Book Title: Chintan ke Vividh Aayam
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 161
________________ ५० | चिन्तन के विविध आयाम [खण्ड २] भावनाएँ जागृत हुई । आपने अपनी सुशिष्या महासती कुसमवतीजी, पुष्पावतीजी, चन्द्रावतीजी आदि को किंग्स कालेज बनारस की, संस्कृत, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग की साहित्यरत्न प्रभृति उच्चतम परीक्षाएँ दिलवायीं । उस समय प्राचीन विचारधारा के व्यक्तियों ने आपश्री का डटकर विरोध किया कि साध्वियों को संस्कृत, प्राकृत और हिन्दी का उच्च अध्ययन न कराया जाय और न ही परीक्षा ही दिलवायी जाएं। तब आपने स्पष्ट शब्दों में कहा-साधुओं की तरह साध्वियों के भी अध्ययन करने का अधिकार है । आगम साहित्य में साध्वियों के अध्ययन का उल्लेख है । युग के अनुसार यदि साध्वियां संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओं का अध्ययन नहीं करेंगी तो आगम और उसके साहित्य को पढ़ नहीं सकतीं और बिना पढ़े आगमों के रहस्य समझ में नहीं आ सकते । इसका विरोधियों के पास कोई उत्तर नहीं था। आप विरोध को विनोद मानकर अध्ययन करवाती रहीं। उसके पश्चात् स्थानकवासी परम्परा में अनेक मूर्धन्य साध्वियां तैयार हुई । आज अनेक साध्वियाँ एम. ए., पी. एच-डी भी हो गयी हैं। यह था आपका शिक्षा के प्रति अनुराग । ___आपने अनेक व्यक्तियों को प्रतिबोध दिया । जब अन्य सन्त व सतीजन अपनी शिष्या बनाने के लिए उत्सुक रहती हैं तब आपकी यह विशेषता थी कि प्रतिबोध देकर दूसरों के शिष्य व शिष्याएं बनाती थीं । आपने अपने हाथों से ३०-३५ बालिकाओं और महिलाओं को दीक्षाएँ दी पर सभी को अन्य नामों से ही घोषित किया। अपनी ज्येष्ठ गुरु बहिन महासती मदनकुवरजी के अत्यधिक आग्रह पर उनकी आज्ञा के पालन हेतु तीन शिष्याओं को अपनी नेश्राय में रखा। यह थी आप में अपूर्व निस्पृ. हता । मुझे भी (देवेन्द्र मुनि) आद्य प्रतिबोध देने वाली आप ही थीं। आपके जीवन में अनेक सद्गुण थे जिसके कारण आप जहाँ भी गयीं, वहाँ जनता जनार्दन के हृदय को जीता । आपने अहमदाबाद, पालनपुर, इन्दौर, जयपुर अजमेर, जोधपुर, ब्यावर, पाली, उदयपुर, नाथद्वारा, प्रभृति अनेक क्षेत्रों में वर्षावास किये, सेवा भावना से प्रेरित होकर अपनी गुरु बहिनों की तथा अन्य साध्वियों की वृद्धावस्था के कारण दीर्घकाल तक आप उदयपुर में स्थानापन्न रहीं। सन् १६६६ में आपका वर्षावास पाली में था। कुछ समय से आपको रक्तचाप की शिकायत थी, पर आपश्री का आत्मतेज अत्यधिक था जिसके कारण आप कहीं परभी स्थिरवास नहीं विराजी । सन् १९६६ (सं २०२३) में भाद्र शुक्ला १३ को संथारे के साथ रात्रि में आपका स्वर्गवास हुआ। आप महान प्रतिभासम्पन्न साध्वी थीं। आपके स्वर्गवास से एक तेजस्वी महासती को क्षति हुई। आपका तेजस्वी जीवन जनजन को सदा प्रेरणा देता रहेगा। विदुषी महासती श्री सोहनकुवर महासती की प्रथम शिष्या विदुषी महासती कुसमवतीजी हैं। उनकी चार शिष्याएँ हैं-बालब्रह्मचारिणी महासती चारित्रप्रभाजी, बालब्रह्मचारिणी महासती दिव्यप्रभाजी, बालब्रह्मचारिणी दर्शनप्रभाजी और विदुषी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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