Book Title: Chintan ke Vividh Aayam
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 200
________________ सन्तकवि आचार्यश्री जयमल्लजी | ८६ जी हो दही रोटी जिमावणो, लाला अरु चबावण तंबोल । जी हो सुख सु मुख में दिरीजंता, लाला लीला अधर अमोल ॥" इस प्रकार आपकी रचनाओं में वीर, रौद्र, करुण और शान्तरस का वर्णन भी यथास्थान आया है। हास्य और व्यंग्य के मनोरम प्रसंग भी दिल को लुभाने वाले हैं। मानव पाप कृत्य करते समय प्रमुदित होता है, पर जिस समय पाप का फल प्राप्त होता है उस समय वह किस प्रकार करुण-क्रन्दन करता है। नारकीय जीव किस तरह कष्ट भोगते हैं, उससे वह बचना चाहता है, पर बच नहीं पाता है "सुसाडा करंता रे, सुर शेष धरता रे, दश दिन का भूखा रे, खावण ने ढूका रे। कूकारे पाडे-कहे देव छोड़ावजो रे ॥ सांभल बहु आया रे, दोड़ी ने थाया रे, दाँतों सूं काटे रे, बेर आगला बाढे रे । कुण काढ़े-ए नर बलवंत इसो रे ॥" पुण्य और पाप के फल संसार में प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होते हैं, उसके लिए आगम आदि प्रमाणों की भी आवश्यकता नहीं है। पुण्यवानी की प्रबलता से जीव सुख के सागर पर तैरता है और पाप की अधिकता से दुःखाग्नि में झुलसता है । देखिये कवि ने लिखा है- । "एक चढ़े छे पालखी रे बोहला चाले छ जी लार । एकण रे सिर पोटली जी, पगां नहीं पेंजार रे, रे प्राणी पाप पुण्य फल जोय ।। एक-एक मानव एहवा जी, रोग सोग नहीं थाय । एकीकों का डील को जी टसको कदे न जाय ।। एक-एक बत्ती से अंग भण्या जी, कहे ठामों जी ठाम । एकण के पूरा नहीं चढे जी, छकायाँ का नाम रे ॥" कवि सांसारिक प्राणियों को उद्बोधन देता हुआ कहता है कि तुम पाप क्यों बांधते हो । पाप का फल तुम्हें स्वयं को भोगना पड़ेगा। 'कुटुम्ब कारण कर्म बाँधने, पडियो नरकां में जाय । एकलड़ो दुःख भोगवे कुण ल्यावे छुड़ाय ।" आचार्यश्री जयमल्ल जी म० प्रथम साधक और बाद में कवि हैं । यही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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