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१० | चिन्तन के विविध आयाम [खण्ड २] महाव्रत, समिति, गुप्ति, यतिधर्म, द्वादश अनुप्रेक्षाएं, बाईस परीषह, षडावश्यक, चारित्र और तप आदि की जो भी साधनाएँ हैं उनमें अहिंसा का ही प्रमुख स्थान है। अहिंसा को केन्द्रबिन्दु मानकर ही अन्य व्रतों का विकास हुआ।
अहिंसा वाणी का विलास नहीं, जीवन का वास्तविक तथ्य है । वह तर्क का नहीं, व्यवहार का सिद्धान्त है, आचरण का मार्ग है । श्रमणाचार में ही नहीं अपितु गृहस्थ के आचार में भी अहिंसा ही प्रमुख है । उसके द्वादशवतों का आधार भी अहिंसा ही है। यह स्मरण रखना होगा कि अहिंसा की नहीं जाती वह फलित होती है। हिंसा से निवृत्त होना ही अहिंसा है । हिंसा का निषेध केवल आचार में ही नहीं विचार में भी किया गया है। विचारगत हिंसा ही एकान्त दर्शन है और अहिंसा अनेकान्त दर्शन है। आत्मा सम्बन्धी दृष्टिकोण
ब्राह्मण परम्परा के कितने ही दार्शनिकों का यह मन्तव्य था कि आत्मा व्यापक है । सम्पूर्ण विश्व में केवल एक ही आत्मा है तो कितने ही दार्शनिक आत्मा को चांवल के जितना, जौ के दाने के जितना और अंगुष्ठ के जितना मानते रहे तो कितने ही व्यापक मानते रहे पर जैन संस्कृति का यह मन्तव्य है कि आत्मा शरीर परिमाण वाला है। यदि आत्मा को व्यापक माना जायेगा तो पुनर्जन्म आदि नहीं हो सकेगा। चूंकि व्यापक वस्तु में गति संभव नहीं है। यदि जौ, तिल, और तन्दुल जितना ही आत्मा को माना जाय तो शरीर में उतने ही स्थान पर कष्ट का अनुभव होना चाहिए । सम्पूर्ण शरीर में नहीं, पर ऐसा होता नहीं है । सम्पूर्ण शरीर में ही सुख और दुःख की अनुभूति होती है ।
जैन संस्कृति का मानना है आत्मा एक गति से दूसरी गति में जाता है । उस गमन में धर्मास्तिकाय सहायक बनता है और अवस्थिति में अधर्मास्तिकाय सहायक होता है । गति सहायक द्रव्य धर्मास्तिकाय कहलाता है और स्थिति सहायक द्रव्य अधर्मास्तिकाय है । इन दोनों द्रव्यों की चर्चा जैन दर्शन के अतिरिक्त अन्य किसी भी दर्शन में नहीं आई है । जीव का स्वभाव गमन करने का है। जब जीव कर्ममुक्त होता है उस समय उसकी गति ऊर्ध्व होती है। मिट्टी का लेप हटने से जैसे तुम्बा पानी के ऊपर आता है वैसे ही कर्म का लेप हटते ही जीव ऊर्ध्वगति करता है।
-दशवकालिक चूणि प्र. अ.
1 अहिंसा-गहणे पंच महत्वयाणि गहियाणि भवंति। २ (क) छान्दोग्योपनिषद् ३।१४।३
(ख) कठोपनिषद २।४।१२ । ७ (क) मुण्डकोपनिषद १११६
(ख) छान्दोग्योपनिषद ३३१४१३
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