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जैन योग : एक अनुशीलन
भारतीय संस्कृति में योग का अत्यधिक महत्त्व रहा है। अतीत काल से ही भारत से मूर्धन्य मनीषीगण योग पर चिन्तन, मनन और विश्लेषण करते रहे हैं; क्योंकि योग से मानव जीवन पूर्ण विकसित होता है। मानव-जीवन में शरीर और आत्मा इन दोनों की प्रधानता है। शरीर स्थूल है और आत्मा सूक्ष्म है। पौष्टिक और पथ्यकारी पदार्थों के सेवन से तथा उचित व्यायाम आदि से शरीर पुष्ट और विकसित होता है, किन्तु आत्मा का विकास योग से होता है । योग से काम, क्रोध, मद, मोह आदि विकृतियाँ नष्ट होती हैं। आत्मा की जो अनन्त शक्तियाँ आवृत हैं वे योग से अनावृत होती हैं और आत्मा की ज्योति जगमगाने लगती हैं।
___ आत्म-विकास के लिए योग एक प्रमुख साधन है। उसका सही अर्थ क्या है ? उसकी क्या परम्परा है ? उसके सम्बन्ध में चिन्तक क्या चिन्तन करते हैं ? और उनका किस प्रकार योगदान रहा है ? आदि प्रश्नों पर यहां पर विचार किया जा रहा है।
योग शब्द 'युज्' धातु और 'घन' प्रत्यय मिलने से बनता है । 'युज्' धातु दो हैं, जिनमें से एक का अर्थ है-संयोजित करना, जोड़ना और दूसरी का अर्थ हैमन की स्थिरता, समाधिः । प्रश्न यह है कि भारतीय योग दर्शन में इन दोनों अर्थों में से किसे अपनाया गया है ? उत्तर में निवेदन है कि कितने ही विज्ञों ने 'योग' का जोड़ने के अर्थ में प्रयोग किया है तो कितने ही विज्ञों ने समाधि के अर्थ में। आचार्य पतंजलि ने 'चित्तवृत्ति के निरोध को योग' कहा है। आचार्य हरिभद्र ने जिससे आत्मा की विशुद्धि होती है, कर्म-मल नष्ट होता है और मोक्ष के साथ संयोग होता है, उसे
1 युज्यति योगे- गण ७, हेमचन्द्र धातुपाठ । . युजिन् समाधौ-गण ४, हेमचन्द्र धातुपाठ । है ३ योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः- पातंजल योगसूत्र पा० १ सं० २।
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