Book Title: Chintan ke Vividh Aayam
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 213
________________ १०२ | चिन्तन के विविध आयाम [खण्ड २] श्रद्धय सद्गुरुदेव का कोमल हृदय किसी दुःखी की करुण कथा को सुनकर ही द्रवित हो जाता है और स्वयं कष्ट सहन कर उसके दुःख को दूर करना चाहते हैं । श्रमणजीवन की अपनी एक मर्यादा है। उस मर्यादा में रहकर ही वे कार्य कर सकते हैं। गुरुदेव ने साधु मर्यादा में रहकर हजारों व्यक्तियों को दुःख से मुक्त किया है। जप-साधना __ जैन साधना पद्धति में जप का गहरा महत्व रहा है । वह आभ्यन्तर तप है । स्वाध्याय का एक प्रकार है । जप आधि, व्याधि और उपाधि को नष्ट कर समाधि प्रदान करता है । नियमित रूप से नियमित समय पर सद्गुरुदेव से सविधि महामन्त्र नवकार को लेकर यदि जाप किया जाय तो अवश्य ही सिद्धि मिलती है ऐसा सद्गुरुदेव का दृढ़ विश्वास है । वे स्वयं प्रतिदिन नियमित जाप करते हैं । वे भोजन की अपेक्षा भजन को अधिक महत्व देते हैं। पूज्य गुरुदेवश्री के जीवन में जप की साधना साकार हो उठी है। वे खूब रसपूर्वक जप करते हैं। और जो भी उनके सम्पर्क में आता है उसे भी वे जप की प्रबल प्रेरणा प्रदान करते हैं। वे अपने प्रव. चनों में भी अनेक बार फरमाते हैं कि अन्य मंत्र-तंत्रों के पीछे पागल होकर क्यों घूम रहे हो ? महामन्त्र जैसा प्रभावशाली अन्य कोई मन्त्र नहीं है। एक निष्ठा एकतानता के साथ उसका जाप करो तो तुम्हें अनिर्वचनीय आनन्द की उपलब्धि होगी। जीवन और शिक्षण जीवन में शिक्षा का वही महत्व है जो शरीर में प्राण का है। शिक्षा के अभाव में जीवन में चमक-दमक पैदा नहीं हो सकती। गति और प्रगति नहीं हो सकती। यूनान के महान दार्शनिक प्लेटो ने शिक्षा के उद्देश्य पर प्रकाश डालते हुए लिखा-शरीर और आत्मा में अधिक से अधिक जितने सौन्दर्य और जितनी सम्पूर्णता का विकास हो सकता है उसे सम्पन्न करना ही शिक्षा का उद्देश्य है । अरस्तू ने कहाजिन्होंने मानव पर शासन करने की कला का अध्ययन किया है उन्हें यह विश्वास हो गया है कि युवकों की शिक्षा पर ही राज्य का भाग्य आधारित है। एडिसन ने कहा-शिक्षा मानव-जीवन के लिए वैसे ही है जैसे संगमर्मर के पत्थर के लिए शिल्पकला । सद्गुरुदेव का मानना है कि विश्व में जितनी भी उपलब्धियां हैं उनमें शिक्षा सबसे बढ़कर है। शिक्षा से जीवन में सदाचार की उपलब्धि होती है । सद्गुणों के सरस सुमन खिलते हैं। दीक्षा के साथ शिक्षा भी आवश्यक है। यही कारण है कि आपने अपने शिष्यों व शिष्याओं को शिक्षा के क्षेत्र में आगे बढ़ने की प्रेरणा प्रदान की । उनकी शिक्षा के लिए उचित व्यवस्था की । जिस युग में सन्त-सतीवृन्द परीक्षा देने से कतराता था, उस युग में आपने उच्च परीक्षाएँ दी और अपने अन्तेवासियों से भी उच्च परीक्षाएं दिलवाई। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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