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व्यवहारसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन | ८६
को विशेष लक्ष्य रखना चाहिए-(१) उनके बाहर जाने पर पैरों को साफ करना। (२) उनके उच्चार-प्रत्रवण को निर्दोष स्थान पर परठना । (३) उनकी इच्छानुसार वैय्यावृत्य करना (४) उनके साथ उपाश्रय के भीतर रहना (५) उनके साथ उपाश्रय के बाहर जाना।
वर्षावास के लिए वह स्थान श्रेष्ठ माना गया है जहाँ पर अधिक कीचड़ न होता हो । द्वीन्द्रियादि जीवों की बहुलता न हो, प्रासुक-भूमि हो, रहने योग्य दो-तीन बस्तियाँ हों, गो-रस की प्रचुरता हो, बहुत लोग रहते हों, वैद्य हों, औषधियों सरलता से प्राप्त हों, धान्य की प्रचुरता हो, राजा प्रजापालक हो, पाखण्डी कम हों, भिक्षा सुगम-रीति से प्राप्त होती हो, स्वाध्याय में किसी भी प्रकार से विघ्न न हो । जहाँ पर कुत्तों की अधिकता हो वहाँ पर नहीं रहना चाहिए, क्योंकि काटने आदि का भय रहता है।
भाष्य में आर्यरक्षित, आयकालक, राजा सातवाहन, प्रद्योत, मुरुण्ड, चाणक्य, किरातपुत्र, अवन्तीसुकुमाल, रोहिणेय, आर्यमंगू आदि की अनेक कथाएँ आयी हैं। यह भाष्य अनेक दृष्टियों से महत्वपूर्ण हैं ।
__भाष्य के पश्चात् टीका साहित्य लिखा गया है । टीका साहित्य की भाषा मुख्य रूप से संस्कृत है। उन टीकाओं में आगमों का दार्शनिक दृष्टि से विश्लेषण किया गया है । नियुक्ति, भाष्य और चूणि में जिन विषयों पर चर्चाएं की गयी हैं, टीका में नयेनये हेतुओं द्वारा उन्हीं विषयों को और अधिक पुष्ट किया गया है ।
टीकाकारों में आचार्य मलयगिरि का स्थान मूर्धन्य है। उन्होंने आगम ग्रन्थों पर अत्यन्त महत्त्वपूर्ण टीकाएँ लिखीं, जिनमें उनका गम्भीर पांडित्य स्पष्ट रूप से झलकता है। विषय की गहनता, भाषा की प्रांजलता, शैली का लालित्य और विश्लेषण की स्पष्टता आदि उनकी विशेषताएँ हैं। उनके द्वारा व्यवहार पर वृत्ति लिखी गयी है । ग्रन्थ के प्रारम्भ में प्राक्कथन के रूप में पीठिका है जिसमें कल्प, व्यवहार, दोष, प्रायश्चित्त प्रभृति विषयों पर चिन्तन किया है । वृत्तिकार ने प्रारम्भ में अहंत अरिष्टनेमि को, अपने सद्गुरुवर्य तथा व्यवहार सूत्र के चूणिकार आदि को भक्तिभावना से विभोर होकर नमन किया है।
वृत्तिकार ने बृहत्कल्प और व्यवहार इन दोनों आगमों के अन्तर को स्पष्ट करते हुए लिखा कि कल्पाध्ययन में प्रायश्चित्त का निरूपण है, किन्तु उसमें प्रायश्चित्त देने की विधि नहीं है जबकि व्यवहार में प्रायश्चित्त देने की और आलोचना करने की ये दोनों प्रकार की विधियाँ हैं । यह बृहत्कल्प से व्यवहार की विशेषता है । व्यवहार, व्यवहारी और व्यवहर्तव्य तीनों का विश्लेषण करते हुए लिखा है- व्यवहारी कर्ता रूप है, व्यवहार करणरूप है और व्यवहर्तव्य कार्यरूप है । करणरूपी व्यवहार आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत रूप से पांच प्रकार का है । चर्णिकार ने पाँचों प्रकार
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