Book Title: Chintan ke Vividh Aayam
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 179
________________ ६८ | चिन्तन के विविध आयाम [ खण्ड २ ] 'रि' इनकी पद्यमयी रचना है । वि० सं० १९४१ में इन्होंने प्रस्तुत ग्रन्थ रचना 'की। इसके अतिरिक्त 'अक्खाणयमणिकोस' (मूल), उत्तराध्ययन की संस्कृत टीका, Herature प्रभृति इनकी रचनाएँ प्राप्त होती हैं । गुणपालमुनि गुणपालमुनि श्वेताम्बर परम्परा के नाइल गच्छीय वीरभद्रसूरि के शिष्य अथवा प्रशिष्य थे । 'जम्बूचरियं' इनकी श्रेष्ठ रचना है । 2 ग्रन्थ की रचना कब की, इसका संकेत ग्रन्थकार ने नहीं किया है, किन्तु ग्रन्थ के सम्पादक मुनिश्री जिनविजयजी का अभिमत है कि ग्रन्थ ग्यारहवीं शताब्दी में या उससे पूर्व लिखा गया है । जैसलमेर के भण्डार से जो प्रति उपलब्ध हुई है, वह प्रति १४वीं शताब्दी के आसपास की लिखी हुई है । जम्बूचरियं की भाषा सरल और सुबोध है । सम्पूर्ण ग्रन्थ गद्य-पद्य मिश्रित है । इस पर 'कुवलयमाला' ग्रन्थ का सीधा प्रभाव है । यह एक ऐतिहासिक सत्य तथ्य है कि कुवलयमाला के रचयिता उद्योतनसूरि ने सिद्धांतों का अध्ययन वीरभद्र नाम के आचार्य के पास किया था । उन्होंने वीरभद्र के लिए लिखा " दिन्नज हिच्छियफलओ अवरो कप्परुक्खोव्व' | गुणपाल ने अपने गुरु प्रद्युम्नसूरि को वीरभद्र का शिष्य बतलाया है | गुणपाल ने भी 'परिचितियदिन्नफलो आसी सो कप्परुक्खो' ऐसा लिखा है, जो उद्योतनसूरि के वाक्य प्रयोग के साथ मेल खाता है । इससे यह स्पष्ट है कि उद्योतनसूर के सिद्धान्त गुरु वीरभद्राचार्य और गुणपालमुनि के प्रगुरु वीरभद्रसूरि ये दोनों एक ही व्यक्ति होंगे। यदि ऐसा ही है, तो गुणपालमुनि का अस्तित्व विक्रम कीवीं शताब्दी के आसपास है । गुणपालमुनि की दूसरी रचना 'रिसिकन्ता चरियं' है जिसकी अपूर्ण प्रति भण्डारकर प्राच्यविद्या संशोधन मन्दिर पूना में है । समयसुन्दरगणि ये एक वरिष्ठ मेधावी सन्त थे । तर्क, व्याकरण, साहित्य के ये गम्भीर विद्वान् थे। उनकी अद्भुत प्रतिभा को देखकर बड़े-बड़े विद्वानों की अंगुली भी दाँतों त लग जाती थी । संवत् १६४६ की एक घटना है- बादशाह अकबर ने कश्मीर पर विजय वैजयन्ती फहराने के लिए प्रस्थान किया। प्रस्थान के पूर्व विशिष्ट विद्वानों की एक सभा हुई । समयसुन्दरजी ने उस समय विद्वानों के समक्ष एक अद्भुत ग्रन्थ उपस्थित किया । उस ग्रन्थ के सामने आज दिन तक कोई भी ग्रन्थ ठहर नहीं सका है । " राजानो ददते सौख्यम्" इस संस्कृत वाक्य के आठ अक्षर हैं, और एक-एक अक्षर के एक-एक लाख अर्थ किये गये हैं । बादशाह अकबर और अन्य सभी विद्वान् प्रतिभा के इस अनूठे चमत्कार को देखकर नत मस्तक हो गये । अकबर 1 विधिप्रपा - सिंघी जैन ग्रन्थमाला - बम्बई से प्रकाशित | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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