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५८ | चिन्तन के विविध आयाम : खण्ड १
से होने वाले भावों को भी समझ सकते हैं । द्रव्यलेश्या के पुद्गलों पर वर्ण का प्रभाव अधिक होता है । वे पुद्गल कर्म, द्रव्य-कषाय, द्रव्य-मन, द्रव्य-भाषा के पुद्गलों से स्थूल हैं । किन्तु औदारिक शरीर, वैक्रिय शरीर, शब्द, रूप, रस, गन्ध, आदि से सूक्ष्म हैं। ये पुद्गल आत्मा के प्रयोग में आने वाले पुद्गल हैं अतः इन्हें प्रायोगिक पुद्गल कहते हैं । यह सत्य है कि ये पुद्गल आत्मा से नहीं बँधते हैं, किन्तु इनके अभाव में कर्मबन्धन की प्रक्रिया भी नहीं होती ।
आत्मा जिसके सहयोग से कर्म में लिप्त होती है, वह लेश्या है । लेश्या का ध्यापक दृष्टि से अर्थ करना चाहें तो इस प्रकार कर सकते हैं कि पुद्गल द्रव्य के संयोग से होने वाले जीव के परिणाम और जीव को विचार-शक्ति को प्रभावित करने वाले पुद्गल द्रव्य और संस्थान के हेतुभूत वर्ण और कान्ति । भगवती सूत्र में जीव और अजीव दोनों की आत्म-परिणति के लिए लेश्या शब्द व्यवहृत हुआ है । जैसे चूना और गोबर से दीवार का लेपन किया जाता है वैसे ही आत्मा पुण्य-पाप या शुभ और अशुभ कर्मों से लीपी जाती है अर्थात् जिसके द्वारा कर्म आत्मा में लिप्त हो जाते हैं वह लेश्या है। दिगम्बर आचार्य वीरसेन के शब्दों में, 'आत्मा और कर्म का सम्बन्ध कराने वाली प्रवृत्ति लेश्या है। मिथ्यात्व, अवत, कषाय, प्रमाद और योग के द्वारा कर्मों का सम्बन्ध आत्मा से होता है क्या वे ही लेश्या हैं ? पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में कषायों के उदय से अनुरंजित मन, वचन और काय की प्रवृत्ति को लेश्या कहा है।' तत्त्वार्थ राजवातिक में अकलंक ने भी उसी का अनुसरण किया है ।
सार यह है कि केवल कषाय और योग लेश्या नहीं है, किन्तु कषाय और योग दोनों ही उसके कारण हैं । इसलिए लेश्या का अन्तर्भाव न तो योग में किया जा सकता है और न कषाय में । क्योंकि इन दोनों के संयोग से एक तीसरी अवस्था समुत्पन्न होती है जैसे शरबत । कितने ही आचार्य मानते हैं कि लेश्या में कषाय की प्रधानता नहीं अपितु योग की प्रधानता होती है क्योंकि केवली में कषाय का अभाव होता है, किन्तु योग की सत्ता रहती है, इसलिए उसमें शुक्ल लेश्या है।
षट्खण्डागम की धवला टीका में लेश्या के सम्बन्ध में निर्देश, वर्ण, परिणाम, संक्रम, कर्म, लक्षण, गति, स्वामी, साधन, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्प-बहुत्व प्रभृति अधिकारों के द्वारा चिन्तन किया है। आगम साहित्य में अट्ठाइस लब्धियों का वर्णन है। उनमें एक तेजस्-लब्धि है। तेजो-लेश्या
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1 गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ४८६, प० सं० (प्रा०) १।१४२-३।
धवला ७, २, १, सू० ३, पृ०७।।
सर्वार्थसिद्धि २/६, तत्त्वार्थराजवार्तिक २/६/८ । • तत्त्वार्थराजवार्तिक २, ६, ८, पृ० १०६ । 5 धवला १, १, १, ४, पृ० १४६ ।
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