________________
१६ | चिन्तन के विविध आयाम : खण्ड १
समावेश किया गया है किन्तु जैन मुनियों ने तप का अन्तर्भाव चारित्र में करके साधना के त्रिविध मार्ग को ही प्रमुखता प्रदान की है । यह सहज जिज्ञासा हो सकती है कि त्रिविध मार्ग का ही विधान क्यों किया गया ? समाधान है - मानवीय चेतना के तीन पहलू हैं - ज्ञान, भाव और संकल्प | चेतना के इन तीनों पक्षों के विकास के लिए त्रिविध साधना है । भावात्मक पक्ष को सही दिशा प्रदान करने हेतु सम्यग्दर्शन है । ज्ञानात्मक पक्ष को सही दिशा संदर्शन के लिए सम्यग्ज्ञान का विधान है और संकल्पात्मक पक्ष को सही बोध प्रदान हेतु सम्यक्चारित्र का प्ररूपण किया गया है |
जैन दर्शन की तरह ही बौद्ध दर्शन में भी त्रिविध साधना मार्ग का विधान किया है। उन्होंने शील, समाधि और प्रज्ञा' यह त्रिविध साधना मार्ग माना है । यदि हम तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययन करें तो सम्यग्दर्शन की तुलना समाधि से कर सकते हैं क्योंकि समाधि और सम्यग्दर्शन दोनों में संकल्प - विकल्प नहीं होते । सम्यग्ज्ञान की तुलना प्रज्ञा से की जा सकती है और सम्यक्चारित्र की तुलना शील से ।
श्रीमद् भगवद्गीता में ज्ञान, कर्म और भक्ति का निरूपण है । भक्ति में श्रद्धा की प्रमुखता होती है इसलिए वह सम्यग्दर्शन का प्रतीक है। भक्तियोग, ज्ञानयोग और कर्मयोग को हम क्रमशः सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र कह सकते हैं ।
वैदिक परम्परा के चिन्तकों ने परम सत्ता के तीन पक्ष माने हैं - सत्य, शिव, सुन्दर । इन तीनों पक्षों के लिए त्रिविध साधना मार्ग का विधान है । सत्य की उपलब्धि के लिए ज्ञान, शिव की उपलब्धि के लिए सेवा या कर्म और सुन्दर की उपलब्धि के लिए भाव व श्रद्धा । गीता में प्रकारान्तर से प्रणिपात, परिप्रश्न और सेवा इन साधना मार्गों का भी उल्लेख है । इनमें प्रणिपात श्रद्धा, परिप्रश्न ज्ञान और सेवा कर्म का प्रतिनिधित्व करते हैं । उपनिषदों में श्रवण, मनन और निदिध्यासन के रूप त्रिविध साधना का उट्टंकन है। श्रवण में श्रद्धा, मनन में ज्ञान और निदिध्यासन में कर्म की प्रधानता है ।
पाश्चात्य चिन्तकों ने भी तीन नैतिक आदेश बताये हैं' - नो दाइसेल्फ, एक्सेप्ट दाइसेल्फ और बी दाईसेल्फ [ अपने को जानो, अपने को स्वीकार करो, अपने में बने रहो ] ये तीन नैतिक आदेश ज्ञान, दर्शन और चारित्र के ही समकक्ष कहे जा सकते हैं। आत्म-ज्ञान में ज्ञान, आत्म स्वीकृति में श्रद्धा और आत्म-निर्माण में चारित्र की स्वीकृति है ।
1
उत्तराध्ययन २८ । २ ।
2 सुत्तनिपात 2515 |
8
गीता ४४, ४ । ३६ ।
4 साइकोलजी एण्ड मारल्स, पृष्ठ १८० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org