Book Title: Chintan ke Vividh Aayam
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 195
________________ ८४ | चिन्तन के विविध आयाम [खण्ड २] "जी महाराज के प्रबल धर्म प्रचार से मरुधर प्रान्त सुलभबोधि हो चुका है तब वे अपने शिष्यों सहित वहाँ पधारे । जोधपुर, जालोर, खाण्डप, पदराड़ा, पीपाड़ प्रभृति स्थल के प्राचीन हस्तलिखित भण्डारों को देखने का अवसर इन पंक्तियों के लेखक को मिला है । उन भण्डारों से जीर्ण-शीर्ण अवस्था में अनेक प्राचीन पत्र उपलब्ध हुए हैं जिनमें स्थानकवासी समाज के इतिहास की अनमोल सामग्री बिखरी पड़ी है । परम श्रद्धेय उपाध्याय राजस्थान केसरी अध्यात्मयोगी गुरुदेव श्री पुष्करमुनि महाराज के पास एक प्राचीन पत्र है जिसमें आचार्य श्री अमरसिंह जी महाराज का और आचार्य श्री जयमल्ल जी महाराज का पारस्परिक अत्यन्त मधुर सम्बन्ध था, इसका उल्लेख है । वे अनेक बार अनेक स्थलों पर एक दूसरे से मिले हैं। पारस्परिक एकता के लिए उन्होंने अनेक नियमोपनियम भी बनाये हैं । उस पन्ने में दोनों महापुरुषों के हस्ताक्षर भी हैं। मैं समझता हूँ उन महापुरुषों ने जो स्नेह का, सद्भावना का बीज वपन किया वह आज भी पल्लवित, पुष्पित है । आचार्यश्री जयमल्ल जी महाराज ने सतत जागरूकता एवं उग्र साधना से न केवल अपने अखण्ड ज्योतिर्मय आत्मस्वरूप का विकास ही किया, किन्तु आत्मविकासी उपदेश एवं काव्य रचना द्वारा साहित्य की जो श्रीवृद्धि की वह अपूर्व है, अनूठी है । हिन्दी साहित्य की दृष्टि से आचार्यश्री जयमल्ल जी महाराज रीतिकाल में हुए हैं जिस युग में कवि गण विलास, वैभव एवं सामाजिक जीवन को महत्व देकर पार्थिव सौन्दर्य का उद्घाटन कर रहे थे; किन्तु आप उस रीतिकाल की बंधी बंधाई सड़क पर नहीं चले । उन्होंने रीतिकालीन उद्दाम बासनात्मक शृंगार धारा को भक्तिकालीन प्रशान्त साधनात्मक धारा की ओर मोड़ा। रीतिकाल के प्रसिद्ध कवि पद्माकर भी आपके ही समकालीन थे, जो-"नैन नचाय कह्यो मुसकाय, लला फिर आइयो खलन होली" का निमन्त्रण दे रहे थे। कविवर नागरदास और हितवृन्दावन लाल भी इसी प्रकार श्री कृष्ण और राधा का शृंगारिक चित्रण कर रहे थे । दूसरी ओर ठाकुर और बोधा विशुद्ध और सात्विक प्रेम का निरुपण कर रहे थे । कविवर गिरिधर भी नीति का उपदेश देने के लिए कुंडलियाँ बना रहे थे। इधर श्रमण संस्कृति के जगमगाते नक्षत्र आचार्यश्री जयमल्ल जी महाराज अन्तःस्थ सौन्दर्य को निखारने के लिए, तीर्थंकर, विहरमान, सतियाँ और व्रतीय श्रावकों के गुणों का उत्कीर्तन कर रहे थे। यहाँ पर यह भी स्मरण रखना चाहिए कि रीतिकाल के प्रायः सभी कवि किसी न किसी के आश्रित रहे हैं । अपने आश्रयदाताओं को प्रसन्न करने हेतु वे विकार वर्द्धक शृंगारिक चित्रण करते थे। किन्तु आचार्यश्री जयमल्ल जी किसी के भी आश्रित कवि नहीं थे। किसी को प्रसन्न करना उनकी काव्य रचना का उद्देश्य नहीं था। वे तो स्वन्तः सुखाय रचना करते थे । अतः उनके काव्य में विलास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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