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जैन मुनियों का साहित्यिक योगदान | ५७
संरक्षा की है, वह कभी भी विस्मृत नहीं की जा सकती । समीक्षकों ने जैन साहित्य कोपिष्टपेषण से पूर्ण माना है, यह सत्य है कि औपदेशिक वृत्ति के कारण जैन साहित्य में विषयान्तर से परम्परागत बातों का विवेचन-विश्लेषण हुआ है, किन्तु सम्पूर्ण जैन साहित्य में पिष्टपेषण नहीं है । और जो पिष्टपेषण हुआ है वह केवल लोकपक्ष की दृष्टि से ही नहीं, अपितु भाषा शास्त्र की दृष्टि से भी बड़ा महत्वपूर्ण है । जैन लेखकों ने भारतीय चिन्तन के नैतिक, धार्मिक, दार्शनिक मान्यताओं को जन- भाषा की समुचित शैली में ढालकर, पिरोकर, संवारकर राष्ट्र के आध्यात्मिक स्तर को उन्नत, समुन्नत किया, उन्होंने साहित्य परम्परा को संस्कृत भाषा के कूपजल से निकाल कर भाषा के बहते प्रवाह में अवगाहन कराया, अभिव्यक्ति के नये नये उन्मेष घोषित किये ।
विभिन्न जैन परम्परा के प्रत्कृष्ट प्रतिभा सम्पन्न मुनिवरों ने जो साहित्य की अपूर्व सेवा की है, उसका सम्पूर्ण लेखा-जोखा लेने का न तो यहाँ अवसर ही हैं और न अवकाश ही, यहाँ तो प्रस्तुत कृति के सम्बन्ध में ही संक्षेप में कुछ विचार अभिव्यक्त किये जा रहे हैं ।
प्रस्तुत ग्रन्थ में एक ही कवि की रचनाओं का संग्रह नहीं किया गया है, अपितु विभिन्न परम्परा के मुनिवरों की रचनाओं का सुन्दर संकलन - आकलन किया गया है । प्रत्येक चरित्र में त्याग वैराग्य का पयोधि उछालें मार रहा है । प्रत्येक चरित्र आत्मा को असत् से सत् की ओर, तमस् से ज्योति की ओर एवं मृत्यु से अमरत्व की ओर ले जाने की अपूर्व क्षमता रखता है ।
भगवान् नेमिनाथ के चरित्र में राजीमती के मुंह से रथनेमि को फटकारते हुए साध्वाचार का निरूपण कर रहे हैं
अमृत भोजन छोडने हो, मुनिवर !
खाय ।
दाय ॥
तुसिया को कुण देवलोक रा सुख देखने हो मुनिवर ! नरक न आवे खीर खांड भोजन करी हो मुनिवर, वमियो कर्दम वमिया री वांछा करे हो, मुनिवर काग कुत्ता के नीच ॥
कीच ।
राजीमती के हृदयग्राही उपदेश से रथनेमि पुनः साधना के मार्ग में स्थिर हो जाते हैं । उनकी हृत्तंत्री के तार झनझना उठते हैं कि अयि राजमती ! तूने मुझे नरक में गिरते हुए को बचा लिया, धन्य है तुझे -
नरक पडता राखियो हे राजुल,
इम
बोल्यो
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रहने ।
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