Book Title: Bharat ke Prachin Jain Tirth Author(s): Jagdishchandra Jain Publisher: Jain Sanskriti Sanshodhan Mandal View full book textPage 8
________________ प्रास्ताविक हैं । इससे स्पष्ट है कि ईसवी सन के पूर्व दिगम्बर और श्वेताम्बर मूर्तियों में कोई अन्तर न था । वस्तुतः उस समय तीर्थंकरों या सिद्धों के चरणों की पूजा होती थी । सम्मेदशिखर, हस्तिनापुर आदि तीर्थ-क्षेत्रों पर आजकल भी चरणपादुकायें ही बनी हुई हैं । वास्तव में प्राचीन काल में जो शिल्यकला द्वारा बुद्ध-जीवन के चित्र अङ्कित किये गये हैं, वे बोधिवृक्ष, छत्र, पादुका और धर्मचक्र आदि रूपों द्वारा ही व्यक्त किये गये हैं, मूर्ति द्वारा नहीं। .. १७वीं सदी के श्वेताम्बर विद्वान् पण्डित धर्मसागर उपाध्याय ने अपनी प्रवचन परीक्षा में लिखा है कि जब गिरनार और शत्रुजय तीर्थों पर दिगम्बर और श्वेताम्बरों का विवाद हा और दोनों स्थानों पर श्वेताम्बरों का अधिकार हो गया तो आगे कोई झगड़ा न होने देने के लिए श्वेताम्बर संघ ने निश्चय किया कि अब से जो नई प्रतिमायें बनवाई जाग, उनके पादमूल में वस्त्र का चिह्न बना दिया जाय । उस समय से दिगम्बरियों ने भी अपनी प्रतिमाओं को स्पष्ट नम बनाना शुरू कर दिया। इससे मालूम होता है कि उक्त विवाद के पहले दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायों की प्रतिमाओं में कोई भेद नहीं था, दोनों एकत्र होकर पूजा-उपासना करते थे। इतना ही नहीं, उस समय एक ही मन्दिर में इन्द्रमाला की बोली बोली जाती थी, जिसे दोनों सम्प्रदाय के लोग पैसा देकर खरीदते थे। तपागच्छ के श्वेताम्बर मुनि शीलविजय जी ने वि० सं० १७३१-३२ में दक्षिण की यात्रा करते हुए अपनी तीर्थमाला में जैनबद्री, मूडविद्री, कारकल आदि दिगम्बरीय तीर्थों का परिचय दिया है। इससे मालूम होता है कि उन्होंने इन तीर्थों की भनिभाव से वन्दना की थी। अकबर के समकालीन श्वेताम्बर विद्वान् हीरविजय सूरि ने भी मथुरा से लौटते हुए ग्वालियर की बावनगजी दिगम्बर मूर्ति के दर्शन किए थे। इससे मालूम होता है कि अभी थोड़े वर्ष पहले तक दिगम्बर और श्वेताम्बर एक दूसरे के मन्दिरों में आते-जाते थे, और वे साम्प्रदायिक व्यामोह से मुक्त थे। __अष्टापद (कैलास), चम्पा, पावा, सम्मेदशिखर, ऊर्जयन्त (गिरनार) और शत्रुजय आदि तीर्थ मर्वमान्य तीर्थ समझे जाते हैं, और इन क्षेत्रों को दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों समान रूप से पूजते आए हैं, इससे पता लगता है कि दोनों के तीर्थ-स्थान एक थे। लेकिन आगे चल कर दोनों सम्प्रदायों ने अपने अपने तीयों का निर्माण प्रारम्भ कर दिया, बहुत से नये तीर्थों की स्था ( ३ ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.comPage Navigation
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