________________
६२ | चिन्तन के विविध आयाम : खण्ड १
नहीं सकेगा। अतः कर्मनिस्यन्द लेश्या मानना ही तर्कसंगत हैं । जहाँ पर लेश्या के स्थितिकाल का बन्धन होता है वहाँ पर चारों का बन्ध होगा। जहाँ पर कषाय का अभाव है वहाँ पर योग के द्वारा दो का ही बन्धन होगा। उपशान्तमोह और क्षीणमोह आत्माओं में कर्म-प्रवाह प्रारम्भ है, वहाँ पर लेश्या भी है, तथापि स्थिति का बन्ध नहीं होता है । प्रश्न है-समुच्छिन्न शुक्लध्यान को ध्याते हुए चौदहवें गुणस्थान में चार कर्म विद्यमान हैं तथापि वहाँ पर लेश्या नहीं है । उत्तर है-जो आत्माएँ कर्म युक्त हैं उन सभी के कर्म-प्रवाह चालू ही रहें, ऐसा नियम नहीं है। यदि इस प्रकार माना जायेगा तो योग परिणाम लेश्या का अर्थ होगा योग ही लेश्या है; किन्तु इस प्रकार नहीं है । उदाहरण के रूप में सूर्य के बिना किरणें नहीं होती; किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं कि किरणें ही सूर्य हैं । तात्पर्य यह है बहता हुआ जो कर्म-प्रवाह है वही लेश्या का उपादान कारण है ।।
__तृतीय योग-परिणाम लेश्या कर्मनिस्यन्द स्वभावयुक्त नहीं है । यदि इस प्रकार माना जायगा तो ईर्यापथिक मार्ग स्थिति-बन्ध बिना कारण का होगा। आगम साहित्य में दी समय स्थिति वाले अन्तर्मुहूर्त काल को भी निर्धारित काल माना है। अतः स्थितिबन्ध का कारण कषाय नहीं अपितु लेश्या है । जहाँ पर कषाय रहता है वहाँ पर तीव बन्धन होता है । स्थितिबन्ध की परिपक्वता कषाय से होती है । अतः कर्म-प्रवाह को लेश्या मानना तर्कसंगत नहीं है।
कर्मों के कर्म-सार और कर्म-असार ये दो रूप हैं । प्रश्न है - कर्मों के असारभाव को निस्यन्द मानते हैं तो असार कर्म प्रकृति से लेश्या के उत्कृष्ट अनुभागबन्ध का कारण किस प्रकार होगा? और यदि कर्मों के सार-भाव को निस्यन्द कहेंगे तो आठ कर्मों में से किस कर्म के सार-भाव को कहें ? यदि आठों ही कर्मों का माना जाय तो जहाँ पर कर्मों के विपाक का वर्णन है वहाँ पर किसी भी कर्म का लेश्या के रूप में विपाक का प्रतिपादन नहीं हुआ है । एतदर्थ योग-परिणाम को ही लेश्या मानना चाहिए। उपाध्याय विनयविजयजी ने लोक-प्रकाश में इस तथ्य को स्वीकार किया है।
1 (क) उत्तराध्ययन अ० ३४-टी० पृ० ६५० ।
(ख) प्रज्ञापना १७ पृ०, ३३१ । उत्तराध्ययन, अ० ३४, पृ० ६५० । न लेश्या स्थिति हेतवः किन्तु कषायाः लेश्यास्तु कषायोदयान्तर्गताः अनुभाग हेतव अतएव च स्थितिपाक विशेषस्तस्य भवति लेश्या विशेषेण ।
-उत्तरा० ३४, पृ० ६५० (ख) प्रज्ञा० १७, पृ० ३३१ । + लेसाणां निक्लेवो च उक्कओ दुविहो उ होइ नायव्वो–५३४ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org