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२४ | चिन्तन के विविध आयाम [ खण्ड २ ]
स्वाभाविक था कि अप्रत्याशित और आकस्मिक क्रांतिकारी विचारों से स्थितिपालक समाज में हलचल पैदा हुई और परिणामस्वरूप प्रतिक्रियावादी भावनाएँ उभरी, किन्तु वे उसे समाप्त नहीं कर सकीं पर पूरी शक्ति के साथ पाशविकता से लड़ती रहीं । उसका आदर्श व्यक्ति न होकर गुण था, समष्टि न होकर सम्यग्दृष्टि थी । समीचीन तत्वों पर आधृत होने के कारण वह एक सुदृढ़ और सौन्दर्य सम्पन्न परम्परा निर्मित कर सकी जिस पर शताब्दियों से मानवता गर्व कर रही है ।
श्री लोकाशाह तथा स्थानकवासी समाज के महापुरुष त्रियोद्धारक ( १ ) श्री जीवराज जी महाराज, (२) श्री लवजी ऋषि जी म० (३) श्री धर्मसिंह जी महाराज (४) श्री धर्मदास जी म० और (५) श्री हरजी ऋषि जी म० किन-किन परिस्थितियों में उठे, उभरे, उन्होंने मानव चेतना के किन निगूढ़ गह्वरों में क्रांति के स्वरों को मुखरित किया ? उनका कहाँ और कब, कितना और कैसा प्रभाव पड़ा ? क्या-क्या कार्य हुआ ? आदि की संक्षिप्त जानकारी संकलित पट्टा वलियों की पंक्तियों में समुपलब्ध होगी । पाठक उन्हीं के शब्दों में रसास्वादन करें ।
पट्टावलियों के अब तक अनेक संग्रह विविध स्थलों से प्रकाशित हुए हैं उनमें से कितने ही संग्रह अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं । किन्तु उन संग्रहों में लोंकागच्छ की और स्थानकवासी परम्परा की विश्वस्त पट्टावलियां सामान्यतः नहीं दी गई हैं । यदि कहीं पर दी भी गई हैं तो इतने विकृत रूप से दी गई हैं कि उनके असली रूप का पता लगाना ही कठिन है । इतिहासकार को इतिहास लिखते समय तटस्थ दृष्टि रखनी चाहिए । जो इतिहासकार इस नियम का उल्लंघन करता है उसका इतिहास सत्य से परे हो जाता है । अभी कुछ समय पहले ऐसा एक ग्रन्थ " पट्टावली पराग संग्रह " नाम से देखने में आया । इसके सम्पादक मुनिश्री कल्याणविजय जी अच्छे विद्वान और इतिहासवेत्ता हैं । हमें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि "पट्टावली पराग संग्रह " ( पट्टावलियों का पराग ) में पट्टावली पराग के बदले निम्नस्तरीय आलोचना हैं । स्था० सम्प्रदाय के दो-तीन मुनियों के लिए तो नाम निर्देशपूर्वक आक्षेप किये हैं जो इतिहास-लेखन में अवांछनीय है । इतिहास-लेखक इस प्रकार व्यक्तिगत आक्षेप से बचकर तुलनात्मक समीक्षा तो कर सकता है, ऐसी आलोचना नहीं ।
मुझे परम आह्लाद है कि प्रस्तुत ग्रन्थ के संकलयिता व सम्पादक ने इतिहासकार के मूल भाव की रक्षा की है। उन्होंने जो पट्टावलियाँ जहाँ से जिस रूप में उपलब्ध हुईं, उन्हें उसी रूप में प्रकाशित की हैं, कहीं पर भी किसी सम्प्रदाय विशेष को श्रेष्ठ या कनिष्ठ बताने का प्रयास नहीं किया है ।
इस प्रकार के पट्टावलियों के संग्रह की चिरकाल से प्रतीक्षा की जा रही थी, वह इस ग्रन्थ के द्वारा पूरी हो रही है । यों इसमें भी अभी तक सम्पूर्ण स्थानकवासी समाज की पट्टावलियाँ नहीं आ पाई हैं। ज्ञात से भी अज्ञात अधिक है । मुझे आशा
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