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: एक विश्लेषण | ५६
-अजीव है । तेजोलेश्या के पुद्गलों में जिस प्रकार लाल प्रभा और कान्ति होती है वैसी ही कान्ति तेजस्-लब्धि के प्रयोग करने वाले पुद्गलों में भी होती है। इसी दृष्टि से तेजस्-लब्धि के साथ लेश्या शब्द भी प्रयुक्त हुआ हो ।
गणधर गौतम ने भगवान महावीर से जिज्ञासा प्रस्तुत की— भगवन् ! बाण के जीवों को मार्ग में जाते समय कितनी क्रियाएँ लगती हैं ? उसके हर एक अवयव की कितनी क्रियाएँ होती हैं ? उत्तर में भगवान ने कहा- गौतम, चार-पांच क्रियाएँ होती हैं। क्योंकि मार्ग में जाते समय मार्गवर्ती जीवों को वह संत्रस्त करता है । बाण के प्रहार से वे जीव अत्यन्त सिकुड़ जाते हैं । प्रस्तुत सन्तापकारक स्थिति में जीव को चार क्रियाएँ लगती हैं, यदि प्राणातिपात हो जाय तो पाँच क्रियाएँ लगती हैं। यही स्थिति तेजोलेश्या की भी है। उसमें भी चार-पाँच क्रियाएँ लगती हैं । अष्टस्पर्शी पुद्गल द्रव्य मार्गवर्ती जीवों को उद्वेग न करे, यह स्वाभाविक है । भगवती में स्कन्दक मुनि का 'अवहिर्लेश्य' यह विशेषण है जिसका अर्थ है उनकी लेश्या यानि मनोवृत्ति संयम से बाहर नहीं है ।' आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में श्रद्धा का उत्कर्ष प्रतिपादित करते हुए मनोयोग के अर्थ में लेश्या का प्रयोग हुआ है । शिष्य गुरु की दृष्टि का अनुगमन करे। उनकी लेश्या में विचरे अर्थात् उनके विचारों का अनुगमन करे। 3 प्रज्ञापना, जीवाभिगम, उत्तराध्ययन, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति आदि आगम साहित्य में लेश्या शब्द का प्रयोग वर्ण, प्रभा और रंग के अर्थ में भी हुआ है । प्रज्ञापना में देवों के दिव्य प्रभाव का वर्णन करते हुए द्य ुति, प्रभा, ज्योति, छाया, अचि और लेश्या शब्द का प्रयोग हुआ है । इसी प्रकार नारकीय जीवों के अशुभ कर्मविपाकों के सम्बन्ध में गौतम ने जिज्ञासा प्रस्तुत की— क्या सभी नारकीय जीव एक सदृश लेश्या और एक सदृश वर्ण वाले होते हैं या असमान ? समाधान करते हुए भ० महावीर ने कहा - सभी जीव समान लेश्या और समान वर्ण वाले नहीं होते। जो जीव पहले नरक में उत्पन्न हुए हैं वे पश्चात् उत्पन्न होने वाले जीवों की अपेक्षा विशुद्ध वर्ण वाले और लेश्या वाले होते हैं । इसका कारण नारकीय जीवों के अप्रशस्त वर्ण नामकर्म की प्रकृति, तीव्र अनुभाग वाली होती है जिसका विपाक भव-सापेक्ष्य है । जो जीव पहले उत्पन्न हुए हैं उन्होंने बहुत सारे विपाक को पा लिया है, स्वल्प अवशेष है । जो बाद में उत्पन्न हुए हैं उन्हें अधिक भोगना है । एतदर्थ पूर्वोत्पन्न विशुद्ध हैं और पश्चा
1 ततेणं से उसु उड्ढं बेहासं उव्विहिए समाणे जाई तत्थ पाणाई अभिहणई दत्त लेस्सेति । - भग० २ / ५, उ० ६..
• अविहित्लेसे- भगवती २ - २ ; उ०- १ ।
8 आचारांग अ० ५ ।
प्रज्ञापना, पद २ ।
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