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२८ | चिन्तन के विविध आयाम : खण्ड १
करने का प्रयास किया है कि नारायण रूप परब्रह्म है और वही नारायण चेतनाचेतन जगत का उपादान व निमित्त है । 1
निम्बार्क पारमार्थिक भेदाभेद या द्वैताद्वैतवादी है । उन्होंने तत्त्व की ईश्वर के रूप में स्थापना की और उसे विष्णु कहा । " विष्णु ही चराचर जगत का उपादान और निमित्त है।
विज्ञानभिक्षु सांख्यदर्शन के अन्तिम आचार्य माने जाते हैं । वे स्वतन्त्र विचार के धनी थे । उन्होंने सांख्य और वेदान्त दर्शनों में सामंजस्य बिठाने का सफल प्रयास किया । भास्कर और रामानुज से कुछ पृथक् दृष्टि लिए हुए ब्रह्मतत्त्व की, ईश्वर के रूप में स्थापना की। उनका मन्तव्य है कि सत्व रूप शुद्ध प्रकृति का अवलम्बन लेकर ब्रह्म अपने आप में ही सदा वर्तमान प्रकृति और पुरुष तत्त्व की सृष्टि करता है और उसे विकसित करता है । प्रकृति और पुरुष काल्पनिक नहीं, परन्तु वास्तविक हैं । वे ब्रह्म से पृथक् हैं | पृथक् होने पर भी ब्रह्म से विभक्त नहीं है । ब्रह्म तत्त्व की उपादान और निमित्त कारण रूप प्रचलित भाषा का परित्याग कर इन्होंने नवीन अधिष्ठान रूप व्याख्या प्रस्तुत की । अधिष्ठान कारण समवायी, असमवायी और निमित्त कारण से भिन्न एक नवीन कारण है । अधिष्ठान कारण वह है जिसमें कार्य विभक्त नहीं होता, किन्तु उपषृम्भ पाकर प्रवृत्ति करता है । यह अधिष्ठान कारण ब्रह्म है । प्रकृति और पुरुष उसी में बिना विभाग रहते हैं । यही कारण है कि विज्ञानभिक्षु at अविभाग अद्वैतवादी कहा गया है। ये उपनिषद्, पुराण और स्मृति के प्रमाणों के आधार से ब्रह्म की निर्विभाग अद्वैत रूप में संस्थापना कर उसे ईश्वर कहते हैं । इन्होंने आचार्य शंकर के मायावाद का खण्डन किया है। आचार्य शंकर ने सांख्य और योग दर्शन को अवैदिक माना है, पर विज्ञानभिक्षु ने उन्हें वैदिक माना है और इस बात पर बल दिया है कि सांख्यसम्मत प्रकृति वैदिक है, प्रकृति ब्रह्म का अंश है । ३
वल्लभ ने भी ब्रह्म की ईश्वर के रूप में स्थापना की । सामान्य रूप से उनका कोण अन्य आचार्यों से पृथक् प्रतीत होता है । पर गहराई से चिन्तन करने पर सूर्य के प्रकाश की भाँति स्पष्ट परिज्ञात होता है कि उनकी विचारधारा आचार्य रामानुज की विचारधारा से मिलती-जुलती है । वल्लभाचार्य शुद्धाद्वैती हैं । वे ब्रह्म at fare स्वरूप और विश्व को ब्रह्म स्वरूप तथा विश्व का पारमार्थिकत्व संस्थापित करते हैं । उनका यह वज्र आघोष है कि ईश्वर (ब्रह्म) विश्व का उपादान कारण
1 (क) हिस्ट्री ऑफ इण्डियन फिलोसाफी, भाग ३, पृष्ठ १५६ - ले० दास गुप्ता (ख) सूक्ष्म चिदाचिद्वस्तु शरीरस्यैव ब्रह्मणः स्थूलचिदाचिद्वस्तु शरीरत्वेन कार्यत्वात् । - श्री भाष्य (बांबे संस्कृत सीरीज ) १1१1१ |
2 निम्बार्क भाष्य - ब्रह्मसूत्र, १1१1४ । 3 विज्ञानामृत भाष्य - १1१1२, १1१1४, २1१1३२ ।
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