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ईश्वर : एक चिन्तन | ४६ सकता । बुद्धि से ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करना सम्भव नहीं है । ईश्वर और किसी को पसन्द नहीं करता, वह तो हृदय की भक्ति चाहता है । 1
लाइबनीज ने ईश्वर को चिद-बिन्दुओं का बिन्दु माना है । काण्ट का कहना है - यदि ईश्वर को न माना जायेगा तो पूर्ण नैतिकता का आदर्श अपूर्ण ही रहेगा । अच्छे कार्यों का फल देने वाली और कुकृत्यकारियों को दण्डित करने वाली कोई न कोई सत्ता अवश्य ही होनी चाहिए और वही सत्ता ईश्वर है । हीगल द्वन्द्वात्मक पद्धति पर निष्ठा रखने वाला था । उसका अभिमत था कि विश्व की प्रत्येक वस्तु में स्थापना, प्रतिस्थापना और सामंजस्य की रीति से ही गतिशीलता होती है । यह विचारधारा अत्यधिक प्राचीन है । एम्पेडोक्लीज, अरिस्टाटल, शेलिंग और फिकेट में ये ही स्वर सुनायी देते हैं। हीगल की विचारधारा है कि धर्म का कार्य है- उस परम सत्ता तक पहुँचना और उसकी अनुभूति करना । परम सत्ता एक ऐसी विशिष्ट सत्ता है, जिसमें जड़ और चेतन, विषय और वस्तु, शुभ और अशुभ एक हो गये हैं ।
ब्रेड ने सत्य को एकरूपता कहकर शब्दों की परिधि में बाँधने का प्रयास किया है । उसका मन्तव्य है कि सत्य एक प्रकार की पूर्ण अनुभूति है जिसमें हमारे अनुभवों की आंशिक सीमाएं समाप्त हो जाती हैं । वह ईश्वर को शुभ और सीमित मानता है क्योंकि यही एक उपाय है जिससे एक परिपूर्ण वास्तविक इच्छा और वैयक्तिक इच्छा का अन्तर्विरोध मिटाया जा सकता है ।
बोझ का मन्तव्य है कि ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए तत्त्वशास्त्रीय या धर्मशास्त्रीय तर्क अपूर्ण हैं । अनुभव से ही ईश्वर का परिज्ञान सही रूप से होता है। रायस ईश्वर को सर्वान्तर्यामी मानता है । उसकी दृष्टि से सर्वान्तर्यामी का तात्पर्य है - ईश्वर को अपने सत्य के विषय में प्रत्यक्ष तथा अलौकिक दृष्टि प्राप्त है । प्रत्येक मानवीय चेतना में भी विचार और अनुभव का पार्थक्य पाया जाता है । जिस सत्ता में विचार और अनुभव की पृथकता नहीं है वह अपने आप में पूर्ण है और वही ईश्वर है । ईश्वर निरपेक्ष तथा परम सत्ता है ।
हा आध्यात्मिक जगत की सत्यता को, ईश्वर और मनुष्य समाज इन दो पक्षों के सामंजस्य में पाता है । वह ईश्वर के पितृत्व और मानव के भ्रातृत्व को मानता है । सर्जक और द्रष्टा दोनों समान और पारस्परिक रूप से सत्य हैं, पर वे एक नहीं हैं । ईश्वर के प्रति मनुष्य के कुछ कर्तव्यों को मानते हुए हाबिसन कहता है कि मनुष्य भी उतना ही सत्य एवं अनश्वर है जितना स्वयं ईश्वर है ।
उपसंहार
पूर्व पृष्ठों में हमने विस्तार के साथ ईश्वर सम्बन्धी कल्पनाओं और उसके विभिन्न रूपों पर चिन्तन किया है । सभी परम्पराओं में ईश्वर की कल्पना के सम्बन्ध में एकरूपता नहीं रही है । उसमें देश, काल और वैचारिक विकास के अनुसार परि
1 "The move I strive to prove the infinite being I God, the less do I understand is, but I feel that he is enough for me.'
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