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७४ | चिन्तन के विविध आयाम : खण्ड १
छठे मित्र ने कहा- मुझे तुम्हारी चर्चा ही निरर्थक प्रतीत हो रही है। इस वृक्ष के नीचे टूटे हुए हजारों फल पड़े हुए हैं । इन फलों को खाकर ही हम पूर्ण सन्तुष्ट हो सकते हैं । फिर वृक्ष, टहनियों और फलों को तोड़ने की आवश्यकता ही नहीं।
प्रस्तुत रूपक' के द्वारा आचार्य ने लेश्याओं के स्वरूप को प्रकट किया है। छह मित्रों में पूर्व-पूर्व मित्रों के परिणामों की अपेक्षा उत्तर-उत्तर मित्रों के परिणाम शुभ, शुभतर और शुभतम हैं । क्रमश: उनके परिणामों में संक्लेश की न्यूनता और मृदुता की अधिकता है। इसलिए प्रथम मित्र के परिणाम कृष्णलेश्या वाले हैं, दूसरे के नीललेश्या वाले हैं, तीसरे की कापोतलेश्या, चतुर्थ मित्र की तेजोलेश्या, पाँचवें की पद्मलेश्या और छठे मित्र की शुक्ललेश्या है ।
एक जंगल में डाकुओं का समूह रहता था । वे लूटकर अपना जीवनयापन करते थे । एक दिन छह डाकुओं ने सोचा कि किसी शहर में जाकर हम डाका डालें। वे छह डाकू अपने स्थान से प्रस्थित हुए। छह डाकुओं में से प्रथम डाकू ने एक गाँव के पास से गुजरते हुए कहा-रात्रि का सुहावना समय है। गाँव के सभी लोग सोए हैं । हम इस गाँव में आग लगा दें ताकि सोये हुए सभी व्यक्ति और पशु-पक्षी आग में झुलस कर खतम हो जायेंगे । उनके करुण-क्रन्दन को सुनकर बड़ा आनन्द आयगा।
दूसरे डाकू ने कहा-बिना मतलब के पशु-पक्षियों को क्यों मारा जाये ? जो हमारा विरोध करते हैं उन मानवों को ही मारना चाहिए।
तीसरे डाकू ने कहा-मानवों में भी महिला वर्ग और बालक हमें कभी भी परेशान नहीं करते । इसलिए उन्हें मारने की आवश्यकता नहीं। अतः पुरुष वर्ग को ही मारना चाहिए।
चतुर्थ डाकू ने कहा- सभी पुरुषों को भी मारने की आवश्यकता नहीं है । जो पुरुष शस्त्रयुक्त हों केवल उन्हें मारना चाहिए ।
पांचवें डाकू ने कहा-जिन व्यक्तियों के पास शस्त्र हैं किन्तु वे हमारा किसी भी प्रकार का विरोध नहीं करते, उन व्यक्तियों को मारने से भी क्या लाभ ?
छठे डाक ने कहा-हमें अपने कार्य को करना है । पहले ही हम लोग दूसरों का धन चुराकर पाप कर रहे हैं, और फिर जिसका धन हम अपहरण करते हैं, उन धनिकों के प्राण को लूटना भी वहाँ की बुद्धिमानी है ? एक पाप के साथ दूसरा पाप करना अनुचित ही नहीं बिलकुल अनुचित है।
___इन छह डाकुओं के भी विचार क्रमशः एक-दूसरे से निर्मल होते हैं, जो उनकी निर्मल-भावना को व्यक्त करते हैं।'
1 आवश्यक हारिभद्रीयावृत्ति, पृ०, २४५ । 2 लोक प्रकाश, सर्ग ३, श्लोक ३६३-३८० ।
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