्रण किया गया है। मानव मन में विविध कल्पनाएँ करता है और भावी के गर्भ में क्या होने वाला है, उसका उसे पता नहीं होता। चेतन चरित्र में भावना प्रधान चित्र हुआ है । वस्तुतः इस चरित्र में कवि की प्रतिभा का पूर्ण रूप से निखार हुआ है। इसमें शान्तरस की प्रधानता है । कवि की वर्णन शैली आकर्षक है।
इस प्रकार कविवर्य नेमीचन्द जी महाराज की कविता का भाव और कलापक्ष अत्यन्त उज्ज्वल व उदात्त है। जैन श्रमण होने के नाते उनकी कविता में उपदेश की भी प्रधानता है । साथ ही मानव-जीवन का चरमोत्कर्ष ही उनकी कविता का संलक्ष्य है । कविवर्य का जीवन साधनामय जीवन था और १९८५ वि० सं० में छीया का अकोला गांव में आपका चातुर्मास था। शरीर में व्याधि होने पर संल्लेखना पूर्वक संथारा कर कार्तिक शुक्ला पंचमी को आप स्वर्गस्थ हुए । आपका विहारस्थल मेवाड़, मारवाड़, मालवा, ढूंढार प्रभृति रहा है।
____ आपश्री अपने युग के एक तेजस्वी सन्त थे। आपने विराट् कविता साहित्य का सृजन किया । आपकी कविता स्वान्तःसुखाय होती थी। आपने अपने व्यक्तित्व के द्वारा जैनधर्म की प्रबल प्रभावना की । आप दार्शनिक थे, वक्ता थे, कवि थे, और इन सबसे बढ़कर सन्त थे । आपका व्यक्तित्व और कृतित्व दिल को लुभाने वाला और मन को मोहने वाला था।
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