Book Title: Bharat ke Prachin Jain Tirth
Author(s): Jagdishchandra Jain
Publisher: Jain Sanskriti Sanshodhan Mandal
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રી યશોવિજયજી Illlebic le& દાદાસાહેબ, ભાવનગર, Behere-2020:018 300४८४७ प्राचीन जैन तीर्थ डॉ. जगदीशचन्द्र जैन M.A., Ph.D. साधनमडल जैनसस्कृति सर्व लोग गगमिमा जैन संस्कृति संशोधन मण्डल बनारस-५ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मति प्रकाशन नं० ८ भारत के प्राचीन जैन तीर्थ डॉ. जगदीशचन्द्र जैन M.A., Ph.D. जति संगोधना नमण्डल CASS S bal RRC-SSAIN Dमवंताग WINTER जैन संस्कृति संशोधन मण्डल बनारस-५ १९५२ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक मंत्री, जैन संस्कृति संशोधन मण्डल बनारस-५. दो रुपया मुद्रक रामकृष्ण दास काशी हिन्दू विश्वविद्यालय प्रेस, काशी । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन भारतीय इतिहास की सामाजिक और राजनैतिक सामग्री जो प्राचीन जैन ग्रन्थों में बिखरी पड़ी है उसका उपयोग करके डॉ. जगदीशचन्द्र जी ने प्राचीन भारत के विषय में अपनी पुस्तक अंग्रेजी में लिखी थी। उक्त पुस्तक के लेखन के समय भारत के प्राचीन नगरों के विषय में जो सामग्री उन्हें जैनागम और पालिपिटकों में मिली उसी के आधार पर प्रस्तुत पुस्तक उन्होंने लिखी है। पुस्तक का नाम यद्यपि 'भारत के प्राचीन जैन तीर्थ' दिया है तथापि यह पुस्तक केवल जैनों के लिए ही नहीं किन्तु भारतीय प्राचीन इतिहास और भूगोल के पंडितों के लिए भी अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगी इसमें तनिक भी संदेह नहीं। क्योंकि इसमें जैन तीर्थों के नाम से जिन नगरों का वर्णन किया है वह वस्तुतः भारतवर्ष के प्राचीन नगरों का ही वर्णन है। __लेखक ने, जहाँ तक संभव हुआ है, उन प्राचीन नगरों का आज के नकशे में कहाँ किस रूप से स्थान है यह दिखाने का कठिन कार्य करके प्राचीन इतिहास की अनेक गुत्थियों को सुलझाने का सफल प्रयत्न किया है। इससे जैनों को ही नहीं किन्तु भारतीय इतिहास के पंडितों को भी नई ज्ञानसामग्री मिलेगी। इस दृष्टि से प्रस्तुत पुस्तक का महत्त्व बहुत बढ़ गया है। ___ पुस्तक में भगवान् महावीर कालीन भारत का और भगवान् महावीर के विहार स्थानों का भी नकशा दिया गया है। उसका आधार उनकी उक्त अंग्रेजी पुस्तक है। हमारी इच्छा रही कि पुस्तक में कुछ चित्र भी दिए जाते किन्तु मंडल की आर्थिक मर्यादा को देख कर वैसा नहीं किया गया। डॉ. जगदीशचन्द्र ने प्रस्तुत पुस्तक मंडल को प्रकाशनार्थ दी एतदर्थ में उनका आभार मानता हूँ। ता० ८-२-५२ बनारस-५. निवेदक दलसुख मालवणिया मंत्री, बन संस्कृति संशोधन मंडल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम प्रास्ताविक १. पार्श्वनाथ और उनके शिष्यों का विहार २. महावीर की विहार चर्या ३. जैन श्रमण संघ और जैनधर्म का प्रसार ४. बिहार-नेपाल-उड़ीसा-बंगाल-बरमा ५. उत्तर प्रदेश ६. पंजाब-सिंध-काठियावाड-गुजरात-राजपुताना-मालवा-बुन्देलखण्ड ७. दक्षिण-बरार-हैदराबाद-महाराष्ट्र-कोंकण-आन्ध्र-द्रविड़कर्णाटक-कुर्ग आदि शब्दानुक्रमणिका अदश मानचित्र १. भगवान् महावीर के द्वारा अवलोकित स्थान २. भगवान् महावीर के समय का भारत Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक इतिहास से पता चलता है कि अन्य विज्ञानों की तरह भूगोल का विकास भी शनैः शनैः हुआ । ज्यों ज्यों भारत का अन्य देशों के साथ बनिज-व्यापार बढ़ा, और व्यापारी लोग वाणिज्य के लिये सुदूर देशों में गये, उन्हें दूसरे देशों के रीति-रिवाज, किस्से-कहानियाँ आदि के जानने का अवसर मिला, और स्वदेश लौट कर उन्होंने उस ज्ञान का प्रचार किया। वर्ष में आठ महीने जनपद-विहार के लिये पर्यटन करने वाले जैन, बौद्ध आदि श्रमणों तथा परिवाजकों ने भी भारत के भौगोलिक ज्ञान को वृद्धिंगत किया । जैन आगम ग्रन्थों की टीका-टिप्पणियों तथा बौद्धों की अटकथाओं में उत्तरापथ, दक्षिणापथ आदि के रीति-रिवाज, रहन-सहन, खेती-बारी आदि के सम्बन्ध में जो उल्लेख पाते हैं उनसे उक्त कथन का समर्थन होता है। __खोज-बीन से पता लगता है कि जिस भूगोल को हम पौराणिक अथवा काल्पनिक समझते हैं वह सर्वथा काल्पनिक प्रतीत नहीं होता । उदाहरण के लिये, जैन भूगोल की नील पर्वत से निकल कर पूर्व समुद्र में गिरनेवाली सीता नदी की पहचान चीनी लोगों की सि-तो (Si-to) नदी से की जा सकती है, जो किसी समुद्र में न मिलकर काशगर की रेती में विलुप्त हो जाती है । इसी तरह बौद्ध ग्रन्थों से पता लगता है कि जम्बुद्वीप भारतवर्ष का और हिमवत हिमालय पर्वत का ही दूसरा नाम है। ज्ञाताधर्म कथा के उल्लेखों से मालूम होता है कि प्राचीन काल में हिन्द महासागर को लवणसमुद्र कहा जाता था। इसी प्रकार खोज करने से अन्य भौगोलिक स्थानों का पता लगाया जा सकता है। बात यह हुई कि आजकल की तरह प्राचीन काल में यात्रा आदि के माधन सुलभ न होने के कारण भूगोल का व्यवस्थित अध्ययन नहीं हो सका। परिणाम यह हुआ कि जब दूरवर्ती अदृष्ट स्थानों का प्रश्न अाया तो संख्यात, असंख्यात योजन आदि की कल्पना कर शास्त्रकारों ने कल्पना-समुद्र में खूब Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत के प्राचीन जैन तीर्थ गोते लगाये, जिससे आगे चल कर भूगोल भी धर्मशास्त्र का एक अङ्ग बन गया और वह केवल श्रद्धालु भक्तों के काम की चीज़ रह गई। प्राचीन तीर्थों के विषय में चर्चा करते हुए दूमरी महत्त्वपूर्ण बात दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदाय के सम्बन्ध में है। प्राचारांग आदि जैन सूत्रों से स्पष्ट है कि महावीर के समय सचेल और अचेल दोनों प्रकार के श्रमण जैन संघ में रह सकते थे, यद्यपि स्वयं महावीर ने जिनकल्य-अचेलत्व-को ही अंगीकार किया था । उत्तराध्ययन सूत्र के अन्तर्गत केशी-गौतम संवाद नामक अध्ययन में पार्श्वनाथ के शिष्य केशीकुमार के प्रश्न करने पर महावीर के गणधर गौतम स्वामी ने उत्तर दिया है कि "हे महामुने, साध्य की सिद्धि में लिङ्ग-वेष—केवल बाह्य साधन है, असली तो ज्ञान, दर्शन और चारित्र हैं।" जान पड़ता है कि महावीर के बाद भी जैन श्रमणों में अचेल (दिगम्बर) रहने की प्रथा जारी रही। श्वेताम्बर ग्रन्थों से पता लगता है कि प्राचार्य स्थूलभद्र के शिष्य प्राचार्य महागिरि ने आर्य सुस्ति को अपने गण का भार सौंप कर जिनकल्प धारण किया। इसी प्रकार पार्यरक्षित ने जब अपने कुटुम्ब को दीक्षा देनी चाही तो उनके पिता ने दीक्षा ग्रहण करते हुए संकोच व्यक्त किया कि उन्हें अपनी पुत्री और पुत्र-वधुत्रों के समक्ष नग्न अवस्था में रहना पड़ेगा ! तत्पश्चात् बृहत्कल्प भाष्य (ईसवी सन् की लगभग चौथी शताब्दि) से पता लगता है कि महाराष्ट्र में जैन श्रमणों के नग्न रहने की प्रथा थी और इन्हें लोग अपशकुन मानते थे । भारतीय मूर्ति-कला के अध्ययन से पता लगता है कि सबसे पहले मौर्यकालीन यक्षों की मूर्तियाँ निर्माण की गई थीं। जैन और बौद्ध सूत्रों में अनेक यक्ष-मन्दिरों (यक्षायतन ) के उल्लेख मिलते हैं जहाँ महावीर और बुद्ध अपने विहार-काल में ठहरा करते थे । ये यक्ष ग्राम या नगर के रक्षक माने जाते थे। छोटे-बड़े सब लोग इनकी पूजा-उपासना करते थे। यक्षों में सबसे प्राचीन मूर्ति मणिभद्र (प्रथम शताब्दि ई० पू० ) की उपलब्ध हुई है । यक्षों के पश्चात् बोधिसत्त्व, बुद्ध और जिन की मूर्तियाँ निर्माण की जाने लगीं। राजा कनिष्क के समय की ये मूर्तियाँ मथुरा में उपलब्ध हुई हैं । बोधिसत्त्व की प्राचीनतम मूर्ति ईसवी सन् ८ की मिली है । मथुरा के कङ्काली टोले में जो आयाग पट पर लगभग २००० वर्ष प्राचीन जैन तीर्थंकरों की मूर्तियाँ मिली हैं वे नग्न अवस्था में हैं तथा दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों द्वारा पूजी जाती Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक हैं । इससे स्पष्ट है कि ईसवी सन के पूर्व दिगम्बर और श्वेताम्बर मूर्तियों में कोई अन्तर न था । वस्तुतः उस समय तीर्थंकरों या सिद्धों के चरणों की पूजा होती थी । सम्मेदशिखर, हस्तिनापुर आदि तीर्थ-क्षेत्रों पर आजकल भी चरणपादुकायें ही बनी हुई हैं । वास्तव में प्राचीन काल में जो शिल्यकला द्वारा बुद्ध-जीवन के चित्र अङ्कित किये गये हैं, वे बोधिवृक्ष, छत्र, पादुका और धर्मचक्र आदि रूपों द्वारा ही व्यक्त किये गये हैं, मूर्ति द्वारा नहीं। .. १७वीं सदी के श्वेताम्बर विद्वान् पण्डित धर्मसागर उपाध्याय ने अपनी प्रवचन परीक्षा में लिखा है कि जब गिरनार और शत्रुजय तीर्थों पर दिगम्बर और श्वेताम्बरों का विवाद हा और दोनों स्थानों पर श्वेताम्बरों का अधिकार हो गया तो आगे कोई झगड़ा न होने देने के लिए श्वेताम्बर संघ ने निश्चय किया कि अब से जो नई प्रतिमायें बनवाई जाग, उनके पादमूल में वस्त्र का चिह्न बना दिया जाय । उस समय से दिगम्बरियों ने भी अपनी प्रतिमाओं को स्पष्ट नम बनाना शुरू कर दिया। इससे मालूम होता है कि उक्त विवाद के पहले दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायों की प्रतिमाओं में कोई भेद नहीं था, दोनों एकत्र होकर पूजा-उपासना करते थे। इतना ही नहीं, उस समय एक ही मन्दिर में इन्द्रमाला की बोली बोली जाती थी, जिसे दोनों सम्प्रदाय के लोग पैसा देकर खरीदते थे। तपागच्छ के श्वेताम्बर मुनि शीलविजय जी ने वि० सं० १७३१-३२ में दक्षिण की यात्रा करते हुए अपनी तीर्थमाला में जैनबद्री, मूडविद्री, कारकल आदि दिगम्बरीय तीर्थों का परिचय दिया है। इससे मालूम होता है कि उन्होंने इन तीर्थों की भनिभाव से वन्दना की थी। अकबर के समकालीन श्वेताम्बर विद्वान् हीरविजय सूरि ने भी मथुरा से लौटते हुए ग्वालियर की बावनगजी दिगम्बर मूर्ति के दर्शन किए थे। इससे मालूम होता है कि अभी थोड़े वर्ष पहले तक दिगम्बर और श्वेताम्बर एक दूसरे के मन्दिरों में आते-जाते थे, और वे साम्प्रदायिक व्यामोह से मुक्त थे। __अष्टापद (कैलास), चम्पा, पावा, सम्मेदशिखर, ऊर्जयन्त (गिरनार) और शत्रुजय आदि तीर्थ मर्वमान्य तीर्थ समझे जाते हैं, और इन क्षेत्रों को दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों