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भारत के प्राचीन जैन तीर्थ
दशार्णपुर के उत्तर-पूर्व में दशार्णकूट नाम का पर्वत था । इसका दूसरा नाम गजाग्रपद अथवा इन्द्रपद भी था । पर्वत चारों तरफ़ गाँवों से घिरा था। जैन सूत्रों के अनुसार यहाँ महावीर ने राजा दशार्णभद्र को दीक्षा दी थी। प्राचार्य महागिरि ने यहाँ तपश्चरण किया था । आवश्यक चूर्णि में दशार्णकुट का वर्णन आता है।
दशार्ण का दूसरा नगर दशपुर था । जैन श्रमणों ने इस नगर को अपने विहार से पवित्र किया था । प्राचार्य आर्यरक्षित की यह जन्मभूमि थी। दशपुर में जीवन्तस्वामी प्रतिमा होने का उल्लेख आता है । यहाँ सातवें निह्नव की स्थापना हुई थी।
दशपुर की पहचान आधुनिक मंदसौर से की जाती है।
विदिशा के पास कुंजरावर्त और रथावर्त नाम के पर्वत थे; दोनों पासपास थे। जैन परम्परा के अनुसार कुंजरावर्त पर्वत पर आर्य वज्रस्वामी ने निर्वाण पाया था । इस पर्वत का उल्लेख रामायण में आता है।
रथावर्त पर्वत पर आर्य वज्रस्वामी पाँच सौ श्रमणों के साथ आये थे । इस पर्वत का उल्लेख महाभारत में आता है ।
बड़वानी दिगम्बरों का तीर्थ है । दिगम्बर परंपरा के अनुसार यहाँ से दक्षिण की ओर चूलगिरि शिखर से इन्द्रजीत, कुंभकर्ण आदि मुनि मोक्ष पधारे। इसे बावनगजा भी कहते हैं ।
यह स्थान मऊ स्टेशन से लगभग ६० मील की दूरी पर है। मकसी पार्श्वनाथ उज्जैन से बारह कोस है ।
सिद्धवरकूट रेवा नदी के तट पर है । यहाँ से साढ़े तीन करोड़ मुनियों का मोक्ष जाना बताया जाता है । यहाँ हर वर्ष मेला भरता है ।
यह स्थान बड़वाह (इन्दौर) से छह मील की दूरी पर है । यह क्षेत्र काफ़ी अर्वाचीन मालूम होता है ।
इन्दौर के पास ऊन नामक स्थान को पावागिरि (द्वितीय ) कहा जाता
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