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सम्यग्दर्शन : एक तुलनात्मक चिन्तन | ६३
तरह सम्यग्दर्शन तत्त्वसाक्षात्कार, आत्मसाक्षात्कार, अन्तर्बोध, दृष्टिकोण, श्रद्धा तथा भक्ति आदि अर्थों को लिये हुए हैं।
___ भगवान महावीर तथा तथागत बुद्ध के युग में प्रत्येक धर्म प्रवर्तक अपने सिद्धान्त को सम्यग्दृष्टि और दूसरे के सिद्धान्त को मिथ्यादृष्टि कहता था। बौद्ध त्रिपिटक साहित्य में बासठ मिथ्यादृष्टियों का वर्णन है और सूत्रकृतांग आदि में तीन सौ तिरसठ मिथ्यादृष्टियों का विवेचन है। यहाँ पर मिथ्यादृष्टि शब्द अश्रद्धा और मिथ्या शब्द के अर्थ में नहीं किन्तु गलत दृष्टिकोण के अर्थ में है । जब यह प्रश्न उठा-गलत दृष्टिकोण क्या है तब कहा गया-आत्मा और जगत के सम्बन्ध में जो गलत दृष्टिकोण है, वही मिथ्या दर्शन है। अतः प्रत्येक धर्मप्रवर्तक ने आत्मा और जगत का प्रतिपादन किया और अपने दृष्टिकोण पर विश्वास करने को सम्यग्दर्शन और दूसरों के दृष्टिकोण पर विश्वास करना मिथ्यादर्शन मान लिया है।
इस तरह सम्यग्दर्शन तत्त्व श्रद्धान के अर्थ में प्रयुक्त हुआ। किन्तु उसकी भावना में परिवर्तन हो चुका था। उसमें श्रद्धा तत्त्वस्वरूप की मान्यता के सम्बन्ध में थी। उसके पश्चात् श्रद्धा विशिष्ट व्यक्तियों के सम्बन्ध में केन्द्रित हुई। भाषाशास्त्रीय दृष्टि से सम्यग्दर्शन का अर्थ है यथार्थ दृष्टिकोण । यथार्थ दृष्टिकोण प्रत्येक सामान्य व्यक्ति प्राप्त नहीं कर सकता। सत्य की स्वानुभूति का मार्ग कठिन है। पर जिन्होंने अपनी अनुभूति से सत्य को जाना है और उसका जो स्वरूप बताया है उस यथार्थ दृष्टिकोण को स्वीकार करना सम्यग्दर्शन है । चाहे सम्यग्दर्शन को यथार्थ दृष्टि कहें या तत्त्वार्थ श्रद्धान उस में कोई अन्तर नहीं है। अन्तर है उसको प्राप्त करने की विधि में । एक वैज्ञानिक स्वयं प्रयोगशाला में बैठकर प्रयोग कर सत्य का उद्घाटन करता है। दूसरा व्यक्ति उस वैज्ञानिक के कथन पर विश्वास करके यथार्थ स्वरूप को जानता है । दोनों ही स्थितियों में यथार्थ स्वरूप को जाना जाता है, पर विधि में अन्तर होता है । एक ने स्वयं को अनुभूति से सत्य का साक्षात्कार किया है तो दूसरे व्यक्ति ने श्रद्धा के द्वारा सत्य को जाना है। या तो स्वयं साक्षात्कार करे या जिन मूर्धन्य मनीषियों ने तत्त्व को साक्षात्कार किया है उनकी बात को स्वीकार करे।
जैन तत्त्व मनीषियों ने जैन आचार का आधार सम्यग्दर्शन को माना है । आचार्य देववाचक ने सम्यग्दर्शन को संघ रूपी सुमेरु पर्वत की अत्यन्त सुदृढ़ और गहन भू-पीठिका (आधार शिला) कहा है जिस पर ज्ञान और चारित्र रूपी श्रेष्ठ धन की पर्वतमाला स्थिर रही हुई है। जैन आचार शास्त्र की दृष्टि से सम्यग्दर्शन को मोक्ष को प्रवेश-पत्र कहा है क्योंकि सम्यग्दर्शन के बिना सम्यग्ज्ञान नहीं होता और सम्यगज्ञान के बिना आचरण में निर्मलता नहीं आती और बिना आचरण की निर्मलता के कर्म नष्ट नहीं होते । और बिना कर्म नष्ट हुए निर्वाण प्राप्त नहीं होता।
1 नन्दी सूत्र १-१२ । . उत्तराध्ययन २८-३० ।
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