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पट्टावली-पर्यवेक्षण
हमारा सुनहरा अतीत कितना उज्ज्वल है ! उस गम्भीर रहस्य को जानने की जिज्ञासा मानव-मन में सदा ही अठखेलियां करती रही है । इसी जिज्ञासा से उत्प्रेरित होकर मानव ने उसे द्योतित करने के लिए समय-समय पर प्रयास किया है । उसी लड़ी की कड़ी में प्रस्तुत ग्रन्थ भी है। इस ग्रन्थ में विभिन्न भण्डारों की तह में दबी हुई, इधर-उधर बिखरी हुई अस्त-व्यस्त पट्टावलियों को समुचित रूप से संकलित व सम्पादित कर प्रबुद्ध पाठकों के समक्ष रखा गया है। वे पट्टावलियाँ अपने युग का प्रतिनिधित्व करती हैं, अतीत की सुमधुर स्मृतियों को वर्तमान में साकार करती हैं, पूर्वजों की गौरव-गाथाओं को प्रकट करती हैं और यथार्थ का चित्रण कर भावी गति-प्रगति की हिमगिरियों की गगनचुम्बी शिखरावलियों को छूने की प्रबल प्रेरणा देती है।
जैन साहित्य में पट्टावली-लेखन का युग चतुर्दश पूर्वधर स्थविर आर्य भद्रबाह स्वामी से प्रारम्भ होता है । उन्होंने दशाश्रुतस्कन्ध के आठवें अध्याय-कल्पसूत्र में स्थविरावली का अंकन कर गौरवमयी परम्परा का श्रीगणेण किया। उसके पश्चात्
1 (क) वंदामि भद्दबाहुँ,
पाईणं चरिमसगलसुयनाणि । सुत्तस्स कारगमिसि दसासु कप्पे य ववहारे ॥१॥
-दशाश्रुतस्कंधनियुक्ति, गा० १ । (ख) पंचकल्प महाभाष्य, गाथा १ से ११ तक । (ग) तेण भगवता आधारपकप्प-दस्त-कप्प-ववहाराय नवमपुब्वनी संदभूता निज्जूढा ।
-पंचकल्प चूर्णी पत्र १ लिखित । 2 लेखक ने अहमदाबाद के लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मंदिर
[क्रमशः]
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