समान रूप से पूजते आए हैं, इससे पता लगता है कि दोनों के तीर्थ-स्थान एक थे। लेकिन आगे चल कर दोनों सम्प्रदायों ने अपने अपने तीयों का निर्माण प्रारम्भ कर दिया, बहुत से नये तीर्थों की स्था ( ३ ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत के प्राचीन जैन तीर्थ पना हो गई, और नौबत यहाँ तक पहुँची कि एक दूसरे के तीर्थों पर ज़बर्दस्ती अधिकार किया जाने लगा और लाखों रुपया पानी की तरह बहाकर लन्दन की प्रिवी कौंसिल से फैसलों की आशा की जाने लगी ! दुर्भाग्य से जैनों के अनेक प्राचीन तीर्थ स्थानों का पता नहीं चलता । इसके सिवाय अष्टापद, श्रावस्ति, मिथिला, पुरिमताल, भद्रिलपुर, कौशांबी, अहिच्छत्रा, पुरी, तक्षशिला, वीतिभयपत्तन, द्वारिका आदि अनेक तीर्थ विच्छिन्न हो गये हैं और जैन यात्री प्रायः आजकल इन तीर्थों की यात्रा नहीं करते । इसी तरह गजपंथा, ऊन आदि तीर्थों का दिगम्बर भट्टारकों और धनिकों ने नवनिर्माण कर डाला है। इन सब बातों का गवेषणापूर्ण अध्ययन होना चाहिए, उसी समय जैन तीर्थों का ठीक-ठीक इतिहास लिखा जा सकता है । यद्यपि जैन सूत्रों में पारस (ईरान), जोणग (यवन), चिलात (किरात), अलसण्ड ( एलेक्ज़ेण्ड्रिया ) आदि कतिपय अनार्य देशों का उल्लेख आता है, लेकिन मालूम होता है कि आचार-विचार और भक्ष्याभक्ष्य के नियमों की कड़ाई के कारण बौद्ध श्रमणों की नाई जैन श्रमण भारत के बाहर धर्मप्रचार के लिए नहीं जा सके । निशीथचूर्णि में प्राचार्य कालक के पारम देश में जाने का उल्लेख अवश्य आता है, लेकिन वे धर्म-प्रचार के लिए न जाकर वहाँ उज्जयिनी के राजा गर्दभिल्ल से बदला देने के लिए गए थे। २८, शिवाजी पार्क, बम्बई २८ जगदीशचन्द्र जैन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्वनाथ और उनके शिष्यों का विहार पहले भगवान् महावीर को जैन धर्म का संस्थापक माना जाता था, लेकिन अब विद्वानों की खोज से यह प्रमाणित हो गया है कि महावीर के पूर्व भी जैन धर्म विद्यमान था। ___यद्यपि बौद्ध त्रिपिटकों में भगवान् पार्श्वनाथ का उल्लेख नहीं पाता, लेकिन उनके चातुर्याम संवर का उल्लेख पाया जाता है । जैन शास्त्रों के अनुसार पार्श्वनाथ का जन्म वाराणमी* (बनारस ) में हुआ था। उनकी माता का नाम वामा और पिता का नाम अश्वसेन था । पार्श्वनाथ ३० वर्ष तक गृहस्थ अवस्था में रहे, ७० वर्ष तक उन्होंने साधु जीवन व्यतीत किया, और १०० वर्ष की अवस्था में सम्मेदशिखर ( पारसनाथ हिल, हज़ारीबाग़) पर तप करने के पश्चात् निर्वाण पद पाया । पार्श्वनाथ पुरुषश्रेष्ठ (पुरिसादानीय ) कहे जाते थे । उनके अाठ प्रधान शिष्य ( गणधर ) थे और उन्होंने साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविकाओं के चतुर्विध संघ की स्थापना की थी। पार्श्वनाथ ने अपने साधु जीवन में साकेत, श्रावस्ति, कौशांबी, राजगृह, अामलकप्या, कांपिल्यपुर, अहिच्छत्रा, हस्तिनापुर आदि स्थानों में विहार किया था। __ पार्श्वनाथ के श्रमण पावापत्य (पासावच्चिज्ज) नाम से पुकारे जाते थे । प्राचारांग सूत्र में महावीर के माता-पिता को पार्श्वनाथ की परम्परा का * इस पुस्तक में उल्लिखित तीर्थ स्थानों के विशेष विवरण और उनकी पहचान के हवालों के लिये देखिये लेखक की 'लाइफ इन ऐंशियेंट इन्डिया ऐज़ डिपिक्टेड इन द जैन कैनन्स' नामक पुस्तक का पाँचवाँ भाग । ( ५ ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत के प्राचीन जैन तीर्थ अनुयायी कहा गया है । आवश्यकचूर्णि में पार्श्वनाथ के अनेक श्रमणों का उल्लेख मिलता है जो महावीर की साधु जीवन की चारिका के समय मौजूद थे । उदाहरण के लिये, उत्पल श्रमण ने पार्श्वनाथ की श्रमण परम्परा में दीक्षा ली थी, लेकिन बाद में उन्होंने दीक्षा छोड़ दी और अहियगाम में ज्योतिषी बनकर रहने लगे। सोमा और जयन्ती उत्पल की दो बहिनें थीं। इन्होंने भी पार्श्वनाथ की दीक्षा छोड़कर परिव्राजिकाओं की दीक्षा ले ली थी। पार्श्वनाथ के दूसरे श्रमण स्थविर मुनिचन्द्र थे । ये बहुश्रुत स्थविर अपने शिष्य परिवार के साथ कुमाराय संनिवेश में किसी कुम्हार की शाला में रहते थे । एक बार मंखलिपुत्र गोशाल जब महावीर के साथ विहार कर रहे थे तो वे स्थविर मुनिचन्द्र के पास आये और उन्हें प्रारम्भ तथा परिग्रह सहित देखकर उन्होंने प्रश्न किया कि आप लोग सारंभ और मपरिग्रह होकर भी श्रमण निग्रंथ कैसे कहे जा सकते हैं ? बात यहाँ तक बढ़ गई कि गोशाल ने उनके निवास स्थान (प्रतिश्रय ) को जला देने की धमकी दी। लेकिन महावीर ने गांशाल को समझाया कि वे लोग पार्श्वनाथ के अनुयायी स्थविर साधु है, अतएव उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता । इन स्थविरों के आचार-विचार के सम्बन्ध में कहा गया है कि ये अन्त में जिनकल्प धारण करते थे, तथा तप, सत्त्व, सूत्र, एकत्व और बल नामक पाँच भावनाओं से संयुक्त होकर उपाश्रय में, उपाश्रय के बाहर, चौराहों पर, शून्यगृहों में और श्मशानों में रहकर तप करते थे। ___ भगवती सूत्र में वाणियगाम निवासी श्रमण गांगेय का उल्लेख आता है, जिन्होंने पार्श्वनाथ का चातुर्याम धर्म त्याग कर महावीर के पाँच महाव्रत स्वीकार किये । उक्त सूत्र में तुंगिय नगरी को पार्श्वनाथ के स्थविरों का केन्द्रस्थान बताते हुए वहाँ ५०० स्थविरों के विहार करने का उल्लेख है । इन स्थविरों में कालियपुत्र, मेहिल, आनन्दरक्खिय और कासव के नाम मुख्य हैं । सूत्रकृतांग में पार्श्वनाथ के अनुयायी मेदार्य गोत्रीय उदक पेढालपुत्त का नाम आता है । महावीर के प्रधान शिष्य गौतम इन्द्रभूति के साथ इनका वाद हुआ और अन्त में इन्होंने महावीर के पास जाकर उनके पाँच महाव्रतों को स्वीकार किया । उत्तराध्ययन सूत्र में चतुर्दश पूर्वधारी कुमारश्रमण केशी का उल्लेख पाता है । केशीकुमार अपने ५०० शिष्य-परिवार के साथ श्रावस्ति नगरी में विहार करते थे। यहाँ पर गौतम इन्द्रभूति के साथ इनका वार्तालाप Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्वनाथ और उनके शिष्यों का विहार हुआ और इन्होंने पार्श्वनाथ का चातुर्याम धर्म छोड़कर महावीर के पाँच महाव्रतों को स्वीकार कर लिया। इस प्रसंग पर गौतम इन्द्रभूति ने केशीकुमार को समझाया-“पार्श्व और महावीर दोनों महातपस्वियों का उद्देश्य एक है, और दोनों ही ज्ञान, दर्शन और चारित्र से मोक्ष की सिद्धि मानते हैं । अन्तर इतना ही है कि पार्श्वनाथ ने अहिंसा, सत्य, अचौर्य और अपरिग्रह–इन चार व्रतों को माना है, जब कि महावीर इन व्रतों में ब्रह्मचर्य व्रत मिलाकर पाँच व्रत स्वीकार करते हैं। इसके अतिरिक्त, पार्श्वनाथ का धर्म सचेल (सवस्त्रसन्तरुत्तर) है, और महावीर अचेल (नम ) धर्म को मानते हैं, लेकिन हे महामुने, बाहरी वेष तो साधन मात्र है, वास्तव में चित्त की शुद्धि से मोक्ष की प्राप्ति होती है ।” पार्श्वनाथ की श्रमण परम्परा में स्त्रियाँ भी दीक्षित हो सकती थीं । ज्ञाता धर्म कथा और निरयावलि सूत्रों में ऐसी अनेक स्त्रियों के नामोल्लेख पाते हैं । पार्श्वनाथ के भिक्षुणी संघ में पुष्यचूला नामक गणिनी मुख्य थी। उनकी एक शिष्या का नाम काली था। मथुरा के जैन शिलालेखों में भी प्रार्यानों का उल्लेख पाया जाता है। __पार्श्वनाथ और उनके शिष्यों ने बिहार और उत्तरप्रदेश के जिन स्थानों में विहार किया था, उन सब स्थानों की गणना भारत के प्राचीनतम जैन तीर्थों में की जानी चाहिए। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर की विहार-चर्या पार्श्वनाथ के लगभग अढाई सौ वर्ष बाद विदेह की राजधानी वैशाली (बमाढ़, मुज़फ्फरपुर) के उपनगर क्षत्रियकुण्डग्राम (कुण्डग्राम अथवा कुण्डपुर, अाधुनिक बसुकुण्ड ) में महावीर का जन्म हुआ था । महावीर की माता का नाम त्रिशला और पिता का नाम सिद्धार्थ था । तीस वर्ष की अवस्था में महावीर ने दीक्षा ग्रहण की, बारह वर्ष तप किया और तीम वर्ष तक देश-देशान्तर में विहार किया । तत्पश्चात् बहत्तर वर्ष की अवस्था में ई० पू० ५२८ के लगभग मज्झिमपावा ( पावापुरी, बिहार ) में निर्वाण लाभ किया । प्रथम वर्ष महावीर वर्धमान ने मँगसिर वदी १० के दिन क्षत्रियकुण्डग्राम के बाहर ज्ञातृखण्ड नामक उद्यान में अशोक वृक्ष के नीचे श्रमण-दीक्षा ग्रहण की और एक मुहूर्त दिन अवशेष रहने पर कुम्मारगाम पहुँच कर वे ध्यान में अवस्थित हो गए । दूसरे दिन महावीर कोल्लाक संनिवेश पहुँचे और वहाँ से मोराग संनिवेश पहुँच कर दुइजंत नाम के तापस आश्रम में ठहरे। एक रात ठहर कर उन्होंने यहाँ से विहार किया और आठ महीने तक घूम-फिरकर वे फिर इसी स्थान में पाए । यहाँ पन्द्रह दिन रह कर महावीर अठियगाम चले गए, जहाँ उन्हें शूनपागि यक्ष ने उपमर्ग किया। यहाँ महावीर चार महीने रहे । यह उनका प्रथम चातुर्मास था। दूसरा वर्ष शरद् ऋतु आने पर महावीर यहाँ से मोराग संनिवेश गए । वहाँ से उन्होंने वाचाला की तरफ़ विहार किया । वाचाला दक्षिण और उत्तर भागों में विभक्त Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ. महावीर द्वारा अवलोकित स्थान [५०० ई.