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व्यवहार सूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन | ७६ धम्मकहा (ज्ञाताधर्मकथा), (७) उवासगदसा (उपासकदशा), (८) अंतगडदसा (अन्तकृत्दशा), (६) अणुत्तरोववाईयदसा (अनुत्तरोपपातिकदशा), (१०) पाहावागरणाइ (प्रश्नव्याकरणानि), (११) विवागसुय (विपाकसूत्र), (१२) दिट्टिवाय (दृष्टिवाद या दृष्टिपात)।
दृष्टिवाद के परिकर्म, सूत्र, पूर्वगत, अनुयोग और चूलिका ये पाँच प्रकार थे। उसमें पूर्वगत में उत्पाद, अग्रायणीय आदि चौदह पूर्व थे। दृष्टिवाद अंग श्रमण भगवान महावीर-परिनिर्वाण के १००० वर्ष पश्चात् विच्छिन्न हो गया ।
____ अंगों की संख्या निर्धारित है, पर अंग-बाह्य आगमों की संख्या निर्धारित नहीं है । आचार्य उमास्वाति ने अंग-बाह्य आगमों की संख्या का उल्लेख करते हुए उसे अनेक कहा है । अंग-बाह्य को आचार्य देववाचक ने आवश्यक और आवश्यकव्यतिरिक्त इन दो भागों में विभक्त किया है। और साथ ही कालिक और उत्कालिक के रूप में भी। आवश्यक के सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान ये छ: प्रकार हैं और आवश्यक व्यतिरिक्त में औपपातिक, राजप्रश्नीय, प्रज्ञापना, निशीथ, व्यवहार आदि अनेक आगम हैं । कालिक में उत्तराध्ययन, दशाश्रुतस्कंध, कल्प, व्यवहार आदि अनेक आगम आते हैं और उत्कालिक में सूर्यप्रज्ञप्ति, पौरुषीमंडल आदि अनेक आगम हैं।
___ आचार्य आर्यरक्षित ने आगमों को अनुयोगों के आधार से चार भाग में विभक्त किया है।
(१) चरण-करणानुयोग-कालिकश्रुत, महाकल्प, छेदश्रुत आदि । (२) धर्म-कथानुयोग- ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन आदि । (३) गणितानुयोग-सूर्यप्रज्ञप्ति आदि । (४) ध्यानयोग-दृष्टिवाद आदि ।
विषय सादृश्य की दृष्टि से प्रस्तुत वर्गीकरण है, पर व्याख्या कम की दृष्टि से आगमों के दो रूप प्राप्त होते हैं
(१) अपृथक्त्वानुयोग, (२) पृथक्त्वानुयोग,
1 भगवती २०/८ (ख) तित्थोगाली ८०१ ।
तत्त्वार्थसूत्र १.२० ।
नन्दीसूत्र सू ८२ (पुण्यविजयजी)। • वही० सू. ८३-८४ (पुण्यविजयजी)। 5 (क) आवश्यक नियुक्ति ३६३-३६७
(ख) विशेषावश्यक भाष्य २२८४-२२६५ (ग) दशवकालिकनियुक्ति ३ टीका सूत्रकृतांग चूणि पत्र-४ ।
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