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व्यवहार सूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन | ८१
प्रायश्चित्त सूत्र है । पाँच चारित्रों में, द्वितीय चारित्र छेदोपस्थापनिक है । 1 प्रायश्चित्त का सम्बन्ध इसी चारित्र से है । अतः इनका नाम छेद सूत्र रखा गया हो । आवश्यक मलयगिरि वृत्ति में छेद सूत्रों के लिए पद विभाग, समाचारी, शब्द व्यवहृत हुए हैं । पद- विभाग और छेद दोनों समानार्थं वाले हैं । इस दृष्टि से भी सम्भव है छेद-सूत्र यह नाम रखा गया हो । छेद सूत्र में एक सूत्र का दूसरे सूत्र से सम्बन्ध नहीं होता । उसमें प्रत्येक सूत्र स्वतन्त्र होता है । उनकी व्याख्या विभाग की दृष्टि से की जाती है ।
निशीथ भाष्य में और चूर्णि में छेद सूत्रों को उत्तम श्रुत कहा गया है । क्योंकि छेद सूत्र प्रायश्चित्त विधि का निरूपण करते हैं। उससे चारित्र की शुद्धि होती है । इसलिए वह उत्तम श्रुत है ।
श्रमण जीवन की साधना का सभी दृष्टियों से पूर्ण विवेचन छेद-सूत्रों प्राप्त होता है । साधक की मर्यादा, उसका कर्तव्य आदि विविध दृष्टियों पर छेद-सूत्रों में विचार किया गया है । साधना करते कहीं स्खलना हो जाय, दोष-जन्य मलिनता आ जाय, भूलों से जीवन कलुषित हो जाय उसके परिष्कार हेतु प्रायश्चित्त का विधान है और यह सारा कार्य छेद-सूत्र का है ।
छेद सूत्रों में जो आचार-संहिता है उसे हम उत्सर्ग, अपवाद, दोष, और प्रायश्चित्त इन चार भागों में विभक्त कर सकते हैं । उत्सर्ग से तात्पर्य है किसी विषय का सामान्य विधान । अपवाद का अर्थ है परिस्थिति विशेष की दृष्टि से विशेष विधान । दोष का अर्थ है उत्सर्ग और अपवाद मार्ग का भंग करना और प्रायश्चित्त का अर्थ है व्रत भंग होने पर उचित दण्ड लेकर उस दोष का शुद्धीकरण करना । किसी भी विधान के लिए चार बातें आवश्यक हैं। 'सर्वप्रथम नियम बनते हैं । उसके बाद देश, काल और परिस्थिति के अनुसार उसमें किंचित् छूट दी जाती है । यह परिस्थिति विशेष के लिए अपवाद की व्यवस्था की गयी है । जो दोष साधक को लग सकते हैं उन दोषों की एक लम्बी सूची छेद सूत्रों में प्राप्त होती है । इस सूची से तात्पर्य है उन दोषों से साधक बचने का प्रयास करे । यदि सावधानी रखने के बावजूद भी दोष लग जायें तो प्रायश्चित्त का विधान है । प्रायश्चित्त से पुराने दोषों की शुद्धि होती है और नवीन दोष न लगे इसके लिए साधक को सतत सावधान रखने के लिए प्रेरणा मिलती है ।
1 विशेषावश्यकभाष्य, गाथा १२६०-१२७० ।
2 आवश्यक मलयगिरि वृत्ति ६६५ ।
● निशीथभाष्य ६१४५ ।
● निशीथचूर्णि ६१८४ ।
5 'जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा' पृ० ३४७ ।
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