पू.) समिधिला स्थणाक ल्लागा. वैशाली कोटि वाराणसी माध्यपावागावया सिवाणियग्राम कण्डलपुर०कयंगला नालन्दा राजग्रहलाद সোল্লামালা ও पदालगम Wours तोसली Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर की विहार-चर्या थो । दोनों के बीच में सुवर्णकूला और रूप्यकुला नामक नदियाँ बहती थीं। महावीर ने दक्षिण वाचाला से उत्तर वाचाला की ओर प्रस्थान किया । उत्तर वाचाला जाते हुए बीच में कनकखल नाम का अाश्रम पड़ता था । यहाँ से महावीर सेयविया नगरी पहँचे, जहाँ प्रदेशी राजा ने उनका आदर-सत्कार किया। तत्पश्चात् गंगा नदी पार कर महावीर सुरभिपुर पहुँचे और वहाँ से थूणाक संनिवेश पहुँच कर ध्यान में अवस्थित हो गए । यहाँ से महावीर राजगृह गए और उसके बाद नालन्दा के बाहर किसी जुलाहे की शाला में ध्यानावस्थित हो गए । संयोगवश मंखलिपुत्र गोशाल भी उस समय यहीं ठहरा हुआ था। महावीर के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर वह उनका शिष्य बन गया । यहाँ से चल कर दोनों कोल्लाग संनिवेश पहुँचे। महावीर ने यहाँ दूसरा चातुर्माम बिताया । तीसरा वर्ष तत्पश्चात् महावीर और गोशाल सुवन्नखलय पहुंचे। वहाँ से ब्राह्मणग्राम गये । यहाँ नन्द और उपनन्द नामक दो भाई रहते थे, और दोनों के अलग अलग मोहल्ले थे । गुरु-शिष्य यहाँ से चलकर चंपा पहुँचे। भगवान् ने यहाँ तीसरा चातुर्मास व्यतीत किया । चौथा वर्ष तत्पश्चात् दोनों कालाय संनिवेश जाकर एक शून्यगृह में ठहरे । वहाँ से पत्तकालय गये, और वहाँ से कुमाराय संनिवेश जाकर चंपरमणिज नामक उद्यान में ध्यानावस्थित हो गये । यहाँ पार्थापत्य स्थविर मुनिचन्द्र ठहरे हुए थे, जिनके विषय में ऊपर कहा जा चुका है। यहाँ से चलकर दोनों चोराग संनिवेश पहुँचे, लेकिन यहाँ गुप्तचर समझकर दोनों पकड़ लिये गये । यहाँ से दोनों ने पृष्ठचंपा के लिए प्रस्थान किया । महावीर ने यहाँ चौथा चौमासा बिताया। पाँचवाँ वर्ष पारणा के बाद महावीर और गोशाल यहाँ से कयंगला के लिए रवाना हुए । वहाँ से श्रावस्ति पहुँचे, फिर हलेद्दय गये । फिर दोनों नङ्गलाग्राम पहुँच ( ६ ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत के प्राचीन जैन तीर्थ कर वासुदेव के मन्दिर में ध्यान में लीन हो गये । तत्पश्चात् दोनों श्रावत्ताग्राम जाकर बलदेव मन्दिर में ठहरे । यहाँ से दोनों चोराय संनिवेश पहुँचे, फिर कलंबुक संनिवेश श्राये | यहाँ दोनों क़ैद कर लिए गये । तत्पश्चात् गुरु-शिष्य लाढ़ देश की ओर चले । लाढ़ देश वज्जभूमि और सुब्भभूमि नामक दो भागों में विभक्त था । इस देश में गाँवों की संख्या बहुत कम थी, और बहुत दूर चलने पर भी वसति (निवास स्थान ) मिलना कठिन होता था । यहाँ के निवासी रुक्ष भोजन करने के कारण प्रकृति से क्रोधी होते थे । ये लोग साधुत्रों से द्वेष करते थे, उन्हें कुत्तों से कटवाते थे, और उन पर दण्ड आदि से प्रहार करते थे। ये लोग यतियों को ऊपर से उठाकर नीचे पटक देते, तथा उनके गोदोहन, उकडू और वीर श्रादि श्रासनों से गिराकर उन्हें मारते थे । कपास आदि के प्रभाव में यहाँ के लोग तृण आड़ते थे । लाढ़ देश में महावीर और गोशाल ने अनेक प्रकार के कष्ट सहनकर छह मास विहार किया । इस देश में बौद्ध साधु कुत्तों के उपद्रव से बचने के लिए अपनी देह के बराबर चार अंगुल मोटी लाठी लेकर चलते थे, लेकिन महावीर ने यहाँ बिना किसी लाठी आदि के भ्रमण किया । तत्पश्चात् दोनों पुन्नकलस होते हुए भद्दिय नगरी लौटाये । महावीर ने यहाँ पाँचवाँ चातुर्मास बिताया । छठा वर्ष तत्पश्चात् दोनों कदलीग्राम, जंबूसंड और तंबाय संनिवेश होते हुए कूविय संनिवेश पहुँचे । यहाँ इन्हें गुप्तचर समझ कर पकड़ लिया गया । उसके बाद दोनों वैशाली आये । यहाँ आकर गोशाल ने महावीर से कहा कि जब मुझ पर कोई आपत्ति आती है तो आप मेरी सहायता नहीं करते | यह कह कर गोशाल महावीर का साथ छोड़कर चला गया । महावीर वैशाली से गामाय संनिवेश होते हुए, सालिसीसय ग्राम पहुँचे । यहाँ उन्हें कटपूतना व्यंतरी ने अनेक कष्ट दिए । कुछ समय बाद गोशाल फिर महावीर के पास या गया । दोनों भद्दिय पहुँचे । महावीर ने यहाँ छठा वर्षावास व्यतीत किया । सातवाँ वर्ष तत्पश्चात् गुरु-शिष्य ने मगध देश में विहार किया । यहाँ श्रालभिया नगरी में महावीर ने सातवाँ वर्षावास व्यतीत किया । ( १० ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर की विहार-चर्या आठवाँ वर्ष इसके बाद दोनों कुंडाग संनिवेश जाकर वासुदेव के मन्दिर में ध्यान में अवस्थित हो गये । वहाँ से मद्दणा ग्राम पहुँचकर बलदेव के मन्दिर में ठहरे । वहाँ से बहुसालग ग्राम पहुँचे। यहाँ सालजा व्यन्तरी ने उपसर्ग किया । तत्पश्चात् दोनों ने लोहग्गल राजधानी की ओर प्रस्थान किया। यहाँ उन्हें राजपुरुषों ने गुप्तचर समझकर पकड़ लिया । यहाँ से दोनों पुरिमताल पहुँचे और -शकटमुख उद्यान में ध्यानावस्थित हो गये । यहाँ से दोनों ने उन्नाट की ओर प्रस्थान किया, और वहाँ से गोभूमि पहुँचे । तत्पश्चात् दोनों राजगृह पाये । यहाँ महावीर ने आठवाँ चातुर्मास व्यतीत किया । नौवाँ वर्ष गोशाल को साथ लेकर महावीर ने फिर से लाढ देश की यात्रा की, और यहाँ वजभूमि और सुब्भभूमि में विचरण किया। अब की बार महावीर यहाँ छह महीने तक रहे और उन्होंने अनेक प्रकार के कष्ट सहन करते हुए यहीं चातुर्मास व्यतीत किया । दसवाँ वर्ष तत्पश्चात् महावीर और गोशाल सिद्धत्थपुर आये । यहाँ से दोनों जब कुम्मगाम जा रहे थे तो जंगल में एक तिल के पौधे को देखकर गोशाल ने प्रश्न किया कि वह पौधा नष्ट हो जायगा या नहीं ? महावीर ने उत्तर दिया कि पौधा नष्ट हो जायगा, लेकिन उसका बीज फिर पौधे के रूप में परिणत होगा। कुम्मगाम में वैश्यायन नामक बाल तपस्वी को तप करते देखकर गोशाल ने पूछा-"तुम मुनि हो या जूत्रों की शय्या ?" इस पर वैश्यायन ने क्रुद्ध होकर गोशाल पर तेजोलेश्या छोड़ी। महावीर ने शीतलेश्या का प्रयोग कर गोशाल को बचाया । इस के बाद कुम्मगाम से सिद्धत्थपुर लौटते हुए महावीर के कथनानुसार जब गोशाल ने उगे हुए तिल के पौधे को देखा तो वह नियतिवादी हो गया और महावीर से अलग होकर श्रावस्ति में किसी कुम्हार की शाला में आकर महावीर द्वारा प्रतिपादित तेजोलेश्या की सिद्धि के लिये प्रयत्न करने लगा। महावीर ने वैशाली के लिये प्रस्थान किया और नाव से गण्डकी नदी पार कर वाणियगाम पहुँचे । वहाँ से श्रावस्ति पहुँच कर महावीर ने दसवाँ चौमासा व्यतीत किया । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत के प्राचीन जैन तीर्थ ग्यारहवाँ वर्ष तत्पश्चात् महावीर ने सानुलहियगाम की ओर प्रस्थान किया । वहाँ से वे दढभूमि गये और पेढाल उद्यान में पोलास नामक चैत्य में ठहरे । यहाँ बहुत से म्लेच्छ रहते थे; उन्होंने महावीर को अनेक कष्ट दिये । इसके बाद वे बालुयागाम, सुभोम, सुच्छेत्ता और मलय होते हुए हथिसीस पहुँचे। इन स्थानों में महावीर ने अनेक उपसर्ग सहे। तत्पश्चात् महावीर ने तोसलि के लिये प्रस्थान किया। वहाँ से वे मोसलि गये, फिर लौट कर तोलि आये । वहाँ से सिद्धत्थपुर होते हुए वयग्गाम आये । महावीर ने इस प्रदेश में छह महीने विचरण किया। इन स्थानों में महावीर को घोर उपसर्ग सहन करने पड़े। इसके बाद महावीर पालभिया पहुँचे, और फिर सेयविया होते हुए उन्होंने श्रावस्ति की अोर विहार किया। उस समय श्रावस्ति में स्कन्द ( कार्तिकेय ) की पूजा होती थी। वहाँ से महावीर कौशांबी, वाराणसी, राजगृह और मिथिला में विचरण करते हुए वैशाली पहुंचे और यहाँ उन्होंने ग्यारहवाँ चौमासा बिताया। (कुछ लोगों का कहना है कि यह चातुर्मास महावीर ने मिथिला में बिताया ।) बारहवाँ वर्ष यहाँ से महावीर ने सुंसुमारपुर के लिए प्रयाण किया। फिर भोगपुर, नन्दिगाम और मेंढियगाम होते हुए कौशांबी पधारे। यहाँ उन्हें भ्रमण करते करते चार मास बीत गये लेकिन अाहार - लाभ न हुआ। अन्त में चम्पा के राजा दधिवाहन की पुत्री चन्दनबाला ने उन्हें आहार देकर पुण्य लाभ किया । तत्पश्चात् महावीर सुमङ्गलगाम और पालय होते हुए चम्पा पधारे और यहाँ किसी ब्राह्मण की यज्ञशाला में ठहरे। महावीर ने यहाँ बारहवाँ वर्षावास बिताया। तेरहवाँ वर्ष तत्पश्चात् महावीर जंभियगाम पहुँचे। वहाँ से मेंढियगाम होते हुए मझिमपावा अाये । यहाँ से लौट कर फिर जंभियगाम गये और यहाँ नगर के बाहर वियावत्त चैत्य में ऋजुवालिका नदी के उत्तरी किनारे श्यामाक गृहपति के खेत में शाल वृक्ष के नीचे वैशाख सुदी १० के दिन केवलज्ञान प्राप्त किया। ( १२ ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर की विहार-चर्या इसके बाद महावीर ने ३० वर्ष तक देश-देशान्तर में विहार करते हुए अपने उपदेशामृत से जन-समुदाय का कल्याण करते हुए अपने सिद्धान्तों का प्रचार किया। अन्त में वे मज्झिमपावा पधारे और यहाँ चातुर्मास व्यतीत करने के लिये हस्तिपाल नामक गणराजा के पटवारी के दफ़्तर ( रजुगसभा) में ठहरे। एक एक करके वर्षाकाल के तीन महीने बीत गये। चौथा महीना लगभग आधा बीतने को आया । इस समय कार्तिकी अमावस्या के प्रातःकाल महावीर ने निर्वाण लाभ किया । महावीर के निर्वाण के समय काशी-कोशल के नौ मल्ल और नौ लिच्छवि नामक अठारह गणराजा मौजूद थे; उन्होंने इस पुण्य अवसर पर सर्वत्र दीपक जलाकर महान् उत्सव मनाया । महावीर वर्धमान ने बिहार, बंगाल और पूर्वीय उत्तरप्रदेश के जिन स्थानों को अपने विहार से पवित्र किया था, वे सब स्थान जैनों के पुनीत तीर्थ हैं । दुर्भाग्य से आज इन स्थानों में से बहुत कम स्थानों का ठीक ठीक पता लगता है; बहुत से तो पिछले अढ़ाई हज़ार वर्षों में नाम शेष रह गये हैं । यदि विहार, बङ्गाल और उत्तरप्रदेश के उक्त प्रदेशों की पैदल यात्रा की जाय तो निस्सन्देह यात्रियों को अक्षय पुण्य का लाभ हो और इससे संभवतः बहुत से अज्ञात पवित्र स्थानों का पता चल जाय । ( १३ ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण-संघ और जैन धर्म का प्रसार बृहत्कल्प सूत्र और निशीथ सूत्र जैसे प्राचीन जैन सूत्रों से पता लगता है कि भगवान् महावीर जब साकेत नगरी के सुभूमिभाग नामक उद्यान में विहार कर रहे थे तो उन्होंने निम्नलिखित सूत्र कहा था “निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थिनी साकेत के पूर्व में अङ्ग-मगध तक, दक्षिण में कौशांबी तक, पश्चिम में स्थूणा तक, तथा उत्तर में कुणाला ( उत्तर कोसल ) तक विहार कर सकते हैं । इतने ही क्षेत्र आर्य क्षेत्र हैं, बाकी नहीं, क्योंकि इन्हीं क्षेत्रों में निर्ग्रन्थ भिक्षु और भिक्षुणियों के ज्ञान-दर्शन और चारित्र अक्षुण्ण रह सकते हैं ।” इससे पता लगता है कि प्रारम्भ में जैन श्रमणों का विहार-क्षेत्र अाधुनिक बिहार, पूर्वीय उत्तरप्रदेश तथा पश्चिमीय उत्तरप्रदेश के कुछ भाग तक मीमित था, इसके बाहर वे नहीं गये थे। __ बृहत्कल्प भाष्य में जनपद-परीक्षा प्रकरण में बताया गया है कि जनपदविहार करने से साधुओं की दर्शन-विशुद्धि होती है, महान् प्राचार्य आदि की संगति से वे अपने आपको धर्म में स्थिर रख सकते हैं, तथा विद्या-मन्त्र आदि की प्राप्ति कर सकते हैं । यहाँ बताया गया है कि साधु को नाना देशों की भाषायों में कुशल होना चाहिए जिससे वह देश-देश के लोगों को उनकी भाषा में उपदेश दे सके । इतना ही नहीं, साधु को इस बात की जानकारी प्राप्त करनी चाहिए कि किस देश में किस प्रकार से धान्य की उत्पत्ति होती हैकहाँ वर्षा से धान्य होते हैं, कहाँ नदी के पानी से होते हैं, कहाँ तालाब के ( १४ ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण -संघ और जैन धर्म का प्रसार पानी से होते हैं, कहाँ कुँए के पानी से होते हैं, कहाँ नदी की बाढ़ से होते हैं और कहाँ नाव में रोपे जाते हैं । इसी प्रकार साधु को यह जानना आवश्यक है कि किस देश में व्यापार - बनिज से ग्राजीविका चलती है, कहाँ खेती से आजीविका होती है, तथा कहाँ के लोग मांस-भक्षी होते हैं और कहाँ निरामिष-भोजी। ____ कहना न होगा कि जैन श्रमणों ने भयङ्कर कष्टों का सामना कर अपने सिद्धान्तों का प्रसार किया था। उस समय मार्ग में भयानक जङ्गल पड़ते थे, जो हिंस्र जंतुओं से परिपूर्ण थे। रास्ते में बड़े बड़े पर्वत और नदी-नालों को लाँघ कर जाना पड़ता था। चोर - डाकुओं के उपद्रव और राज्योपद्रव भी कम नहीं थे । वसति ( ठहरने की जगह ) तथा दुर्भिक्ष- जन्य उपद्रवों की भी कमी नहीं थी। ऐसी दशा में देश - देशान्तर में घूम-घूमकर अपने धर्म का प्रचार करना साधारण बात न थी। लेकिन कुछ समय पश्चात् जैन श्रमणों को राजा संप्रति (२२०-२११ ई.