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८४ | चिन्तन के विविध आयाम : खण्ड १
प्रायश्चित्त एक मास की संज्ञा से अभिहित है। दोष लगने वाले श्रमण और श्रमणी को आचार्य आदि के समक्ष कपट रहित आलोचना करनी चाहिए। उसे एक मासिक प्रायश्चित्त आता है; जबकि कपट सहित आलोचना करने पर उसी दोष का द्विमासिक प्रायश्चित्त आता है । जिसकी कपट रहित आलोचना करने पर द्विमासिक प्रायश्चित्त आता है किन्तु उसी दोष की आलोचना कपट सहित करने से त्रिमासिक प्रायश्चित्त आता है। इस तरह अधिक से अधिक छ: मास के प्रायश्चित्त का विधान है । जिस साधक ने अनेक दोषों का सेवन किया हो उस साधक को क्रमशः दोषों की आलोचना करनी चाहिए और प्रायश्चित्त लेकर उसका शुद्धीकरण करना चाहिए । प्रायश्चित्त ग्रहण करते समय यदि पुनः दोष लग जाय तो उन दोषों को न छिपाये, किन्तु दोषों की आलोचना कर प्रायश्चित्त ग्रहण कर शुद्धीकरण करना चाहिए ।
प्रायश्चित्त का सेवन करने वाले श्रमण को गुरुजनों की आज्ञा प्राप्त कर ही अन्य श्रमणों के साथ उठना बैठना चाहिए। यदि वह गुरुजनों की आज्ञा की अवहेलना करता है तो उसे छेद प्रायश्चित्त दिया जाता है। परिहारकल्प में अवस्थित श्रमण आचार्य आदि की अनुमति से परिहारकल्प को छोड़कर स्थविर आदि की सेवा के लिए दूसरे स्थान पर जा सकता है ।
यदि कोई श्रमण विशिष्ट साधना के लिए गण का परित्याग कर एकाकी विचरण करता है, पर वह अपने को शुद्ध आचार पालन करने में असमर्थ अनुभव करता हो तो उसे आलोचना कर छेद या नवीन दीक्षा ग्रहण करनी चाहिए ।
आलोचना आचार्य उपाध्याय के समक्ष करके उस दोष का प्रायश्चित्त लेकर शुद्धीकरण करना चाहिए। उनकी अनुपस्थिति में अपने संभोगी साधर्मिक बहुश्रुत आदि के सामने आलोचना करनी चाहिए। यदि वे न हों तो अन्य समुदाय के संभोगी बहुश्रुत श्रमण के सामने आलोचना करनी चाहिए । यदि वह भी न हों तो सदोषी श्रमण हो तो वहाँ जाकर उसके अभाव में बहुश्रुत श्रमणोपासक या सम्यक्दृष्टि श्रावक या उसके भी अभाव में ग्राम या नगर के बाहर पूर्व या उत्तर दिशा के सम्मुख खड़ा होकर अपने अपराध की आलोचना करे । जीवन विशुद्धि के लिए आलोचना अत्यधिक आवश्यक है ।
द्वितीय उद्देशक में बताया है, जिसने दोष का सेवन किया हो उसे प्रायश्चित्त देना चाहिए | अनेक श्रमणों में से एक ने भी अपराध किया है तो उसे प्रायश्चित्त देना चाहिए । यदि सभी ने अपराध किया है तो एक के अतिरिक्त सभी प्रायश्चित्त लेकर पहले शुद्धीकरण करे और उन सभी का प्रायश्चित्त काल पूर्ण होने पर उसे भी प्रायश्चित्त देकर शुद्ध करे ।
परिहारकल्प स्थित श्रमण यदि व्याधि-ग्रस्त हो तो उसे गच्छ से बाहर निकालना सर्वथा अनुचित है । स्वस्थ होने पर उसे गणावच्छेदक से प्रायश्चित्त लेकर
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