Book Title: Bharat ke Prachin Jain Tirth Author(s): Jagdishchandra Jain Publisher: Jain Sanskriti Sanshodhan Mandal View full book textPage 9
________________ भारत के प्राचीन जैन तीर्थ पना हो गई, और नौबत यहाँ तक पहुँची कि एक दूसरे के तीर्थों पर ज़बर्दस्ती अधिकार किया जाने लगा और लाखों रुपया पानी की तरह बहाकर लन्दन की प्रिवी कौंसिल से फैसलों की आशा की जाने लगी ! दुर्भाग्य से जैनों के अनेक प्राचीन तीर्थ स्थानों का पता नहीं चलता । इसके सिवाय अष्टापद, श्रावस्ति, मिथिला, पुरिमताल, भद्रिलपुर, कौशांबी, अहिच्छत्रा, पुरी, तक्षशिला, वीतिभयपत्तन, द्वारिका आदि अनेक तीर्थ विच्छिन्न हो गये हैं और जैन यात्री प्रायः आजकल इन तीर्थों की यात्रा नहीं करते । इसी तरह गजपंथा, ऊन आदि तीर्थों का दिगम्बर भट्टारकों और धनिकों ने नवनिर्माण कर डाला है। इन सब बातों का गवेषणापूर्ण अध्ययन होना चाहिए, उसी समय जैन तीर्थों का ठीक-ठीक इतिहास लिखा जा सकता है । यद्यपि जैन सूत्रों में पारस (ईरान), जोणग (यवन), चिलात (किरात), अलसण्ड ( एलेक्ज़ेण्ड्रिया ) आदि कतिपय अनार्य देशों का उल्लेख आता है, लेकिन मालूम होता है कि आचार-विचार और भक्ष्याभक्ष्य के नियमों की कड़ाई के कारण बौद्ध श्रमणों की नाई जैन श्रमण भारत के बाहर धर्मप्रचार के लिए नहीं जा सके । निशीथचूर्णि में प्राचार्य कालक के पारम देश में जाने का उल्लेख अवश्य आता है, लेकिन वे धर्म-प्रचार के लिए न जाकर वहाँ उज्जयिनी के राजा गर्दभिल्ल से बदला देने के लिए गए थे। २८, शिवाजी पार्क, बम्बई २८ जगदीशचन्द्र जैन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.comPage Navigation
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