Book Title: Chintan ke Vividh Aayam
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 201
________________ ९० | चिन्तन के विविध आयाम [खण्ड २] कारण है कि उनके काव्य में कारीगरी और कलाबाजी नहीं, हृदय की निष्कपट अभिव्यक्ति है। अलंकारों का प्रयोग अवश्य हुआ है किन्तु चमत्कार प्रदर्शन के लिए नहीं, भावों की स्पष्ट अभिव्यक्ति के लिए । सादृश्य मूलक अलंकारों का प्रयोग ही विशेष रूप से हुआ है। उनमें भी उपमा और रूपक अलंकार के प्रति कवि का विशेष आकर्षण है । उसमें उपमाओं का चुनाव बड़ी सजगता से किया है। उसमें उनकी पैनी दृष्टि निहारी जा सकती है । देखिए कतिपय उदाहरण हैं (१) आयु घटती जाय छे, जिम अंजली नो पाणी।' (२) नेम कंवर रथ बैठां छाजे ग्रह नक्षत्र में जिम चन्द्र विराजे ॥ (३) अथिर ज जाणो रे थारों आउखो जियम पाको पीपल पान ॥ (४) चार गतिनां रे दुःख कह्या जीवे अनंति-अनंति वार लह्या, पची रह्यो जिम तेल बड़ो श्री शन्ति जिनेश्वर शान्ति करो। (५) काल खड़ो थारे बारणे जिम तोरण आयो बीन्द ॥ जय काव्य में रूपक का प्रयोग भी द्रष्टव्य है। मुख्य रूप से कवि ने सांग रूपक का प्रयोग दिया है। क्षमा-गढ़ में प्रविष्ट होने के लिए द्वादश भावना रूपी नाल की चढ़ाई आठ कर्म रूपी किवाड़ों को तोड़ने का वर्णन कवि इस प्रकार कर रहा है 'म्हारे क्षमागढ़-मांय, फोजां रहसी चढ़ी री माई, बारे भेदे तप तणी, चोको खड़ी । बारे भावना नाल, चढ़ाऊँ कांगरे-री माई, तोडूं आठे कर्म, सफल कार्य सरे ॥" कवि आध्यात्मिक दीवाली का वर्णन करता हुआ कहता है कि काया की हवेली को तप से उज्ज्वल करना है, क्षमा के खाजे, वैराग्य के घेवर तथा उपशम के मोवण से मोतीचूर बनाने हैं 'काया रूपी हवेलियां तपस्या करने रेल । सूंस बरत कर मांडणो, विनय भाव वर वेल । क्षमा रूप खाजा करो, वैराग्य घृतज पूर । उपशम मोबण घालने, मदवो मोतीचूर ॥" आत्मा एक बार कर्मों से मुक्त हो जाता है तो फिर वह कभी कर्मबद्ध नहीं होता । क्योंकि उस समय कर्मबन्ध के कारणों का सर्वथा अभाव हो जाता है। जैसे बीज के जल जाने पर पुनः अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती वैसे ही कर्मरूपी बीज के जल जाने पर संसार रूपी अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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