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६६ | चिन्तन के विविध आयाम खण्ड १
मध्यम होता है । रक्त वर्णं अधिक सहन करने योग्य होता है। हारिद्र वर्ण सुखकर होता है और शुक्ल वर्ण उससे भी अधिक सुखकर होता है । 2
महाभारत में कहा है - कृष्ण वर्ण वाले की गति नीच होती है। जिन निकृष्ट कर्मों से जीव नरक में जाता है वह उन कर्मों में सतत आसक्त रहता है । जो जीव नरक से निकलते हैं उनका वर्ण धूम्र होता है जो रंग पशु-पक्षी जाति का है । मानव जाति का रंग नीला है । देवों का रंग रक्त है - वे दूसरों पर अनुग्रह करते हैं । जो विशिष्ट देव होते हैं उनका रंग हारिद्र है। जो महान साधक हैं उनका वर्ण शुक्ल है ।" अन्यत्र महाभारत में यह भी लिखा है कि दुष्कर्म करने वाला मानव वर्ण से परिभ्रष्ट हो जाता है और पुण्य कर्म करने वाला मानव वर्ण के उत्कर्ष को प्राप्त करता है । "
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तुलनात्मक दृष्टि से हम चिन्तन करें तो सहज ही परिज्ञात होता है कि जैन दृष्टि का लेश्या - निरूपण और महाभारत का वर्ण - विश्लेषण – ये दोनों बहुत कुछ समानता को लिये हुए हैं । तथापि यह नहीं कहा जा सकता कि जैनदर्शन ने यह वर्णन महाभारत से लिया है । क्योंकि अन्य दर्शनों ने भी रंग के प्रभाव की चर्चा की की है । पर जैनाचार्यों ने इस सम्बन्ध में जितना गहरा चिन्तन किया है उतना अन्य दर्शनों ने नहीं किया। उन्होंने तो केवल इसका वर्णन प्रासंगिक रूप से ही किया है । अतः डॉ० हर्मन जेकोबी का यह मानना कि लेश्या का वर्णन जैनियों ने अन्य परम्पराओं से लिया है, तर्कसंगत नहीं है ।
कुरुक्षेत्र के मैदान में श्रीकृष्ण ने गति के कृष्ण और शुक्ल ये दो विभाग किये । कृष्ण गति वाला पुनः-पुनः जन्म-मरण ग्रहण करता है, शुक्ल गतिवाला जन्म और मरण से मुक्त हो जाता है । 4
धम्मपद' में धर्म के दो विभाग किये हैं- कृष्ण और शुक्ल । पण्डित मानव को कृष्णधर्म का परित्याग कर शुक्लधर्म का पालन करना चाहिए ।
महर्षि पतंजलि ने कर्म की दृष्टि से चार जातियाँ प्रतिपादित की हैं - ( १ ) कृष्ण ( २ ) शुक्ल कृष्ण (३) शुक्ल (४) अशुक्ल अकृष्ण, जो क्रमश: अशुद्धतर, अशुद्ध,
1 षड् जीववर्णा परमं प्रमाणं, कृष्णो धूम्रो नीलमथास्य मध्यम् । रक्तं पुनः सह्यतरं सुखं तु हारिद्रवर्णं सुसुखं च शुक्लम् ।।
- महाभारत,
2 महाभारत, शांतिपर्व २८० । ३४-४७ । 3 महाभारत, शांतिपर्व २६१।४ - ५ । 4 शुक्ल कृष्णे गती ह्यते, जगतः शाश्वतो मते । एकया यात्यनावृत्तिमन्ययाऽवतते पुनः ॥ 5 धम्मपद, पंडितवग्ग, श्लोक १६ ।
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शांतिपर्व २८०।३३
- गीता ८२६
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