पू.) का आश्रय मिला और जैन भिक्षु बिहार, बङ्गाल और उत्तरप्रदेश की सीमा का उल्लङ्घन कर दूर दूर तक विहार करने लगे। जैन सूत्रों के अनुसार राजा सम्प्रति नेत्रहीन कुणाल का पुत्र था, जो सम्राट चन्द्रगुप्त (३२५-३०२ ई. पू.) का प्रपौत्र, बिन्दुसार का पौत्र तथा अशोक (२७४ - २३७ ई० पू० ) का पुत्र था। अवन्ति का राजा सम्प्रति आर्य सुहस्ति के उपदेश से जैन श्रमणों का उपासक और जैन धर्म का प्रभावक बना था । राजा सम्प्रति ने नगर के चारों दरवाज़ों पर दानशालाएँ खुलवाकर जैन श्रमणों को भोजन-वस्त्र देने की व्यवस्था की थी। उसने अपने आधीन आसपास के सामन्त राजाओं को निमन्त्रित कर उन्हें श्रमण संघ की भक्ति करने को कहा । सम्प्रति अपने कर्मचारियों के साथ रथयात्रा महोत्सव में सम्मिलित होता और रथ के सामने विविध पुष्य, फल, वस्त्र, कौड़ियाँ आदि चढ़ाकर अपने को धन्य मानता था । राजा सम्प्रति ने अपने भटों को शिक्षा देकर साधुवेष में सीमान्त देशों में भेजा, जिससे जैन श्रमणों को निर्दोष भिना का लाभ हो सके। इस प्रकार सम्प्रति ने आन्ध्र, द्रविड़, महाराष्ट्र, कुडुक्क (कुर्ग ) श्रादि देशों को जैन श्रमणों के सुखपूर्वक विहार करने योग्य बनाया । ___ इस समय से निम्नलिखित साढ़े पच्चीस देश आर्य देश माने जाने लगे, और इन देशों में जैन श्रमणों का विहार होने लगा : Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत के प्राचीन जैन तीर्थ me » Tura जनपद १ मगध २ अङ्ग ३ वङ्ग ४ कलिङ्ग ५ काशी ६ कोशल राजधानी राजगृह चम्पा ताम्रलिप्ति कांचनपुर वाराणसी साकेत गजपुर शौरिपुर काम्पिल्यपुर अहिच्छत्रा द्वारवती मिथिला कौशांबी नन्दिपुर भदिलपुर वैराट कुशावर्त ६ पांचाल १० जाङ्गल ११ सौराष्ट्र विदेह वत्स १४ शांडिल्य १५ मलय मत्स्य १७ वरणा दशाण चेदि २० मिन्धु-मौवीर शूरसेन २२ भंगि २३ बट्टा (?) २४ कुणाल २५ लाढ २५३ केकयी अर्ध. अच्छा मृत्तिकावती शुक्तिमती वीतिभय मथुरा पापा मासपुरी (?) श्रावस्ति कोटिवर्ष श्वेतिका कल्पसूत्र में उल्लिखित स्थविरावलि में जो जैन श्रमणों के निम्नलिखित गण, शाग्वा और कुलों का उल्लेख मिलता है, उससे भी पता चलता है कि ( २६ ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण-संघ और जैन धर्म का प्रसार इसवी सन् के पूर्व जैन श्रमणों की प्रवृत्तियों का केन्द्र काफ़ी विस्तृत हो गया था : गोदाम गण की शाग्वाएँ:-नामलित्तिया, कोडिवरिमिया, पुंडबद्धणिया, दामी खब्बडिया। उत्तर बलिस्सह गण की शाखाएँ:-कोमविया, माइत्तिया (सुत्तिवत्तिया), कोडंबाणी, चन्दनागरी। उद्देह गण की शाग्वाएँ:-उदंवरिजिया, मामपुरिया, मइपत्तिया, पुण्गापत्तिया । कुल:-नागभूय, मोमभूय, उल्लगच्छ, हत्थलिज, नंदिज, पारिहासय । चारण गण की शाखाएँ:-हारियमालागारी (हारियमालगढी) मंकामीया, गवेधुया, वजनागरी । कुलः-वच्छलिज, पीइधम्मिन, हालिज, पूसमित्तिज, मालिज, अजवेडय, कराहमह् । उड्डुवाडिय गण की शाखाएँ:-चंपिजिया, भद्दिजिया, काकंदिया, मेहलिजिया । कुलः-भद्द नसिय, भद्दगुत्तिय, जसभद्द । वेसवडिय गण की शाखाएँ:-मावत्थिया, रजपालिया, अंतरिजिया, खेमलिजिया। कुलः–मेहिय, कामिड्ढिा , इंदपुरग । माणव गण की शाखाएँ:-कासवजिया, गोयमजिया, वामिहिया, मोरहिया। कुलः--इमिगुत्ति, इसिदत्तिय, अभिजयन्त । कोडिय गण की शाखाएँ:-उच्चानागरी, विजाहरी, बइरी, मज्झिमिल्ला । कुलः-बंभलिज, वच्छलिज, वाणिज, पाहवाहणय* | इसके अतिरिक्त मज्झिमा, विजाहरी, उच्चानगरी, अजसेणिया, अजतावसी, अजकुबेरी, अजइसिपालिया, बंभदीविया, अजबइरी, अजनाइली, अजजयन्ती नामक शाखाओं का उल्लेख मिलता है । ध्यान रखने की बात है कि * ध्यान रखने की बात है कि विक्रम संवत् १४०५ में प्रबन्धकोश के रचयिता राजशेखर ने ग्रंथ की प्रशस्ति में अपने आपको कोटिक गण, प्रश्नवाहनक कुल, मध्यमा शाग्वा, हर्षपुरीय गच्छ और मलधारि सन्तान बताया है । ( १७ ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत के प्राचीन जैन तीर्थ मथुरा के शिलालेखों में भी ये ही गण, शाखायें और कुल उत्कीर्ण हैं । दुर्भाग्य से इनमें अधिकतर नामों का ठीक ठीक पता नहीं चलता, किन्तु जिनका पता चलता है उससे स्पष्ट है कि जैन श्रमणों ने ईमवी मन के पूर्व ताम्रलिप्ति, कोटिवर्ष, पाण्डुवर्धन, कौशांबी, शुक्तिमती, उदुम्बर, मापपुरी (?). चम्पा, काकन्दी, मिथिला, श्रावस्ति, अन्तरञ्जिया, कोमिल्ला, उच्चानागर्ग, मध्यमिका और ब्रह्मद्वीप आदि स्थानों में विहार कर इन प्रदेशों को अपनी प्रवृत्तियों का केन्द्र बनाया था। इन सब क्षेत्रों को जैनधर्म के पनीत तीर्थ मानना चाहिए। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिहार-नेपाल-उड़ीसा-बंगाल -बरमा -बिहार ईमा के पूर्व चौथी शताब्दि से लेकर ईमवी सन् की पाँचवीं शताब्दि तक बिहार एक समृद्धिशाली प्रदेश था और उस समय यहाँ का कला-कौशल उन्नति के शिखर पर पहुँचा हुआ था । यहाँ के शासकों ने जगह-जगह सड़कें बनवाई थीं, तथा जावा, वालि आदि सुदूरवर्ती द्वीपों में जहाज़ों के बेड़े भेजकर इन द्वीपों को बसाया था। बिहार प्रान्त में जो प्राचीन खण्डहर और मूर्तियाँ उपलब्ध हुई हैं उससे पता चलता है कि यह स्थान ईसा के पूर्व छठी शताब्दि में बौद्ध तथा जैनों का बड़ा भारी केन्द्र था। सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिये यहाँ से लङ्का, चीन, तिब्बत आदि सुदूर स्थानों में उपदेशक भेजे थे । जैन और बौद्ध ग्रन्थों में मगध देश (दक्षिण बिहार) की गणना प्राचीन १६ जनपदों में की गई है । यह देश पूर्व दिशा का पुनीत तीर्थ माना जाता था और यहाँ का जल पवित्र समझा जाता था । मगध की भाषा मागधी थी जिममें महावीर और बुद्ध ने प्रवचन किया था । -- ___ * अङ्ग, बङ्ग, मगह, मलय, मालवय, अच्छ, बच्छ, कोच्छ, पाढ, लाढ, बजि, मोलि, कासी, कोमल, अवाह, संभुत्तर (सुम्होत्तर)-भगवती १५ । तुलना करो–अंग, मगध, कासी, कोमल, वजि, मल्ल, चेति, वंस, कुरु, पंचाल, मच्छ, सूरसेन, अस्मक, अवन्ति, गंधार, कम्बोज-अंगुत्तर निकाय १, पृ. २१३. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत के प्राचीन जैन तीर्थ मगध का दूसरा नाम कीकट था। ब्राह्मण ग्रन्थों में मगध को पापभूमि बताते हुए वहाँ गमन करना निषिद्ध माना गया है । इस पर १८वीं सदी के एक जैन यात्री ने व्यंगपूर्वक लिखा है-यह कितने अाश्चर्य की बात है कि यदि काशी में एक कौवा भी मर जाय तो वह सीधे मोक्ष में पहुँच जाता है, लेकिन यदि कोई मनुष्य मगधभूमि में मरे तो वह गधे की योनि में पैदा होता है ! जैन ग्रन्थों में मगधवासियों की बहुत प्रशंसा की है और कहा है कि वहाँ के लोग संकेत मात्र से बात को समझ जाते हैं । _ शिशुनागवंशी सम्राट बिंबिसार ( श्रेणिक ) मगध में राज्य करता था । कूणिक (अजातशत्रु, मृत्युकाल ५२५ ई. पू.), अभयकुमार और मेघकुमार आदि उसके अनेक पुत्र थे । __ मगध की राजधानी राजगृह (गजगिर ) थी। राजगृह की गणना भारत की दस राजधानियों में की गई है |* मगध देश का मुख्य नगर होने से राजगृह को मगधपुर भी कहा जाता था। जैन ग्रन्थों में इसे क्षितिप्रतिष्ठित, चणकपुर, ऋषभपुर और कुशाग्रपुर नाम से भी कहा गया है। कहा जाता है कि कुशाग्रपुर में प्रायः आग लग जाया करती थी, अतएव मगध के राजा बिम्बिसार ने उसके स्थान पर राजगृह नगर बसाया । महाभारत के अनुसार, राजगृह में राजा जरासंध राज्य करता था। यहाँ से महावीर के अनेक शिष्यों का मोक्ष-गमन बताया जाता है। राजगृह प्रभास गणधर और दशवैकालिक के कर्ता शांभव का जन्मस्थान था । महावीर को केवलज्ञान होने के सोलह वर्ष पश्चात् यहाँ दूसरे निह्नव की स्थापना हुई थी। ___ पाँच पहाड़ियों से घिरे रहने के कारण राजगृह को गिरिव्रज भी कहा जाता था । इन पाँच पहाड़ियों के नाम हैं-विपुल, रत्न, उदय, स्वर्ण और वैभार | ये पहाड़ियाँ अाजकल भी राजगृह में मौजूद हैं और जैनों द्वारा पवित्र मानी जाती हैं। इनमें वैभार और विपुल गिरि का जैन ग्रन्थों में विशेष महत्व बताया - -.- -.-....-.-- ___* चम्पा, मथुरा, वाराणसी, श्रावस्ति, साकेत, कांपिल्य, कौशांबी, मिथिला. हस्तिनापुर, राजगृह-स्थानमंग १०.७१७; निशीथ सूत्र ६.