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६६ | चिन्तन के विविध आयाम [खण्ड २] का उनका एक अनुपम ग्रन्थ है । गद्य-पद्य मिश्रित महाराष्ट्री प्राकृत की यह प्रसादपूर्ण रचना चम्पू शैली में लिखी गई है। महाराष्ट्री प्राकृत के साथ इसमें पैशाची, अपभ्रंश व देशी भाषाओं के साथ कहीं-कहीं पर संस्कृत भाषा का भी प्रयोग हुआ है । प्रेम और शृंगार के साथ वैराग्य का भी प्रयोग हुआ है। सुभाषित, मार्मिक प्रश्नोत्तर, प्रहेलिका आदि भी यत्र-तत्र दिखलाई देती है। जिससे लेखक के विशाल अध्ययन व सूक्ष्म दृष्टि का पता लगता है। ग्रन्थ पर बाण की कादम्बरी, त्रिविक्रम की दमयन्ती कथा और हरिभद्रसूरि के 'समराइच्चकहा' का स्पष्ट प्रभाव है । प्रस्तुत ग्रन्थ लेखक ने ई० सन् ७७६ में जावालिपुर, जिसका वर्तमान में 'जालोर' नाम है, वहाँ पर पूर्ण किया है । जिनेश्वरसूरि
जिनेश्वरसूरि के नाम से जैन सम्प्रदाय में अनेक प्रतिभा-सम्पन्न आचार्य हए हैं । प्रस्तुत आचार्य का उल्लेख धनेश्वरसूरि, अभय देव, और गुणचन्द्र ने युगप्रधान के रूप में किया है। जिनेश्वरसूरि का विहार-स्थल मुख्य रूप से राजस्थान, गुजरात और मालवा रहा है । इन्होंने संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओं में रचनाएँ की । उसमें हरिभद्रकृत अष्टक पर वृत्ति, पंचलिंगी प्रकरण, वीर चरित्र, निर्वाण लीलावती कथा, षट्स्थानक प्रकरण, और कहाणय कोष मुख्य हैं । कहाणय कोष में ३० गाथाएं हैं और प्राकृत में टीका है । जिसमें छत्तीस प्रमुख कथाएँ हैं । कथाओं में उस युग की समाज, राजनीति और आचार-विचार का सरस चित्रण किया गया है । समासयुक्त पदावली, अनावश्यक शब्द आडम्बर और अलंकारों की भरमार नहीं है । कहीं-कहीं पर अपभ्रश भाषा का प्रयोग हुआ है। उनकी निर्वाण लीलावती कथा भी प्राकृत भाषा की श्रेष्ठ रचना है । उन्होंने यह कथा स० १०८२ और १०६५ के मध्य में बनाई है । पद-लालित्य, श्लेष और अलंकारों से यह विभूषित है । प्रस्तुत ग्रन्थ का श्लोकबद्ध संस्कृत भाषान्तर जैसलमेर के भण्डार में उपलब्ध हुआ है। मूलकृति अभी तक अनुपलब्ध है। प्राकृत भाषा में उनकी एक अन्य रचना 'गाथाकोष' भी
मिलती है।
1 सिंधी जैन ग्रन्थमाला, भारतीय विद्याभवन, बम्बई वि० सं० २००५, मुनि जिन
विजयजी। 2 तुणमलंघ जिण-भवण, मणहरं सावयाउलं विसभं । जावालिउरं अट्ठावयं व अह अत्थि पुहइए ।
-कुवलयमाला प्रशस्ति, पृ० २८२. ३ सुरसुन्दरीचरियं की अन्तिम प्रशस्ति गाथा २४० से २४८. 4 भगवती, ज्ञाता, समवायाङ्ग स्थानाङ्ग, औपपातिक की वृत्तियों में प्रशस्तियां । 5 महावीरचरियं प्रशस्ति ।
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