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४ | चिन्तन के विविध आयाम [ खण्ड २ ]
संन्यासाश्रम ने स्थान पाया और संन्यासियों की आचार संहिता भी जैन श्रमणों की "भाँति ही मिलती-जुलती रखी गई । आत्मा, कर्म, व्रत आदि आध्यात्मिक विषयों को भी ब्राह्मण संस्कृति ने अच्छी तरह से अपनाया ।
संस्कृतियों में मतभेद
संस्कृति न एकान्त रूप
श्रमण और ब्राह्मण संस्कृति में जहाँ पर अनेक बातों में परस्पर समन्वय हुआ है, एक संस्कृति दूसरी संस्कृति से प्रभावित हुई है वहाँ पर दोनों ही संस्कृतियों में अनेक बातों में मतभेद भी रहा है। जैन से ज्ञानप्रधान है, न एकान्त रूप से चारित्रप्रधान है उसने ज्ञान और क्रिया इन दोनों पर बल दिया है जबकि ब्राह्मण संस्कृति में 'ज्ञान' पर अत्यधिक बल दिया गया । उसका यह वज्र आघोष रहा 'ऋते ज्ञानान्नमुक्तिः ज्ञान के अभाव में मुक्ति नहीं होती; न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ज्ञान के समान कोई पवित्र नहीं है । यही कारण है कि ब्राह्मण संस्कृति के दिव्य आलोक में पनपने वाले दर्शनों ने भी ज्ञान पर अत्यधिक बल दिया और उसी से मोक्ष माना है ।
न्यायदर्शन का अभिमत है कि कारण की निवृत्ति होने पर ही कार्य की निवृत्ति होती है । संसार का कारण मिथ्याज्ञान है । जब मिथ्याज्ञान रूप कारण नष्ट हो जाता है तब दुःख, जन्म, प्रवृत्ति दोष, प्रभृति कार्य भी स्वत नष्ट हो जाते हैं अतः तत्वज्ञान ही दुःखनिवृत्ति रूप मोक्ष का कारण है ।
सांख्यदर्शन का मन्तव्य है कि प्रकृति और पुरुष का जहाँ तक विवेक ज्ञान नहीं होता वहाँ तक मुक्ति नहीं हो सकती । जब प्रकृति और पुरुष में भेदविज्ञान होता है तब पुरुष स्वयं को निःसंग, निर्लेप, और पृथक मानने लगता है, यह विवेक ख्याति ही मोक्ष का कारण है ।
वैशेषिक दर्शन का कहना है – इच्छा और द्व ेष ही धर्म-अधर्म, सुख-दुःख के कारण हैं । तत्वज्ञानी इच्छा और द्वेष से रहित होता है अतः उसे सुख-दुःख की अनुभूति नहीं होती । वह अनागत कर्मों का निरुन्धन कर संचित कर्मों को ज्ञानाग्नि से विनष्ट कर मोक्ष प्राप्त करता है अतः तत्वज्ञान ही मोक्ष का कारण है । इस तरह ज्ञान को प्रमुखता देकर चारित्र की उपेक्षा की गई, जिसके फलस्वरूप हम देखते हैं याज्ञवल्क्य ब्रह्मर्षि जैसे पहुँचे हुए ऋषिगण भी गायों के परिग्रह को परिग्रह में नहीं गिनते । उनके मैत्रेयी और कात्यायनी ये दो पत्नियाँ हैं । संपत्ति के विभाजन की गंभीर समस्या है | " अनेक ऋषियों के विराट् आश्रम हैं जहाँ सहस्राधिक गायें भी हैं । ज्ञान के क्षेत्र में ऋषिगण जहाँ ऊँची उड़ानें भरते रहे हैं वहाँ आचरण के क्षेत्र में
1 आरंभु विज्जाचरणं पमोक्खं - सूत्रकृतांग १।१२।११ ।
श्रीमद्भागवद् गीता ४ | ३८ ।
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8 बृहदारण्यकोपनिषद् ।
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