Book Title: Chintan ke Vividh Aayam
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 204
________________ स्थानकवासी परम्परा के एक आध्यात्मिक कवि श्रीनेमीचन्द जी महाराज | ६३ उनकी कविताओं में कहीं कमनीय कल्पना की ऊंची उड़ान है, कहीं प्रकृति नटी का सुन्दर चित्रण है तो कहीं शब्दों की सुकुमार लड़ियाँ और कड़ियाँ हैं, भक्ति व शान्तरस के साथ-साथ कहीं पर वीररस और कहीं पर करुणरस प्रवाहित हुआ है । यह सत्य है कि कवि की सूक्ष्म-कल्पना प्रकृति-चित्रण करने की अपेक्षा मानवीय भावों का आलेखन करने में अधिक सक्षम रही है। कवि के जीवन में आध्यात्म का अलौकिक तेज निखर रहा है, उसकी वाणी तपःपूत है और उसमें संगीत की मधुरता भी है। कविवर्य नेमीचन्द जी महाराज एक विलक्षण प्रतिभासम्पन्न सन्त थे । वे आशुकवि थे, प्रखर प्रवक्ता थे, आगम साहित्य, धर्म और दर्शन के मर्मज्ञ विद्वान् थे और सरल, सरस लोकप्रिय काव्य के निर्माता थे। नेमीचन्द जी महाराज का लम्बा कद, श्याम वर्ण, विशाल भव्य भाल, तेजस्वी नेत्र, प्रसन्न वदन, और श्वेत परिधान से ढके हुए रूप को देखकर दर्शक प्रथम दर्शन में ही प्रभावित हो जाता था। वह ज्यों-ज्यों अधिकाधिक मुनिश्री के सम्पर्क में आता, त्यों-त्यों उसे सहजता, सरलता, निष्कपटता, स्नेही स्वभाव, उदात्त चिन्तन व आत्मीयता की सहज अनुभूति होने लगती है । आपश्री का जन्म विक्रम संवत् १६२५ में आश्विन शुक्ला चतुर्दशी को उदयपुर राज्य के बगडुन्दा (मेवाड़) में हुआ। आपके पूज्य पिताश्री का नाम देवी लाल जी लोढ़ा और माता का नाम कमलादेवी था। बचपन से ही आपका झुकाव सन्त-सतियों की ओर था । प्रकृति की उन्मुक्त गोद में खेलना जहां उन्हें पसन्द था, वहाँ उन्हें सन्त-सतियों के पावन उपदेश को सुनना भी बहुत ही पसन्द था । आचार्य सम्राट पूज्यश्री अमरसिंहजी महाराज के छठे पट्टधर आचार्यश्री पूनमचन्द जी म० एक बार विहार करते हुए बगडुन्दा पधारे। पूज्यश्री के त्यागवैराग्ययुक्त प्रवचनों को सुनकर आपश्री के मन में वैराग्य भावना उबुद्ध हुई और आपने दीक्षा लेने की उत्कट भावना अपने परिजनों के समक्ष व्यक्त की । किन्तु पुत्रप्रेम के कारण उनकी आँखों से अश्रु छलक पड़े। उन्होंने अनेक अनुकूल और प्रतिकूल परीषह देकर उनके वैराग्य का परीक्षण किया, किन्तु जब वैराग्य का रंग धुंधला न पड़ा तब विक्रम सम्वत् १९४० में फाल्गुन शुक्ल छठ को बगडुन्दा ग्राम में आचार्य प्रवर श्री पूनमचन्दजी महाराज के पास आहती दीक्षा ग्रहण की। आप में असाधारण मेधा थी। अपने विद्यार्थी जीवन में इकतीस हजार पद्यों को कण्ठस्थ कर अपूर्व प्रतिभा का परिचय दिया। आचारांग, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, विपाक आदि अनेक शास्त्र आपने कुछ ही दि नोंमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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