१६ । तुलना करोचम्पा, राजगृह, श्रावस्ति, साकेत, कौशांबी, वाराणमी-दीघनिकाय, महासुदस्मन सुत्त । ( २० ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिहार - नेपाल - उड़ीसा-बंगाल - बरमा गया है । वैभार का वर्णन करते हुए कहा है कि यह पहाड़ी बहुत चित्ताकर्षक थी, अनेक वृक्ष और लताओं से मंडित थी, नाना प्रकार के फल-फूल यहाँ खिलते थे, और नगरवासी यहाँ क्रीड़ा के लिए जाते थे । विपुलाचल से अनेक जैन मुनियों के मोक्ष-गमन का उल्लेख मिलता है । बौद्ध ग्रन्थों से पता लगता है कि विपुलाचल सब पहाड़ियों में ऊँचा था, और यह प्राचीनवंश, वक्रक तथा सुपश्य नाम से प्रख्यात था । वैभार पर्वत के नीचे तपादा अथवा महातपापतीरप्रभ नामक गरम पानी को बड़ा कुण्ड था । जैन सूत्रों में इस कुण्ड की लम्बाई पाँच सौ धनुप बताई गई है । राजगिर में आजकल भी गरम पानी के सोत मौजूद हैं, जिन्हें तपोवन के नाम से पुकारा जाता है । सातवीं सदी के चीनी यात्री हुअन-सांग ने अपने विवरण में इनका उल्लेख किया है । बुद्ध और महावीर ने राजगृह में अनेक चातुर्मास व्यतीत किये थे । जैन ग्रन्थों के अनुसार यहाँ गुणसिल, मंडिकुच्छ, मोग्गरपाणि अादि चैत्य-मन्दिर थे। महावीर प्रायः गुणसिल चैत्य में ठहरा करते थे । वर्तमान गुणावा, जो नवादा स्टेशन से लगभग तीन मील दूर है, प्राचीन गुणशिल माना जाता है । राजगृह व्यापार का बड़ा केन्द्र था । यहाँ दूर-दूर के व्यापारी माल खरीदने आते थे। यहाँ से तक्षशिला, प्रतिष्ठान, कपिलवस्तु, कुशीनारा आदि भारत के प्रसिद्ध नगरों को जाने के मार्ग बने हुए थे । बौद्ध सूत्रों में मगध में धान के सुन्दर खेतों का उल्लेख पाता है। ___बुद्ध-निर्वाण के पश्चात् राजगृह की अवनति होती चली गई । जब चीनी यात्री हुअन-सांग यहाँ आया तो यह नगरी अपनी शोभा खो चुकी थी। चौदहवीं सदी के विद्वान् जिनप्रभ सूरि के समय राजगृह में ३६,००० घरों के होने का उल्लेख है, जिनमें आधे घर बौद्धों के थे। वर्तमान राजगिर, जो विहार शरीफ़ से दक्षिण की ओर १३-१४ मील के फ़ासले पर है, प्राचीन राजगृह माना जाता है। पाटलिपुत्र (पटना) मगध देश की दूसरी राजधानी थी। पाटलिपुत्र कुसुमपुर, पुष्यपुर और पुष्यभद्र के नाम से भी पुकारा जाता था । कहते हैं कि राजा अजातशत्रु ( कणिक ) के मर जाने पर राजकुमार उदायि (मृत्यु ४६७ ई० पू०) को चम्पा में रहना अच्छा न लगा | उसने अपने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत के प्राचीन जैन तीर्थ मंत्रियों को किसी योग्य स्थान की तलाश करने भेजा, और यहाँ एक सुन्दर पाटलि का वृक्ष देखकर पाटलिपुत्र नगर बमा या। बौद्धों के महावग्ग के अनुमार, अजातशत्रु के मन्त्री सुनीध और वर्षकार ने वैशालिनिवासी बजियों के अाक्रमण से बचने के लिए इस नगर को बमाया था । पाटलिपुत्र की गणना सिद्धक्षेत्रों में की गई है। पाटलिपुत्र जैन साधुओं का केन्द्र था । यहाँ जैन श्रागमों के उद्धार के लिए जैन श्रमणों का प्रथम मम्मेलन हुआ था, जो पाटलिपुत्र-वाचना के नाम से प्रसिद्ध है। राजा उदायि ने यहाँ जैन मन्दिर बनवाया था। पाटलिपुत्र में शकटार मन्त्री के पुत्र मुनि स्थूलभद्र कोशा गणिका के घर रहे थे और उन्होंने धर्मोपदेश देकर उसे श्राविका बनाया था। इस नगर में भद्रबाहु, आर्य महागिरि, आर्य सुहस्ति, वज्रस्वामी और उमास्वाति वाचक ने विहार किया था । यूनानी यात्री मेगस्थनीज़ ने पाटलिपुत्र के सम्राट अशोक के राजभवन का वर्णन किया है । फाहियान के समय ईसा की पाँचवीं शताब्दि तक यह भवन विद्यमान था । पाटलिपुत्र गंगा के किनारे बसा था । यह नगर व्यापार का बड़ा केन्द्र था । पाटलिपुत्र और सुवर्णभूमि ( बरमा) में व्यापार होता था । जब हमनमांग यहाँ अाया तो यद नगर एक साधारण गाँव के रूप में विद्यमान था । नालन्दा राजगृह के उत्तर-पूर्व में अवस्थित था । बौद्ध सूत्रों में राजगृह और नालन्दा के बीच में एक योजन का अन्तर बताया गया है। बीच में अम्बलहिका नामक वन पड़ता था। प्राचीन काल में नालन्दा बड़ा समृद्धिशाली नगर था, जो अनेक भवन और बाग़-बगीचों से मंडित था । भिक्षुओं को यहाँ यथेच्छ भिक्षा मिलती थी। बुद्ध, महावीर और गोशाल ने नालन्दा में विहार किया था । नालन्दा के उत्तर-पश्चिम में सेसदविया नाम की एक प्याऊ (उदकशाला) थी, जिसके उत्तर-पश्चिम में हस्तिद्वीप नाम का उपवन था । यहाँ महावीर के प्रधान गणधर गौतम ने सूत्रकृतांग नामक जैन सूत्र के अन्तर्गत नालन्दीय नामक अध्ययन की रचना की थी। १३वीं सदी तक नालन्दा बौद्ध विद्या का महान् केन्द्र था। चीन, जापान, तिब्बत, लङ्का आदि से विद्यार्थी यहाँ विद्याध्ययन के लिये आते थे। चीनी यात्री हुअन-सांग ने यहीं रह कर विद्या पढ़ी थी । बौद्धों के यहाँ अनेक विहार थे । नालन्दा में अनेक चित्रकार और शिल्ग रहते थे । नेपाल और बरमा के ( २२ ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिहार - नेपाल - उड़ीसा-बंगाल - घरमा साथ इस नगर का घनिष्ठ सम्बन्ध था । राजगिर से ७ मील दूरी पर अवस्थित बड़ागाँव को प्राचीन नालन्दा माना जाता है। • उद्दण्डपुर अथवा दण्डपुर का उल्लेख जैनसूत्रों में आता है । मंखलि पत्र गोशाल ने यहाँ विहार किया था। महाभारत में भी इस नगर का उल्लेख किया गया है। कहते हैं यहाँ बहुत से दण्डी साधु रहते थे, इसलिये इस स्थान का नाम दण्डपुर पड़ा । दण्डपुर को पहचान बिहार शरीफ़ से की जाती है । तुङ्गिया नगरी में अनेक श्रमणोपासकों के रहने का उल्लेख अाता है । कल्पसूत्र में तुङ्गिक नामक जैन श्रमणों के गण का उल्लेख मिलता है, इससे मालूम होता है कि यह नगर जैन श्रमणों का केन्द्र रहा होगा । १८वीं सदी के जैन यात्री बिहार शरीफ़ को प्राचीन तुङ्गिया मानते हैं । बिहार से ४ मील पर तुङ्गीगाम ही सम्भवतः प्राचीन तुङ्गिया हो सकता है । पावा अथवा मध्यम पावा में महावीर ने निर्वाण लाभ किया था । जंभियगाम से लौट कर उन्होंने यहाँ महासेन उद्यान में अन्तिम चौमासा व्यतीत किया । जम्भियगाम* और पावा के बीच बारह योजन का फासला था । जिनप्रभ सूरि के कथनानुसार महावीर के निर्वाणपद पाने के पूर्व यह नगरी अपापा कही जाती थी, बाद में इसका नाम पापा हो गया । दिवाली पर यहाँ बड़ा मेला लगता है, जिसमें जैन यात्री दर-दर से अाते हैं । यहाँ जलमन्दिर में महावीर के गणधर गौतम और सुधर्मा की पादुकायें बनी हुई हैं। बिहार से ७ मील के फासले पर पावापुरी को प्राचीन पावा माना जाता है। गोब्बरगाम में महावीर ने विहार किया था । महावीर के तीन गणधरों * जंभियगाम और ऋजुवालिका नदी के विषय में जानने के लिये देखिये मुनि न्यायविजय जी का 'जैन तीर्थो नो इतिहास', पृ. ४६५-६. ( २३ ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . भारत के प्राचीन जैन तीर्थ की यह जन्मभूमि थी। यह स्थान राजगृह और चम्पा के बीच में था। अंग एक प्राचीन जनपद था । वस्तुतः बुद्ध के समय अंग मगध के ही अधीन था । इसीलिए प्राचीन ग्रन्थों में अंग-मगध का एक साथ उल्लेख किया गया है । रामायण के अनुसार यहाँ शिवजी ने अंग ( कामदेव) को भस्म किया था, अतएव इम स्थान का नाम अंग पड़ा । जैन ग्रन्थों में अंग का उल्लेख सिंहल, बर्बर, किरात, यवनद्वीप, आरवक, रोमक, आलसन्द और कच्छ के माथ किया गया है । __ अंग देश मगध के पूर्व में था। इसकी पहचान भागलपुर जिले से की जानी है। चम्पा अंग देश की राजधानी थी। जैन ग्रन्थों के अनुसार राजा दधिवाहन यहाँ राज्य करता था। चम्पा का उल्लेख महाभारत में आता है । इसका दमरा नाम मालिनी था । जैन सूत्रों में चम्पा की गणना मम्मेदशिखर आदि पवित्र तीर्थों में की गई है। महावीर, बुद्ध तथा उनके शिष्यों ने चम्पा में अनेक बार विहार किया था और अनेक महत्त्वपूर्ण सूत्रों का प्रतिपादन किया था । यहाँ रहकर शय्यांभव सूरि ने दशवैकालिक नामक जैन सूत्र की रचना की थी। चम्पा की गणना मिद्धक्षेत्रों में की गई है। ग्रौपपातिक सूत्र में चम्पा का वर्णन करते हुए कहा है : "चम्पा नगरी अतीव समृद्धिशाली थी, प्रजा यहाँ की खुशहाल थी, मैकड़ों-हज़ारों हलों द्वारा यहाँ की जुताई होती थी, नगरी के आसपास अनेक गाँव थे। यह नगरी ईख, जौ, चावल आदि धान्य, तथा गाय, भैंस, मेढ़े आदि धन से समृद्ध थी । यहाँ सुन्दर चैत्य तथा वेश्यात्रों के अनेक भवन थे। नट, नर्तक, बाजीगर, पहलवान, मुष्टियुद्ध करनेवाले, कथावाचक, रास-गायक, बाँस की नोक पर खड़े होकर तमाशा दिखानेवाले, चित्रपट दिखाकर भिक्षा माँगनेवाले तथा वीणा-वादक श्रादि लोग यहाँ रहते थे। यह नगरी बाग़-बगीचे, कुएँ, तालाब, बावड़ी श्रादि से मण्डित थी। ( २४ ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिहार-नैपाल-उड़ीसा-बंगाल-बरमा इसके चारों ओर गहरी खाई थी। चक्र, गदा, मुसुण्ढी ( एक प्रकार की गदा), शतघ्नी ( तलवार अथवा भाले के समान चलाया जाने वाला यन्त्र ), कपाट आदि के कारण दुष्प्रवेश थी। चारों ओर से यह परकोटे से घिरी थी। कपिशीर्षक ( कंगूरे ), अटारी, गोपुर तथा तोरण आदि से शोभायमान थी । अनेक वणिक तथा शिल्पी यहाँ माल बेचने आते थे । सुन्दर यहाँ की मड़कें थीं, और हाथी, घोड़े, रथ, पैदल तथा पालकियों के गमनागमन से शोभित थीं।" चम्पा नगरी में पूर्णभद्र यक्ष का एक प्राचीन चैत्य था, जहाँ महावीर ठहरा करते थे। यह चैत्य ध्वजा, छत्र और घण्टियों से मण्डित था, वेदिका से शोभित था। भूमि यहाँ की गोबर से लिपी हुई थी, गोशीर्ष चन्दन के थापे लगे हुए थे, चन्दन-कलश रक्खे हुए थे, द्वार पर तोरण बँधी थी, सुगन्धित मालाएँ लटकी हुई थीं, रङ्ग-बिरंगे सुगन्धित पुष्य बिखरे हुए थे, सर्वत्र धूप महक रही थी, तथा नट, नर्तक, गायक, वादक आदि का यह निवास-स्थान था। बौद्ध सूत्रों से पता लगता है कि चम्पा में गर्गरा नाम की एक पुष्करिणी थी। इसके किनारे सुन्दर चम्पक के वृक्ष लगे थे, जिन पर सुगंधित श्वेत रङ्ग के फूल खिलते थे। कहते हैं कि राजा श्रेणिक के मरने पर राजा कुणिक को राजगृह में रहना अच्छा न लगा, अतएव उसने चम्पक के सुन्दर वृक्षों को देख कर चम्पा नगर बमाया । राजा कूणिक का अपनी रानियों समेत भगवान् महावीर के दर्शन के लिये जाने का विस्तृत वर्णन औपपातिक सूत्र में आता है । चम्पा व्यापार का बड़ा केन्द्र था । यहाँ के व्यापारी माल बेचने के लिये मिथिला, अहिच्छत्रा, सुवर्णभूमि आदि दूर-दूर स्थानों को जाते थे। चम्पा और मिथिला में साठ योजन का अन्तर था । भागलपुर के पास वर्तमान नाथनगर को प्राचीन चम्पा माना जाता है। चम्पा का शाखानगर ( सबर्ब ) पृष्ठपम्पा था। यह चम्पा के पश्चिम में था | महावीर ने यहाँ चातुर्मास किया था । जैन ग्रन्थों में मन्दिर या मन्दार को पवित्र तीर्थ माना गया है । इसकी गणना सिद्धक्षेत्रों में की जाती है । ब्राह्मण पुराणों में भी मन्दार का उल्लेख आता है । इमकी पहचान भागलपुर से दक्षिण की अोर तीस मील की दूरी परमं दार ( २५ ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत के प्राचीन जैन तीर्थ गिरि से की जाती है । पहाड़ी के ऊपर शीतल जल के कुण्ड हैं । जैन