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भारत के प्राचीन जैन तीर्थ
अपने विहार से पवित्र किया था। बौद्ध सूत्रों में वाराणसी की गणना कपिलवस्तु, बुद्धगया और कुसीनारा के साथ की गई है। ब्राह्मण ग्रन्थों में पूर्व में वाराणसी, पश्चिम में प्रभास, उत्तर में केदार और दक्षिण में श्रीपर्वत को परम तीर्थ माना गया है । जैन ग्रन्थों के अनुसार यहाँ भेलुपुर में पार्श्वनाथ और भदैनी में सुपार्श्वनाथ का जन्म हुआ था।
जिनप्रभसूरि के कथनानुसार बनारस चार भागों में विभक्त था:-देव वाराणसी, राजधानी वाराणसी, मदन वाराणसी और विजय वाराणसी । यहाँ दन्तखात नाम का प्रसिद्ध तालाब था, तथा मणिकर्णिका घाट यहाँ के पवित्र पाँच घाटों में गिना जाता था । मयंगतीर ( मृतगंगातीर ) नाम का यहाँ दूसरा प्रसिद्ध तालाब ( हृद) था, जिसमें गङ्गा का बहुत-सा पानी इकट्ठा हो जाता था।
हुअन-सांग के समय यहाँ अनेक बौद्ध विहार और हिन्दू मन्दिर मौजूद थे।
वाराणसी व्यापार और विद्या का केन्द्र था । यहाँ के विद्यार्थी तक्षशिला विद्याध्ययन के लिये जाते थे, तथा यहाँ शास्त्रार्थ हुआ करते थे।
बनारस में आजकल भी अनेक मन्दिर, मूर्तियाँ और प्राचीन स्थान मौजूद है । प्राचार्य हेमचन्द्र के समय काशी वाराणसी का ही दूसरा नाम था ।
इसिपतन बौद्धों का परम तीर्थ माना जाता है । यहाँ बुद्ध भगवान् का प्रथम धर्मोपदेश हुअा था। यहाँ की खुदाई में प्राचीन काल के ध्वंसावशेष उपलब्ध हुए हैं । जैन ग्रंथों में इसे सिंहपुर नाम से कहा गया है। यहाँ शीतलनाथ नामक जैन तीर्थंकर का जन्म हुअा था ।
सिंहपुर की पहचान वर्तमान सारनाथ ( सारङ्गनाथ ) से की जाती है । यह स्थान बनारस के उत्तर में छह मील की दूरी पर है । यहाँ एक अजायबघर और बौद्ध मन्दिर है।
चन्द्रानन चन्द्रप्रभा तीर्थकर का जन्म-स्थान माना जाता है। १७-१८वीं सदी के जैन यात्रियों ने इसका नाम चन्द्रमाधव लिखा है। विविधतीर्थकल्प के अनुसार चन्द्रावती नगरी बनारस से अढ़ाई योजन की दूरी पर थी।
चन्द्रानन की पहचान आधुनिक चन्द्रपुरी से की जाती है । यह स्थान गङ्गा के किनारे है और बनारम से लगभग चौदह मील के फासले पर है ।
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