Book Title: Chintan ke Vividh Aayam
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 152
________________ जैन शासन प्रभाविका अमर साधिकाएँ । ४१ पूछा- आप कौन अन्दर कोठरी में बन्द कर दिया, पर वे सभी परीक्षाओं में समुतीर्ण हुई । अन्त में मोतीलालजी उन्हें महाराणा फतहसिंह के पास ले गये । महाराणाजी ने भी उनकी परीक्षा ली । किन्तु उनकी दृढ़ वैराग्य भावना रेखकर दीक्षा की अनुमति प्रदान कर दी जिससे सोलह वर्ष की उम्र में आर्हती दीक्षा ग्रहण की। खूब मन लगाकर अध्ययन किया। आपकी दीक्षा के सोलह वर्ष के पश्चात् आपका वर्षावास अपनी सद्गुरुणी के साथ उदयपुर में था । आश्विन शुक्ला पूर्णिमा की रात्रि में वे सोयी हुई थीं । उन्होंने देखा एक दिव्य रूप सामने खड़ा है और वह आवाज दे रहा है कि जाग रही हैं या सो रही हैं ? तत्क्षण वे उठकर बैठ गयीं और हैं ? और क्यों आये हैं ? देव ने कहा- यह न पूछो, देखो तुम्हारा अन्तिम समय आ चुका है | कार्तिक सुदी प्रतिपदा के दिन नौ बजे तुम अपनी नश्वर देह का परित्याग कर दोगी, अतः संथारा आदि कर अपने जीवन का उद्धार कर सकती हो। यह कह कर देव अन्तर्धान हो गया । महासती आनन्दकुवरजी जो सन्निकट ही सोयी हुई थीं, उन्होंने सुना और पूछा किससे बात कर रही हो ? उन्होंने महासतीजी से निवेदन किया कि मेरा अन्तिम समय आ चुका है, इसलिए मुझे संथारा करा दें । महासतीजी ने कहा- अभी तेरी बत्तीस वर्ष की उम्र है, शरीर में किसी भी प्रकार की व्याधि नहीं है, अतः मैं संथारा नहीं करा सकती । उस समय उदयपुर में आचार्य श्रीलालजी महाराज का भी वर्षावास था; उन्होंने भी अपने शिष्यों को भेजकर महासती से संधारा न कराने का आग्रह किया और महाराणा फतहसिंहजी को ज्ञात हुआ तो उन्होंने भी पुछवाया कि असमय में संथारा क्यों कर रही हो तब महासती ने कहा मैं स्वेच्छा से संथारा कर रही हूँ, मैं मेवाड़ की वीरांगना हूँ । स्वीकृत संकल्प से पीछे हटने वाली नहीं हूँ । अन्त में संथारा ग्रहण किया और गौतम प्रतिपदा के दिन निश्चित समय पर उनका स्वर्गवास हुआ । महासती लहरकुंवरजी का जन्म उदयपुर राज्य के सलोदा ग्राम में हुआ और आपका पाणिग्रहण भी सरोदा में हुआ । किन्तु लघुवय में ही पति का देहान्त हो जाने से महासती श्री आनन्दकुंवरजी के पास दीक्षा ग्रहण की । आगम साहित्य का अच्छा अभ्यास किया । एक बार सायरा ग्राम में श्वेताम्बर मूर्तिमूजक और तेरापंथ की सतियों के साथ आपका शास्त्रार्थ हुआ | आपने अपने अकाट्य तर्कों से उन्हें परास्त कर दिया। आपकी प्रकृति बहुत ही सरल थी । आपकी वाणी में मिश्री सा माधुर्य था । सं० २००७ में आपका वर्षावास यशवन्तगढ़ (मेवाड़) में था । शरीर में व्याधि उत्पन्न हुई और संथारे के साथ आपका स्वर्गवास हुआ। आपकी दो शिष्याएँ हुईं - महासती सज्जन कुंवरजी और महासती कंचनकुंवरजी । महासती सज्जन कुँवरजी का जन्म उदयपुर राज्य के तिरपाल ग्राम के बंबोरी परिवार में हुआ | आपके पिता का नाम भैरूलालजी और माता का नाम रंगूबाई था । १३ वर्ष की अवस्था में आपका पाणिग्रहण कमोल के ताराचन्दजी दोशी के साथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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