सूत्रों के अनुसार काकन्दी में बहुत से श्रमणापामक रहते थे । काकंदिया जैन श्रमणों की शाखा थी। महावीर ने इस नगरी में विहार किया था। मंगेर जिले के काकन नामक स्थान को प्राचीन काकन्दी माना जाता है। कुछ लोग गोरखपुर जिले के अन्तर्गत खग्वंदो ग्राम को काकन्दी मानते हैं । भद्दिय में बुद्ध और महावीर ने विहार किया था । बौद्ध सूत्रों के अनुसार भद्दिय अंग देश में था । इसकी पहचान मुंगेर से की जाती है। मंगेर का प्राचीन नाम मुग्गलगिरि था । गया के दक्षिण में मलय नाम का जनपद था। यह वस्त्र के लिये प्रसिद्ध था। भद्रिलपुर मलय की गजधानी थी । भद्रिलपुर की गणना अतिशय क्षेत्रों में की गई है। भद्रिलपुर की पहचान हज़ारीबाग़ ज़िले के भदिया नामक गाँव में की जाती है । यह स्थान हंटरगंज से ६ मील की दूरी पर कुलुहा पहाड़ी के पाम है । यहाँ अनेक खंडित जिन मूर्तियाँ मिली हैं । यह तीर्थ विच्छिन्न है । ग्राश्चर्य है कि जैन लोगों ने इसे तीर्थ मानना छोड़ दिया है ! हज़ारीबाग़ ज़िले का दूसरा महत्त्वपूर्ण स्थान सम्मेदशिखर है। इस ममाधिगिरि, समिदगिरि, मल्ल पर्वत, अथवा शिखर भी कहा जाता है । सम्मेदशिग्वर की गणना शत्रुजय, गिरनार, आबू और अष्टापद नामक तीर्थों के माथ की गई है । यहाँ से जैनों के २४ तीर्थंकरों में से २० तीर्थंकरों का निर्वाग हुआ माना जाता है। सम्मेदशिखर की पहचान वर्तमान पारसनाथ हिल में की जाती है। यह पहाड़ी ईसरी स्टेशन से दो मील की दूरी पर है। मलय देश के आमपाम का प्रदेश भंगि जनपद कहलाता था। इस जनपद Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिहार-नैपाल-उड़ीसा-बंगाल-बरमा में हज़ारीबाग़ और मानभूम ज़िले गर्भित होते हैं। . पावा भंगि जनपद की गजधानी थी। मल्लों की पावा स यह भिन्न है। कणंगला का उल्लेख जैन और बौद्ध सूत्रों में मिलता है। महावीर और बुद्ध ने यहाँ विहार किया था; बुद्ध यहाँ बेलुवन में ठहरे थे | इस प्रदेश का पुराना नाम औदुम्बर था। उदंबरिजिया नामक जैन श्रमणों की शाखा का उल्लेख कल्पसूत्र में आता है। कांगला की पहचान मंथाल परगना के अंतर्गत कंकजोल स्थान से की जाती है। मगध के उत्तर में विदेह जनपद था । ब्राह्मण ग्रन्थों में विदेह को राजा जनक की राजधानी बताया गया है । बौद्ध सूत्रों में जो वजियों के आठ कुल गिनाये हैं, उनमें वैशाली के लिच्छवि और मिथिला के विदेह मुख्य थे । कल्पसूत्र में वजनागरी (वार्जनागरी=वृजिनगर की शाखा) नामक जैन श्रमणों की शाखा का उल्लेख आता है । महावीर की माता त्रिशला विदेह देश की होने से विदेहदत्ता कही जाती थीं, और विदेहवामी चेलना का पुत्र कुणिक वज्जि विदेहपुत्र कहा जाता था । विदेह व्यापार का बड़ा केन्द्र था । व्यापारी लोग श्रावस्ति आदि दूरवर्ती नगरों से यहाँ आते थे। वर्तमान तिरहुत को प्राचीन विदेह माना जाता है । मिथिला विदेह की राजधानी थी। रामायण में मिथिला को जनकपुरी कहा गया है । बुद्ध और महावीर ने यहाँ अनेक बार विहार किया था । मैथि. लिया जैन श्रमणों की शाखा थी। आर्य महागिरि यहाँ आये थे। मिथिला अकंपित गणधर की जन्मभूमि थी । चौथे निहब की यहाँ स्थापना हुई थी। जिनप्रभ सूरि के समय मिथिला जगह नाम से प्रसिद्ध थी। उस समय यहाँ अनेक कदलीवन, मीठे पानी की बावड़ियाँ, कुएँ, तालाब और नदियाँ मौजूद थीं। नगरी के चार दरवाजों पर चार बड़े बाज़ार थे । यहाँ के साधाग्ण लोग भी विविध शास्त्रों के पंडित होते थे, नथा यहाँ पाताललिंग आदि अनेक तीर्थ मौजूद थे । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत के प्राचीन जैन तीर्थ किसी समय मिथिला प्राचीन भारतीय सभ्यता तथा विद्या का केन्द्र था । ईसवी सन् की हवीं सदी में यहाँ प्रसिद्ध विद्वान् मंडन मिश्र निवास करते थे, जिनकी पत्नी ने शङ्कराचार्य से शास्त्रार्थ कर उन्हें पराजित किया था। यह नगरी प्रसिद्ध नैयायिक वाचस्पति मिश्र की जन्मभूमि थी, तथा मैथिल कवि विद्यापति यहाँ के राजदरबार में रहते थे । नैपाल की सीमा पर जनकपुर को प्राचीन मिथिला माना जाता है । वैशाली विदेह की दूसरी महत्त्वपूर्ण राजधानी थी। वैशाली प्राचीन वजी गणतन्त्र की मुख्य नगरी थी । यहाँ के लोग लिच्छवि कहलाते थे । ये लोग आपस में इकट्ठे होकर प्रत्येक विषय की चर्चा करते, और सब मिलकर राज्य का प्रबंध करते थे। इन लोगों की एकता की प्रशंसा बुद्ध भगवान् ने की थी । वैशाली की कन्याओं का विवाह वैशाली में ही होता था । वैशाली गंडकी ( गंडक ) के किनारे बसी थी । बुद्ध और महावीर ने यहाँ अनेक बार विहार किया था । वैशाली महावीर का जन्म-स्थान था, इसलिए वे वैशालीय कहे जाते थे। दीक्षा के पश्चात् उन्होंने यहाँ १२ चातुर्मास व्यतीत किये। वैशाली मध्यदेश का सुन्दर नगर माना जाता था। बुद्ध के समय यह बहुत उन्नत दशा में था । यहाँ अनेक उद्यान, श्राराम, बावड़ी, तालाब तथा पोखरणियाँ थीं । अम्बापाली नाम की गणिका वैशाली की परम शोभा मानी जाती थी । बुद्ध ने यहाँ स्त्रियों को भिक्षुणी बनने का अधिकार दिया था । जैन ग्रन्थों के अनुसार चेटक वैशाली का प्रभावशाली राजा था। उसकी बहन त्रिशला महावीर की माता थी। चेटक काशी-कोशल के अठारह गणराजाश्रों का मुखिया था। राजा कृणिक और चेटक में घोर संग्राम हुआ, जिसमें चेटक पराजित हो गया, और कुणिक ने वैशाली में गधों का हल चलाकर उसे खेत कर डाला। हुअन-सांग के समय वैशाली उजाड़ हो चुकी थी। मुज़फ़्फ़रपुर जिले के वसाढ ग्राम को प्राचीन वैशाली माना जाता है । वैशाली के पास कुण्डपुर नाम का नगर था। यहाँ महावीर का जन्म हुआ था। कुण्डपुर क्षत्रियकुण्डग्राम और ब्राह्मणकुण्डग्राम नामक दो मोहल्लों में बँटा था। पहले मोहल्ले में क्षत्रिय और दूसरे में ब्राह्मण रहते थे । कुण्डपुर (२८) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिहार-नैपाल-उड़ीसा-बंगाल-बरमा में ज्ञातृखएड नाम का सुन्दर उद्यान था, जहाँ महावीर ने दीक्षा ग्रहण की थी। इस उद्यान की गणना ऊर्जयन्त और सिद्धशिला नामक पवित्र क्षेत्रों के माथ की गई है। अाधुनिक बसुकुण्ड को कुण्डपुर माना जाता है । वैशाली का दूसरा महत्त्वपूर्ण स्थान वाणियगाम था । वैशाली और वाणियगाम के बीच गंडकी नदी बहती थी । यहाँ अानन्द यादि अनेक ममृद्ध जैन श्रमणोपासक रहते थे । अाधुनिक बनिया को वाणियगाम माना जाता है। वाणियगाम के उत्तर-पूर्व में कोल्लाग था । यहाँ अानन्द श्रावक के मगेसम्बन्धी रहते थे। दीक्षा के पश्चात् महावीर ने यहाँ प्रथम भिन्ना ग्रहण की थी। बसाढ़ के उत्तर-पश्चिम में वर्तमान कोल्हुअा को कोल्लाग माना जाता है । नालन्दा के समीपवर्ती कोल्लाग से यह भिन्न है । कोल्लाग के पास अहियगाम नाम का गाँव था; इसे वर्धमान भी कहते थे । यहाँ वेगवती (गण्डकी) नाम की नदी बहती थी। शूलपाणि यक्ष का यहाँ बड़ा मन्दिर था। महावीर ने अठियगाम में प्रथम चातुर्मास व्यतीत किया था । वैशाली के पास आमलकप्या नाम का नगर था जहाँ पार्श्वनाथ और महावीर ने विहार किया था । २: नेपाल नेपाल में जैन और बौद्ध श्रमणों ने विहार किया था। अाजकल भी यहाँ वाद्ध धर्म का बहुत प्रचार है। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार, पाटलिपुत्र में दुर्भिक्ष पड़ने पर भद्रबाहू, स्थूलभद्र तथा अन्य अनेक जैन प्राचार्यों ने यहाँ विहार किया था। यहाँ सम्राट अशोक के निर्माण किये हुए प्राचीन स्तूप मिले हैं । नेपाल का राजा अंसुवर्मा लिच्छवि वंश का था । नैपाल की पहचान आधुनिक नेपाल राज्य से की जाती है। यह जनकपुर से १२० मील की दूरी पर है । ( २६ ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत के प्राचीन जैन तीर्थ ३ : उड़ीसा कलिंग देश का नाम अंग और बंग के माथ आता है। वर्तमान उड़ीसा को कलिंग माना जाता है । उड़ीमा को प्रोड या उत्कल नाम से भी कहा जाता था। जातक ग्रन्थों में दन्तपुर, महाभारत में राजपुर, महावस्तु में सिंहपुर और जैन सूत्रों में कांचनपुर को कलिंग की राजधानी बताया है। मानवीं सदी में कलिंगनगर भुवनेश्वर के नाम में प्रसिद्ध हुया, जो याजनक इमी नाम प्रख्यान है। कांचनपुर में जैन श्रमणा ने विहार किया था। यह नगर व्यापार का केन्द्र था, और यहाँ के व्यापारी लङ्का तक जाते थे। याधुनिक भुवनेश्वर को प्राचीन कांचनपुर माना जाता है। ___पुरी ( जगन्नाथपुरी) उड़ीसा की दूसरी मुख्य नगरी थी। यह नगरी जैन और बौद्ध धर्म का केन्द्र थी। यहाँ जीवन्तस्वामी-प्रतिमा थी, और प्राचार्य वज्रस्वामी ने यहाँ विहार किया था । उस समय यहाँ बौद्ध राजा राज्य करता था; जैन और बौद्धों में वैमनस्य रहता था । जैनों की मान्यता के अनुसार पुरी पहले पार्श्वनाथ का नीर्थ था । अाजकल यह तीर्थ विच्छिन्न है । पुरी व्यापार का बड़ा केन्द्र था, और यहाँ जलमार्ग से माल अाता-जाता था । अाजकल यहाँ ग्थयात्रा का बड़ा उत्सव मनाया जाता है। भुवनेश्वर स्टेशन में लगभग चार मील पर उदयगिरि और खण्डगिरि नाम की प्राचीन पहाड़ियाँ हैं, जिन्हें काट-काट कर सुन्दर गुफ़ाएँ बनाई गई हैं। इनमें लगभग सौ जैन गुफ़ाएँ हैं जो मूर्तिकला की दृष्टि से महत्त्व की हैं । ये गुफ़ाएँ ईसवी मन के ५०० वर्ष पूर्व के पहले से लेकर ईसवी सन् ५०० तक की बताई जाती हैं। प्रसिद्ध हस्तिगुफ़ा यहीं पर है जिसमें सम्राट् खारवेल ( ईसवी मन् के १६१ वर्ष पूर्व ) का शिलालेख है । सम्राट् खारवेल जैनधर्म का अनुयायी था, और उसने मगध से जिन-प्रतिमा लाकर यहाँ स्थापित की थी। उदयगिरि का प्राचीन नाम कुमारी पर्वत है; यहाँ मम्राट वारवेल के ( ३० ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिहार-नेपाल-उड़ीसा-बंगाल-बरमा निर्माण किये हुए कई जिन मन्दिर हैं । उदयगिरि और ग्वण्डगिरि अतिशय क्षेत्र माने जाते हैं। तोसलि जैन श्रमणों का केन्द्र था । यहाँ का तोमलिक गजा जिन-प्रतिमा की देखरेख किया करता था । महावीर ने यहाँ विहार किया था, और यहाँ उन्हें अनेक कष्ट सहन करने पड़े थे। तोसलि के निवासी फल-फूल के बहुत शौकीन होते थे। यहाँ नदियों के पानी से खेती होती थी; कभी वर्षा अधिक होने से फ़सल नष्ट हो जाती थी। ऐसे संकट के समय जैन श्रमण ताड़ के फल खाकर निर्वाह करते थे। तोमलि में अनेक तालाब ( तालोदक) थे । यहाँ की भैंसें