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ईश्वर : एक चिन्तन
[प्रथम विभाग ]
प्रास्ताविक
एक प्रश्न जीवन के उषाकाल से ही मानव मस्तिष्क में घूम रहा है - ईश्वर है या नहीं ? यदि है तो उसका क्या रूप है ? विश्व के जितने भी चिन्तक और धर्म-गुरु हुए, उनके मस्तिष्क को यह प्रश्न झकझोरता रहा । जिस प्रकार यह प्रश्न सनातन काल से चला आ रहा है उसी प्रकार उसका उत्तर भी सनातन काल से दिया जाता रहा है । प्रत्येक चिन्तक ने अपनी-अपनी कल्पना के अनुसार समाधान करने का प्रयास किया है ।
हम यहाँ पर सर्वप्रथम भारतीय चिन्तकों की दृष्टि से ईश्वर का क्या स्वरूप रहा है ? और जन-मानस में ईश्वर की क्या धारणा रही है ? इस पर चिन्तन करने के पश्चात् विश्व के विविध अंचलों में फैले हुए प्राचीन तथा अर्वाचीन धर्म, दर्शन और विज्ञान के आलोक में ईश्वर का क्या रूप रहा, कालक्रम की दृष्टि से उसमें किस प्रकार परिवर्तन होते रहे ? उस पर विहंगावलोकन करेंगे, जिससे कि ईश्वर के सम्बन्ध में एक स्पष्ट रूपरेखा परिज्ञात हो सके । आलोचना व प्रत्यालोचना कर जन-मानस को विक्षुब्ध करने का हमारा उद्देश्य नहीं है । हमारा उद्देश्य है कि मानव उदात्त दृष्टिकोण से अनेकान्त के आलोक में सत्य तथ्य को समझें; किसी भी रूढ़िगत चिन्तन में न उलझ कर खुले दिमाग से जिज्ञासु- बुद्धि से उस विचार करें । भगवान् महावीर ने साधकों को यही प्रेरणा दी कि - "मैं कह रहा हूँ, इसीलिए तुम उसको स्वीकार न करो, किन्तु बुद्धि के जगमगाते आलोक में सत्य को समझ कर उसे ग्रहण करो ।"
" पन्ना समक्खि धम्मं तत्तं तत्तविणिच्छ्यं । "
वेदों में ईश्वर
आधुनिक मनीषियों का मन्तव्य है कि उपलब्ध विश्व साहित्य में ऋग्वेद प्राचीनतम ग्रन्थ है । प्रस्तुत ग्रन्थ में ईश्वर के सम्बन्ध में चिन्तन प्रारम्भ हुआ । प्रारम्भिक युग में प्राकृतिक सौन्दर्य - सुषमा को निहार कर मानव प्रमुदित तथा उसके उग्र रूप को देखकर भयभीत हुआ। वह सोचने लगा- इस प्रकृति के पीछे कोई न कोई विशिष्ट दैवी शक्ति है, जिसके कारण ही प्रतिपल - प्रतिक्षण नित्य नये दृश्य दिखायी
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