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ईश्वर : एक चिन्तन | २५ हैं और न असत् ही कहते हैं । तथापि माया को स्वीकार करके केवल अद्वैतवाद की उपपत्ति करते हैं । दृग्गोचर होने वाला जितना भी व्यावहारिक प्रपंच है उस सभी का मूल केन्द्र माया है। आचार्य शंकर ने माया के माध्यम से ब्रह्मतत्व के कूटस्थ नित्यत्व और केवलाद्वैतवाद दोनों की संस्थापना की।
उनके पश्चात उनके अद्वैतवाद सिद्धान्त को लेकर जो ज्वलन्त प्रश्न उबुद्ध हुए, उन सभी प्रश्नों का उत्तर उनके विद्वान शिष्यों ने अपनी-अपनी दृष्टि से देने का प्रयास किया । एक ही प्रश्न का उत्तर सर्वज्ञात्म मुनि अपने ढंग से प्रदान करते हैं तो उसी प्रश्न का उत्तर वाचस्पति मिश्र अपनी दृष्टि से प्रदान करते हैं और अन्य आचार्य उसके समाधान के लिए अपने तर्क अपनी दृष्टि से देते है। पर, सभी के समाधान की विशेषता यह रही कि उन्होंने आचार्य शंकर द्वारा प्रतिपादित केवलाद्वैत को किसी भी प्रकार की क्षति नहीं आने दी।
आचार्य शंकर को मानने वाले चिन्तकों के सामने एक प्रश्न था-ब्रह्म, जीव और ईश्वर ये दोनों किस प्रकार हो सकता है ? इस प्रश्न का समाधान करते हुए उन्होंने कहा-"मायोपाधिक ब्रह्म ईश्वर है और अविद्योपाधिक ब्रह्म जीव है ।"पुन: यह प्रश्न समुत्पन्न हुआ कि जिस माया के आश्रय से सृष्टि का सृजन ब्रह्म करता है, उस माया का स्वरूप क्या है ? जो सृजन होता है वह कर्म सापेक्ष है या निरपेक्ष है ? ईश्वर की संस्थापना अकाट्य तर्क से करनी चाहिए या आगम प्रमाण से ? इन सभी प्रश्नों का विज्ञों ने समाधान इस प्रकार किया--परमेश्वर की बीज-शक्ति का नाम माया है; जो इस वास्तविक जगत् की रचना करती है । ईश्वर की यह अविद्यात्मिका बीज-शक्ति 'अव्यक्त' कही जाती है । यह परमेश्वर में आश्रित होने वाली महा-सुषुप्तिरूपिणी है, जिसमें अपने स्वरूप को न जानने वाले संसारी जीव शयन किया करते हैं । यह माया ईश्वर की नित्य स्वरूप नहीं, ईश्वर की इच्छामात्र है जिसको वे जब चाहें छोड़ सकते हैं । माया ब्रह्म से अभिन्न और अच्छेद्य है। वही इस जगत को उत्पन्न करती है। माया सत् भी नहीं, असत् भी नहीं और उभय रूप भी नहीं है। वह अनिर्वचनीया है।
_ शांकर मत की दृष्टि से ईश्वर जगत का निमित्त कारण भी है एवं उपदान कारण भी । जगत की सृष्टि इच्छापूर्वक है। ईक्षणपूर्वक सृष्टि व्यापार करने वाला ईश्वर चैतन्य पक्ष के अवलम्बन करने पर निमित्त कारण और उपाधि (माया) पक्ष की दृष्टि से उपादान कारण है । ब्रह्म की जगत सृष्टि में माया को ही प्रधानतया कारण मानना उचित है।
1 दास गुप्ता की "हिस्ट्री ऑफ इण्डियन फिलोसाफी'' भाग ३ के पृष्ठ १९७-८
पर की पाद टिप्पणी, नं० २ ।
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