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व्यवहारसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन | ६१
उत्तर गुणों के पिण्डविशुद्धि, पांच समिति, बाह्यतप, आभ्यन्तर तप, भिक्षु, प्रतिमा और अभिग्रह इस तरह दस प्रकार हैं । मूलगुणातिचार प्रतिसेवना और उत्तर गुणा. तिचार प्रतिसेवना इनके भी दर्प्य और कल्प्य ये दो प्रकार हैं । बिना कारण प्रतिसेवना दपिका है और कारणयुक्त प्रतिसेवना कल्पिका है । वृत्तिकार ने विषय को स्पष्ट करने के लिए स्थान-स्थान पर विवेचन प्रस्तुत किया है। प्रस्तुत वृत्ति का ग्रन्थमान ३४६२५ श्लोक प्रमाण है।
वृत्ति के पश्चात् जनभाषा में सरल और सुबोध शैली में आगमों के शब्दार्थ करने वाली संक्षिप्त टीकाएँ लिखी गई हैं जिनकी भाषा प्राचीन गुजराती-राजस्थानी मिश्रित है । यह बालावबोध व टब्बा के नाम से विश्रुत हैं । स्थानकवासी परम्परा के धर्मसिंह मुनि ने व्यवहार सूत्र पर भी टब्बा लिखा है । पर अभी तक वह अप्रकाशित ही है । आचार्य अमोलक ऋषिजी महाराज द्वारा कृत हिन्दी अनुवाद सहित व्यवहार सूत्र प्रकाशित हुआ है । जीवराज घेलाभाई दोशी ने गुजराती में अनुवाद भी प्रकाशित किया है । शुबिंग लिपजिंग ने जर्मन टिप्पणी के साथ सन् १९१८ में लिखा जिसको जैन साहित्य समिति, पूना से १६२३ में प्रकाशित किया है।
पूज्य घासीलाल जी महाराज ने छेदसूत्रों का प्रकाशन केवल संस्कृत टीका के साथ करवाया है।
हिन्दी भाषा में व्यवहार पर और अन्य छेदसूत्रों पर नवीन शैली से प्रकाशन अभी तक नहीं हुआ। पं० मुनि श्री कन्हैयालाल जी कमल ने इस महान कार्य की पूर्ति की है अत: वे साधुवाद के पात्र हैं।
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