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महेश्वरसूरि महेश्वरसूरि प्रतिभासम्पन्न कवि थे। वे संस्कृत-प्राकृत के प्रकाण्ड पण्डित थे । इनका समय ई० सन् १०५२ से पूर्व माना गया है। णाणपञ्चमीकहा। इनकी एक महत्वपूर्ण रचना है। इसमें देशी शब्दों का अभाव है । भाषा में लालित्य है, यह प्राकृत भाषा का श्रेष्ठ काव्य है। महेश्वरसूरि सज्जन उपाध्याय के शिष्य थे।
जिनदत्तसूरि जिनदत्त जिनेश्वरसूरि के शिष्य थे। अपने लघु गुरुबन्धु अभयदेव की अभ्यर्थना को सम्मान देकर संवेग रंगशाला नामक ग्रन्थ की रचना की । रचना का समय वि० सं० ११२५ है । नवाङ्गी टीकाकार अभयदेव के शिष्य जिनवल्लभसूरि ने प्रस्तुत ग्रन्थ का संशोधन किया। संवेगभाव का प्रतिपादन करना ही ग्रन्थ का उद्देश्य रहा है । ग्रन्थ में सर्वत्र शान्तरस छलक रहा है।
जिनप्रभसूरि जिनप्रभसूरि विलक्षण प्रतिभा के धनी आचार्य थे। इन्होंने १३२६ में जैन दीक्षा ग्रहण की और आचार्य जिनसिंह ने इन्हें योग्य समझ कर १३४१ में आचार्य पद प्रदान किया। दिल्ली का सुल्तान मुहम्मद तुगलक बादशाह इनकी विद्वत्ता और इनके चमत्कारपूर्ण कृत्यों से अत्यधिक प्रभावित था । इनके जीवन की अनेक चमत्कारपूर्ण घटनाएँ प्रसिद्ध हैं। 'कातन्त्रविभ्रमवृत्ति, श्रेणिक चरित्र, द्वयाश्रय काव्य', 'विधिमार्गप्रपा' आदि अनेक ग्रन्थों की रचना की। विधिप्रपा प्राकृत साहित्य का एक सुन्दर ग्रन्थ है । श्रीयुत् अगरचन्दजी नाहटा का अभिमत है कि ७०० स्तोत्र भी इन्होंने बनाये । वे स्तोत्र संस्कृत, प्राकृत, देश्य भाषा के अतिरिक्त भाषा में भी लिखे हैं । वर्तमान में इनके ५५ स्तोत्र उपलब्ध होते हैं।'
नेमिचन्द्रसूरि नेमिचन्द्रसूरि बृहद्गच्छीय उद्योतनसूरि के प्रशिष्य और आम्रदेव के शिष्य थे । आचार्य पद प्राप्त करने के पूर्व इनका नाम देवेन्द्रगणि था । 'महावीर
1 सम्पादक-अमृतलाल, सवचन्द गोपाणी, प्रकाशन-सिंघी जैन ग्रन्थमाला, बम्बई __ संवत् १९४६.
दो पक्खुज्जोयकरो दोसासंगेणवज्जिओ अमओ। सिरि सज्जण उज्जाओ, अउवच्चं दुव्वअक्खत्यो ॥ सीसेण तस्स कहिया दस विकहाणा इमेउपंचमिए । सूरिमहेसरएणं भवियाण बोहणट्ठाए ।
-णाण-१०।४६६-४६७. . विधिप्रपा-सिंघी जैन ग्रन्थमाला-बम्बई से प्रकाशित ।
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