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सम्यग्दर्शन : एक तुलनात्मक चिन्तन | ६५ ही व्यक्ति का निर्माण होगा। असम्यक् जीवन दृष्टि पतन का मार्ग है। तो सम्यक् जीवन दृष्टि उत्थान का मार्ग है।
यह सत्य है कि जैन दर्शन में श्रद्धा का अर्थ तत्त्वश्रद्धा के अर्थ में है तो गीता में श्रद्धा ईश्वर के प्रति है। गीता का यह अभिमत है 'जीवन के विकास के लिए संशय रहित होना आवश्यक है। यदि मन में श्रद्धा नहीं है तो चाहे आप कितना भी तर्क कीजिए, दान दीजिए या यज्ञ कीजिए, सभी निरर्थक है । श्रद्धा के भी गीताकार ने तीन भेद किये हैं—सात्विक, राजस और तामस । सात्विक श्रद्धा वह जिसमें सतोगुण प्रधान होता है। वह श्रद्धा देवताओं के प्रति होती है। राजस श्रद्धा में रजोगुण की प्रधानता होती है, वह श्रद्धा यक्ष-राक्षसों प्रति होती है । तामस श्रद्धा में तमोगुण की प्रधानता है । यह श्रद्धा भूत और प्रेतों की ओर होती है।
श्रीमद्भगवद् गीता में श्रद्धा और भक्ति के विभिन्न आधार माने गये हैं । उस दृष्टि से श्रद्धा के चार प्रकार होते हैं
(१) जो श्रद्धा ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात होती है, जो साधक परमात्मतत्त्व का सही साक्षात्कार कर लेता है उस ज्ञान के आधार पर जो श्रद्धा उद्बुद्ध होती है वह ज्ञानी की श्रद्धा मानी जाती है । इसमें किसी भी प्रकार का संशय नहीं होता।
(२) द्वितीय श्रद्धा में जिज्ञासा होती है, वह जिज्ञासा भक्ति का रूप ग्रहण कर लेती है । इस श्रद्धा में कभी-कभी संशय भी होता है, क्योंकि वह जिज्ञासा पर आधृत है।
(३) तृतीय प्रकार की श्रद्धा वह है जिसमें कष्ट की प्रधानता होती है; संकटों से ग्रसित व्यक्ति सोचता है कि मुझे कोई शक्ति इन कष्टों से मुक्त कर दे। उसकी श्रद्धा में दैन्यवृत्ति होती है।
(४) चतुर्थ श्रद्धा में स्वार्थ भावना होती है। अपने आराध्य देव से कुछ प्राप्त हो इस दृष्टि से वह भक्ति करता है और श्रद्धा रखता है । वह सोचता है मुझे इस कार्य में सफलता मिल जाय । उसको श्रद्धा स्वार्थ पर आधृत होने से वास्तविक श्रद्धा नहीं होती। वह अभिनय तो वास्तविक श्रद्धा का करता है किन्तु उसमें वास्तविक श्रद्धा का अभाव होता है।
गीता में श्रीकृष्ण ने भक्तों को यह आश्वासन दिया है कि तुम मेरे पर पूर्ण
1 गीता १७-३ । . गीता १७-१५। ३ वही० १७-२/४ । + वही० ७-१६ । 5 गीता १८/६५-६६ ॥
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