Book Title: Chintan ke Vividh Aayam
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 205
________________ १४ | चिन्तन के विविध आयाम [ खण्ड २] कण्ठस्थ कर लिये और सैकड़ों थोकड़े ( स्तोक ) भी कण्ठस्थ किये | आपने अठाणु बोल का बासठिया एक मुहूर्त में याद कर सभी को विस्मित कर दिया । आप आशुकवि थे, चलते-फिरते, वार्तालाप करते या प्रवचन देते समय जब भी इच्छा होती तब आप कविता बना देते थे । एक बार आप समदड़ी गाँव में विराज रहे थे । पोष का महीना था, बहुत ही तेज सर्दी पड़ रही थी । रात्रि में सोने के लिए एक छोटा-सा कमरा मिला। छह साधु उस कमरे में सोये | असावधानी से रजोहरण की दण्डी पर पैर लग गया, जिससे वह दण्डी टूट गयी । आपने उसी समय निम्न दोहा कहा - "ओरी मिल गयी सांकड़ी, साधू सूता खट्ट । नेमीचन्द री डांडी भागी, बटाक देता बट्ट || " आपश्री ने रामायण, महाभारत, गणधर चरित्र, रुक्मिणी मंगल, भगवान् ऋषभदेव, भगवान् महावीर आदि पर अनेक खण्डकाव्य और महाकाव्य विभिन्न छन्दों में बनाये थे किन्तु आपश्री उन्हें लिखते नहीं थे, जिसके कारण आज वे अनुपलब्ध हैं। क्या ही अच्छा होता यदि वे स्वयं लिखते या अन्यों से लिखवाते तो वह बहुमूल्य साहित्य सामग्री नष्ट नहीं होती । आप प्रत्युत्पन्न मेधावी थे । जटिल से जटिल प्रश्नों का समाधान भी शीघ्रातिशीघ्र कर देते थे । आपश्री के समाधान आगम व तर्कसम्मत होते थे । यही कारण है कि गोगुन्दा, पंचभद्रा, पारलू आदि अनेक स्थलों पर दया दान के विरोधी सम्प्रदाय वाले आपसे शास्त्रार्थ में परास्त होते रहे । एक बार आचार्य प्रवर श्री पूनमचन्द जी महाराज गोगुन्दा विराज रहे थे । उस समय एक अन्य जैन सम्प्रदाय के आचार्य भी यहाँ पर आये हुए थे । मार्ग में दोनों आचार्यों का मिलाप हो गया ! उन आचार्य के एक शिष्य ने आचार्यश्री पूनम - चन्द जी महाराज के लिए पूछा - "थांने भेख पेहरयां ने कितराक बरस हुआ है ?" कविवर्य नेमीचन्द जी महाराज ने उस साधु को भाषा समिति का परिज्ञान कराने के लिए उनके आचार्य के सम्बन्ध में पूछा । "थांने हाँग पेहऱ्यां ने कितराक बरस हुआ है ?" यह सुनते ही वह साधु चौंक पड़ा और बोला – 'यों कांई बोलो हो ?" आपने कहा – 'हम तो सदा दूसरों के प्रति पूज्य करते हैं, किन्तु आपने हमारे आचार्य के लिए जिन निकृष्ट उसी का आपको परिज्ञान कराने हेतु मैंने इन शब्दों का प्रयोग किया है, ।" साधु का सिर लज्जा से झुक गया और 'भविष्य में इस प्रकार के शब्दों का हम प्रयोग नहीं करेंगे' कह कर उसने क्षमायाचना की । आपश्री के बड़े गुरुभ्राता श्री ज्येष्ठमल जी महाराज थे, जो एक अध्यात्मयोगी सन्त थे । रात्रि भर खड़े रह कर ध्यान योग की साधना करते थे, जिससे Jain Education International शब्दों का ही प्रयोग शब्दों का प्रयोग किया, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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