बहुत मरखनी होती थीं, और वे अपने सींगों से मनुष्यों को मार डालनी थीं। तोतलि प्राचार्य की मृत्यु भैंस के मारने से हुई थी। तोतलि की पहचान कटक ज़िले के धौलि नामक गाँव से की जाती है । शैलपुर तोसलि के अन्तर्गत था । यहाँ ऋषिपाल नामक ब्यंतर का बनाया हुआ ऋषितडाग* नामक एक तालाब था । इस तालाव का उल्लख हाथीगुफ़ा के शिलालेखों में मिलता है । यहाँ लोग बाट दिन तक उत्सव (मंडि) मनाते थे। तोलि के पास हथिसीस नाम का नगर था । व्यापार का यह बड़ा केन्द्र था । महावीर ने यहाँ विहार किया था । ४: बंगाल वंग अथवा बंगाल की गणना भारत के प्राचीन जनपदों में की गई है । अंग और वंग का उल्लेख महाभारत में आता है । प्राचीन काल में वर्तमान बंगाल भिन्न-भिन्न नामों से पुकारा जाता था । पूर्वीय बंगाल को समतट, पश्चिमी की लाढ, उत्तरी को पुण्ड, तथा आसाम को कामरूप कहा जाता था। बंगाल को गौड़ भी कहते थे । जब फ़ाहियान * कलकत्ता विश्वविद्यालय के स्वर्गीय प्रो० डॉ० वेनीमाधव बडुअा ने इम स्थान का पता लगाया है । ( ३१ ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत के प्राचीन जैन तीर्थ और हुअन-मांग यहाँ आये तो यहाँ बौद्ध धर्म फैला हुअा था। गौड़ देश में शम के कपड़े अच्छे बनते थे । जैन सूत्रों के अनुसार वंग देश की गजधानी ताम्रलिप्ति थी। महाभारत में इम नगरी का उल्लेख पाता है । जैन ग्रन्थों के अनुसार यहाँ विद्युच्चर मुनि ने मुक्ति पाई थी। ताम्रलिमि व्यापार का बड़ा केन्द्र था, और यहाँ जल-स्थल मार्ग से व्यापार होता था । यहाँ का कपड़ा बहुत अच्छा होता था । व्यापारी लोग यहाँ से जहाज़ में बैठकर लंका, जावा, चीन आदि देशों को जाते थे । हृयन-मांग के समय यहाँ अनेक बौद्ध मठ विद्यमान थे । रूपनारायण नदी के पश्चिमी किनारे पर स्थित तामलुक का प्राचीन ताम्रलिनि माना जाता है। __ जैन सूत्रों में लाद अथवा राढ देश की गणना माढ़े पचीम आर्य देशों में की गई है । यह देश पहले अनार्य देशों में गिना जाता था, लेकिन मालूम होता है महावीर के विहार के पश्चात् यह आर्य क्षेत्र माना जाने लगा । लाढ के विषय में पहले कहा जा चुका है। यहाँ महावीर ने अनेक कष्ट महे थे । लाट को सुह्म भी कहा गया है। भगवती सूत्र में सुझोत्तर ( संभुत्तर–सुह्म का उत्तरी भाग) की गणना प्राचीन १६ जनपदों में की गई है। लाढ वजभूमि ( वृजियों की भूमि ) और सुब्भभूमि ( मुझ ) नामक दो प्रदेशों में विभक्त था । ___ जैन सूत्रों के अनुसार कोटिवर्ष लाढ देश की राजधानी थी। कोडियरिमिया नामक जैन श्रमणों की शाखा थी। कोटिवर्ष के राजा किरात का उल्लेख जैन सूत्रों में आता है। गुम-कालीन शिलालेखों में इम नगर का उल्लेख मिलता है। ____कोटिवर्ष की पहचान दीनाजपुर जिले के बानगढ़ नामक स्थान से की जाती है। . दढभूमि लाढ देश का एक भाग था । यहाँ अनेक म्लेच्छ बमते थे । दढभूमि की पहचान आधुनिक धालभूम से की जाती है । ( ३२ ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिहार-नैपाल-उड़ीसा-बंगाल-बरमा धन्यकटक में जैनों के १३ वें तीर्थंकर का दीक्षा के बाद पहला पारण हुया था। इसकी पहचान बालासर जिले के कोपारी नामक स्थान से की जाती हैं । पुरिमताल, लोहग्गला राजधानी, उन्नाट और गोभूमि का उल्लेग्य महावीर की विहार-चर्या में आ चुका है। पुरिमताल की सीमा पर सालाटवी नामक चोरों का एक गाँव था । पुरिमताल की पहचान मानभूम के पास पुरुलिया नामक स्थान से की जा सकती हैं । दूसरा पुरिमताल अयोध्या का शाखानगर था । कोई लोग प्रयाग को पुरिमताल कहते हैं । लोहग्गला की पहचान छोटा नागपुर डिवीज़न के उत्तर-पश्चिम में लोहरडग्गा नामक स्थान से की जा सकती है। उन्नाट नगर का उल्लेख महाभारत में मिलता है । गोभूमि में अनेक गायें चरने के लिये आती थीं, इसलिये इस जगह का नाम गोभूमि रक्खा गया । इसकी पहचान आधुनिक गोमोह से की जा सकती है। खब्बड अथवा दासी खब्बड नामक जैन श्रमणों की शाखा का उल्लेख जैन सूत्रों में मिलता है। इमकी पहचान पश्चिमी बंगाल में मिदनापुर जिले के पास खर्वट नामक स्थान से की जाती है। वर्धमानपुर नगर में विजयवर्धमान नामक उद्यान-स्थित मणिभद्र यक्ष के मन्दिर में महावीर भगवान् ठहरे थे । * लोहरडग्गा मुंडा भाषा का शब्द है । 'रोहोर' का अर्थ है 'सूखा' और 'ड' का अर्थ है 'पानी' । इस स्थान पर पानी का एक झरना था जो बाद में सूख गया । इस कारण इस स्थान का नाम 'लोहरडग्गा' पड़ा । देखिए, एम्० मी० रॉय, 'द मुण्डा ऐण्ड देअर कन्ट्री', पृष्ठ १३३. ( ३३ ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत के प्राचीन जैन तीर्थ वर्धमानपुर की पहचान वर्दवान से की जा सकती है । पुण्ड्रवर्धन उत्तरी बंगाल का हिस्मा था। पुण्डवद्धणिया जैन श्रमणों की शाखा थी । यहाँ गायों को खाने के लिए पौंडे दिये जाते थे; यहाँ की गायें मरखनी होती थीं । वरेन्द्र पुण्ड्रवर्धन का प्रमुख नगर था । हुअन सांग ने यहाँ दिगम्बर निर्गन्थों के पाये जाने का उल्लेख किया है। पुण्ड्रवर्धन की पहचान बोगरा जिले के महास्थान नामक प्रदेश से की जाती है । यह उत्तरापथ के पुण्ड्रवर्धन से भिन्न है । खामलिजिया ( या कोमलीया) जैन श्रमणों की शाखा थी। कोमला की पहचान पूर्वीय बङ्गाल में चटगाँव जिले के कोमिल्ला नामक स्थान से की जा सकती है। ५: बरमा सुवर्णभूमि ( वरमा ) में जैन श्रमणों ने विहार किया था । जैन ग्रन्थों से पता लगता है कि प्राचार्य कालक उजयिनी से सुवर्णभूमि जाकर सागरखमण सं मिले । इससे पता लगता है कि जैन श्रमणों का यहाँ प्रवेश हुअा था । मुवर्णभूमि व्यापार का बड़ा केन्द्र था। ( ३४ ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरप्रदेश प्राचीन भारत के मध्यदेश के बहुसंख्यक जनपद आधुनिक उत्तरप्रदेश में आते हैं, इससे मालूम होता है कि प्राचीन काल में यह प्रदेश बहुत समृद्ध और उन्नत दशा में था । कौरव-पाण्डवों का निवास स्थान कुरु देश, रामलक्ष्मण की जन्मभूमि अयोध्या, कृष्ण महाराज के क्रीड़ास्थल मथुरा और वृन्दावन, बुद्धदेव की निर्वाणभूमि कुसीनारा, गणराजाओं के देश काशी और कोशल, मल्लों की राजधानियाँ कुमीनारा और पावा, तथा वाराणसी, प्रयाग, हरिद्वार, मथुरा, कौशांबी और मारनाथ जैसे पवित्र स्थान इमी प्रान्त की शोभा बढ़ाते हैं। १: पूर्वीय उत्तर प्रदेश काशी मध्यदेश का प्राचीन जनपद था । काशी के वस्त्र और चन्दन का उल्लेख बौद्ध जातकों में मिलता है । प्राचीन जैन सूत्रों में काशी और कोशल के अठारह गण राजाओं का ज़िक्र अाता है । काशी को जीतने के लिए कोशल के राजा पसेनदि और मगध के राजा अजातशत्रु में युद्ध हुआ था, जिसमें अजातशत्रु की विजय हुई और काशी को मगध में मिला लिया गया। जैन मान्यता के अनुसार यहाँ के राजा शंख को महावीर ने दीक्षित किया था। काशी व्यापार का बड़ा केन्द्र था । अाजकल की बनारस कमिश्नरी को प्राचीन काशी माना जाता है। वाराणसी ( बनारस ) काशी की राजधानी थी । वरणा और असि नामक दो नदियों के बीच होने के कारण इस नगर का नाम वाराणसी पड़ा । वाराणसी गंगा के किनारे बसी थी। इस स्थान को बुद्ध और महावीर ने ( ३५ ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत के प्राचीन जैन तीर्थ अपने विहार से पवित्र किया था। बौद्ध सूत्रों में वाराणसी की गणना कपिलवस्तु, बुद्धगया और कुसीनारा के साथ की गई है। ब्राह्मण ग्रन्थों में पूर्व में वाराणसी, पश्चिम में प्रभास, उत्तर में केदार और दक्षिण में श्रीपर्वत को परम तीर्थ माना गया है । जैन ग्रन्थों के अनुसार यहाँ भेलुपुर में पार्श्वनाथ और भदैनी में सुपार्श्वनाथ का जन्म हुआ था। जिनप्रभसूरि के कथनानुसार बनारस चार भागों में विभक्त था:-देव वाराणसी, राजधानी वाराणसी, मदन वाराणसी और विजय वाराणसी । यहाँ दन्तखात नाम का प्रसिद्ध तालाब था, तथा मणिकर्णिका घाट यहाँ के पवित्र पाँच घाटों में गिना जाता था । मयंगतीर ( मृतगंगातीर ) नाम का यहाँ दूसरा प्रसिद्ध तालाब ( हृद) था, जिसमें गङ्गा का बहुत-सा पानी इकट्ठा हो जाता था। हुअन-सांग के समय यहाँ अनेक बौद्ध विहार और हिन्दू मन्दिर मौजूद थे। वाराणसी व्यापार और विद्या का केन्द्र था । यहाँ के विद्यार्थी तक्षशिला विद्याध्ययन के लिये जाते थे, तथा यहाँ शास्त्रार्थ हुआ करते थे। बनारस में आजकल भी अनेक मन्दिर, मूर्तियाँ और प्राचीन स्थान मौजूद है । प्राचार्य हेमचन्द्र के समय काशी वाराणसी का ही दूसरा नाम था । इसिपतन बौद्धों का परम तीर्थ माना जाता है । यहाँ बुद्ध भगवान् का प्रथम धर्मोपदेश हुअा था। यहाँ की खुदाई में प्राचीन काल के ध्वंसावशेष उपलब्ध हुए हैं । जैन ग्रंथों में इसे सिंहपुर नाम से कहा गया है। यहाँ शीतलनाथ नामक जैन तीर्थंकर का जन्म हुअा था । सिंहपुर की पहचान वर्तमान सारनाथ ( सारङ्गनाथ ) से की जाती है । यह स्थान बनारस के उत्तर में छह मील की दूरी पर है । यहाँ एक अजायबघर और बौद्ध मन्दिर है। चन्द्रानन चन्द्रप्रभा तीर्थकर का जन्म-स्थान माना जाता है। १७-१८वीं सदी के जैन यात्रियों ने इसका नाम चन्द्रमाधव लिखा है। विविधतीर्थकल्प के अनुसार चन्द्रावती नगरी बनारस से अढ़ाई योजन की दूरी पर थी। चन्द्रानन की पहचान आधुनिक चन्द्रपुरी से की जाती है । यह स्थान गङ्गा के किनारे है और बनारम से लगभग चौदह मील के फासले पर है । ( ३६ ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरप्रदेश पालभिया जैन श्रमणापासको का केन्द्र था । यहाँ महावीर और बुद्ध ने चातुर्मास व्यतीत किया था। गोशाल यहाँ पत्तकालय उद्यान में ठहरे थे । बौद्ध सूत्रों में इसे पालवी कहा गया है । यह स्थान श्रावस्ति और राजगृह के वीच वनारस से बारह योजन दूर था । काशी से सटा हुअा वत्स जनपद था । बौद्ध सूत्रों में इसे वंश कहा गया है। वत्साधिपति उदयन का उल्लेख ब्राह्मण, बौद्ध और जैन ग्रन्थों में मिलता है। प्रयाग के इर्दगिर्द के प्रदेश को वत्स कहते हैं । कौशांवी वत्स की राजधानी थी। कौशांबी का उल्लेख महाभारत और गमायण में आता है। कहते हैं कि हस्तिनापुर के गङ्गा से नष्ट हो जाने पर राजा परीक्षित के उत्तराधिकारियों ने कौशांबी को अपनी राजधानी बनाया । बुद्ध और महावीर ने यहाँ विहार किया था। यहाँ कुक्कुटाराम, घोसिताराम, पावरिक, अम्बवन आदि उद्यानों का उल्लेख बौद्ध सूत्रों में प्राता है, जहाँ भगवान् बुद्ध ठहरा करते थे। कहा जाता है कि एक बार कौशांबी के बौद्ध भिक्षत्रों में बहुत झगड़ा हो गया; बुद्ध ने कौशांबी पहुँच कर भिक्षों को बहुत समझाया, परन्तु कोई फल न हुआ । कौशांवी जैनों का अतिशय क्षेत्र माना जाता है। यहाँ पद्मप्रभ तीर्थकर का जन्म हुआ था। यहीं महावीर की प्रथम शिष्या चन्दनबाला और रानी मृगावती श्रमण धर्म में दीक्षित हुई थीं । कहते हैं कि उज्जैनी के राजा प्रद्योत ने रानी मृगावती को पाने के लिये कौशांबी के राजा शतानीक पर चढ़ाई कर दी। शतानीक की अतिसार से मृत्यु हो गई । बाद में अपने पुत्र उदयन को राजगद्दी पर बैठा कर मृगावती ने महावीर से दीक्षा ले ली। आर्य सुहस्ति और आर्य महागिरि कौशांबी आये थे। बौद्ध ग्रन्थों से पता लगता है कि कौशांबी में बुद्ध भगवान् की रक्तचन्दन-निर्मित सुन्दर प्रतिमा थी, जिसे राजा उदयन ने अपने खास कारीगरों से बनवाया था। सम्राट अशोक ने यहाँ बौद्ध स्तूप निर्माण कराया था। इलाहाबाद से लगभग तीस मील की दूरी पर कोसम गाँव को प्राचीन ( ३७ ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत के प्राचीन जैन तीर्थ कौशांबी माना जाता है। यह नीर्थ विच्छिन्न है । यहाँ सूर्य की बड़ी भव्य सुन्दर मूर्ति है। कौशांबी के पास प्रयाग था । महाभारत में इसका उल्लेख आता है । जैन ग्रन्थों में प्रयाग को तीर्थक्षेत्र माना गया है। यहाँ अगिकापुत्र को गङ्गा पार करते समय केवलज्ञान हुआ था। प्रयाग को दितिप्रयाग भी कहा गया है। पालि माहित्य में इसे पयागपतिद्वान कहा है । प्रयाग अाजकल गङ्गा, जमुना और मरस्वती (गुप्त) के संगम पर अवस्थित है। यह ब्राह्मणों का परम धाम माना जाता है। अक्षयवट यहाँ का परम पवित्र स्थान हैं । प्रयाग में मुण्डन का बड़ा माहात्म्य है । बादशाह अकबर के ममय से इसका नाम इलाहाबाद पड़ा। सुप्रतिष्ठानपुर, प्रतिष्ठानपुर या पोतनपुर प्रयाग की राजधानी थी। यहाँ चन्द्रवंशी राजा राज्य करते थे। यह नगर गङ्गा के किनारे बसा था। आजकल यह स्थान इलाहाबाद जिले में फंसी के पास है । दक्षिण के प्रतिष्ठान से यह भिन्न है। तुङ्गिय संनिवेश कौशांबी के आसपास था। मेतार्य नामक महावीर के गणधर की यह जन्मभूमि थी। प्राचीन काल में कोसल (अवध ) एक समृद्ध जनपद था। जैनों के आदि तीर्थंकर ऋषभदेव ने यहाँ जन्म लिया था, इसलिए वे कौशलिक कहे जाते थे। अचल गणधर का यह जन्मस्थान था, और यहाँ जीवन्तस्वामी प्रतिमा विद्यमान थी। कोशल के राजा पसेनदि का उल्लेख बौद्ध सूत्रों में याता है। ___ साकेत ( अयोध्या ) दक्षिण कोशल की राजधानी थी। ब्राह्मण पुराणों में अयोध्या को मध्यदेश की राजधानी कहा है । यह नगर रामचन्द्र जी की जन्मभूमि थी। रामायण में अयोध्या का वर्णन करते हुए कहा है--"सरयू नदी के किनारे पर अवस्थित यह नगरी धन-धान्य से परिपूर्ण थी, सुन्दर यहाँ ( ३८ ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरप्रदेश मार्ग बने हुए थे, अनेक शिल्पी और देश-विदेश के व्यापारी यहाँ वसते थे । यहाँ के लोग समृद्धिशाली, धर्मात्मा, पराक्रमी और दीर्घायु थे, तथा अनेक उनके पुत्र-पौत्र थे।" जैन परम्परा के अनुसार अयोध्या को श्रादि तीर्थ और आदि नगर माना गया है, और यहाँ के निवासियों को सभ्य और सुसंस्कृत बताया गया है। बुद्ध और महावीर के समय अयोध्या को साकेत कहा जाता था । साकेत के सुभूमिभाग उद्यान में विहार करते हुए महावीर ने जैन श्रमणों के विहार की मीमा नियत की थी। यहीं उन्होंने कोटिवर्ष के राजा चिलात को दीक्षा दी थी। बुद्ध ने भी साकेत में विहार किया था । ___इस नगरी को कोशला, विनीता, इक्ष्वाकुभूमि, रामपुरी, विशाखा आदि नामों से भी पुकारा गया है । अाजकल अयोध्या में ब्राह्मणों के अनेक तीर्थ बने हुए हैं । जिनप्रभ सूरि ने अपने विविधतीर्थकल्प में घग्घर (घाघरा) और मरयू नदी के सङ्गम पर 'स्वर्गद्वार' होने का उल्लेख किया है । रत्नपुरी धर्मनाथ तीर्थंकर की जन्मभूमि मानी जाती है। जिनप्रभ सूरि के ममय यह तीर्थ रत्नवाह नाम से पुकारा जाता था। जैन यात्रियों ने इसका गेइनाई नाम से उल्लेख किया है । आजकल यह स्थान फैज़ाबाद के पास सोहावल स्टेशन से एक मील उत्तर की ओर है। श्रावस्ति ( सहेट-महेट, ज़िला गोंडा) उत्तर कोशल या कुणाल जनपद की राजधानी थी । श्रावस्ति का दूसरा नाम कुणालनगरी था । श्रावस्ति और माकेत के बीच सात योजन (१ योजन=५ मील ) का अन्तर था। श्रावस्ति अचिरावती (राप्ती) नदी के किनारे थी। जैन सूत्रों में कहा गया है कि इस नदी में बहुत कम पानी रहता था; इसके बहुत से प्रदेश सूखे रहते थे, और जैन साधु इस नदी को पार कर भिक्षा के लिये जा सकते थे। बौद्ध सूत्रों से पता लगता है कि इस नदी के किनारे स्नान करने के अनेक स्थान बने हुए थे। नगर की वेश्यायें यहाँ वस्त्र उतार कर स्नान करती थीं। उनकी देखादेखी बौद्ध भिक्षुणियाँ भी स्नान करने लगीं, इस पर बुद्ध ने उन्हें वहाँ स्नान करने में गेका । अचिरावती में बाढ़ आने से लोगों का बहुतं नुक ( ३६ ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत के प्राचीन जैन तीर्थ मान होता था । एक बार तो नगरी के सुप्रसिद्ध धनी अनाथपिंडक का मय माल-खजाना नदी में बह गया था | श्रावस्ति की बाढ़ का उल्लेख आवश्यकचूर्णि में भी मिलता है । जैन अनुश्रुति के अनुमार इस बाढ़ के १३ वर्ष बाद महावीर ने केवलज्ञान प्राप्त किया । __ श्रावस्ति का रामायण और जातकों में उल्लेख आता है । बुद्ध और महावीर के समय यह नगरी बहुत उन्नत दशा में थी। इन महात्माओं ने यहाँ अनेक चातुर्मास व्यतीत किये थे । अनाथपिंडक के निर्माण किये हुए जेतवन में बुद्ध ठहरा करते थे। सूत्र और विनयपिटक के अधिकांश भाग का उन्होंने यहीं प्रवचन किया था । श्रावस्ति बौद्धों का बड़ा केन्द्र था । यहाँ के अनाथपिंडक और मृगारमाता विशाखा बुद्ध के बड़े प्रशंमक और प्रतिष्ठाता थे । आर्य स्कंद और गोशाल ने यहाँ विहार किया था । गोशाल की उपासिका हालाहला कुम्हारी यहीं रहती थी। पार्श्वनाथ के अनुयायी केशीकुमार और महावीर के अनुयायी गौतम गणधर में यहाँ सैद्धांतिक चर्चा हुई थी। महावीर को केवलज्ञान होने के १४ वर्ष पश्चात् यहाँ के कोष्ठक चैत्य में प्रथम निहब की स्थापना हुई। जैन ग्रन्थों के अनुसार श्रावस्ति संभवनाथ की जन्मभूमि थी । अाजकल यह तीर्थ विच्छिन्न है । बौद्र सूत्रों के अनुसार श्रावस्ति के चार दरवाज़े थे, जो उत्तरद्वार, पूर्वद्वार, दक्षिणद्वार और केवट्टद्वार के नाम से पुकारे जाते थे । विविधतीर्थकल्प में श्रावस्ति में एक मन्दिर और रक्त अशोक वृक्ष के होने का उल्लेख है । श्रावस्ति महेटि नाम से भी कहो जाती थी। __ जिनप्रभ सूरि के अनुसार यहाँ समुद्रवंशीय राजा राज्य करते थे। ये बुद्ध के परम उपासक थे, और बुद्ध के सन्मान में वरघोड़ा निकालते थे। श्रावस्ति में अनेक प्रकार का चावल पैदा होता था । आजकल श्रावस्ति चारों ओर से जंगल से घिरी हुई है। यहाँ बुद्ध की एक विशाल मूर्ति है जिसके दर्शन के लिये बौद्ध लोग बरमा आदि सुदूर देशों से आते हैं। यह स्थान बलरामपुर से मान कोस की दूरी पर है और एक मील तक फैला हुआ है। श्रावस्ति से पूर्व की ओर केकय जनपद था, जो उत्तर के केकय से भिन्न है । जैन सूत्रों में केकय के आधे भाग को आर्यक्षेत्र माना गया है, इससे पता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरप्रदेश चलता है कि इसके थोड़े से भाग में ही जैनधर्म का प्रसार हुआ था; मम्भवतः अवशिष्ट भाग में जङ्गली जातियाँ बसती हों। केकय देश श्रावस्ति के उत्तर-पूर्व में नेपाल की तराई में अवस्थित था । सेयविया (श्वेतिका) केकय की राजधानी थी। बौद्ध सूत्रों में इसका नाम सेतव्या बताया गया है। यह नगरी कोशल देश में थी। जैन परम्परा के अनुमार यहाँ महावीर के केवलज्ञान होने के २१४ वर्ष बाद नीमरे निह्नव की स्थापना हुई। बुद्ध की जन्मभूमि होने के कारण कपिलवस्तु को बौद्ध ग्रन्थों में महानगर बताया गया है । शाक्यों की यह राजधानी थी। इसके पास रोहिणी नदी बहती थी, जो शाक्य और कोलियों के बीच की मीमा थी। चीनी यात्री फाहियान के समय यह नगर उजाड़ पड़ा था। कपिलवस्तु की पहचान नैपाल की तराई में रुम्मिनदेई नामक स्थान से की जाती है । यह स्थान घने जङ्गलों से आच्छादित है । कुसीनारा बुद्ध की परिनिर्वाण भूमि होने से पवित्र स्थान माना जाता है । यह नगरी मल्लों की राजधानी थी; इसका पुराना नाम कुसावती था । सम्राट अशोक ने यहाँ अनेक स्तूप और विहार बनवाये थे । हुअन-सांग ने इस तीर्थ के दर्शन किये थे। कुसीनारा की पहचान गोरखपुर जिले के कसया नामक ग्राम से की जाती है। कुमीनारा के पास पावा नगरी थी । यह मल्लों को राजधानी थी। कुसीनारा और पावा के बीच ककुत्था नदी बहती थी। पावा की पहचान गोरखपुर जिले के पड़रौना नामक स्थान से की जाती है। गोरखपुर जिले में दूसरा स्थान खुखुन्दो है । इसका प्राचीन नाम किष्किन्धापुर बताया जाता है । जैन यात्री यहाँ यात्रा करने आते हैं । यहाँ पार्श्वनाथ की मूर्ति को लोग नाथ कह कर उसकी पूजा करते हैं । यह स्थान गोरखपुर के पूर्व में लगभग २५ कोस पर है। ( ४१ ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत के प्राचीन जैन तीर्थ २: पश्चिमी उत्तरप्रदेश प्राचीन काल में पांचाल (रुहेलखण्ड ) एक समृद्धिशाली जनपद था । महाभारत में इसका अनेक जगह उल्लेख आता है। पांचाल में जन्म होने के कारण द्रौपदी पांचाली कही जाती थी। बदायूँ, फ़र्रुखाबाद और उसके इर्दगिर्द के प्रदेश को पांचाल माना जाता है। ____ भागीरथी नदी के कारण पांचाल देश दो भागों में विभक्त था, एक दक्षिण पांचाल दूसरा उत्तर पांचाल | महाभारत के अनुसार दक्षिण पांचाल की राजधानी कांपिल्य और उत्तर पांचाल की राजधानी अहिच्छत्रा थी। कांपिल्यपुर अथवा कम्पिलनगर गङ्गा के तट पर बसा था। यहाँ बड़ी धूमधाम से द्रौपदी का स्वयंवर रचा गचा था। जैनों के १३वें तीर्थकर विमलनाथ की यह जन्मभूमि थी । यहाँ महावीर के श्रावक रहते थे, और यहाँ इन्द्र महोत्सव मनाया जाता था। कांपिल्यपुर की पहचान फ़र्रुखाबाद जिले के कंपिल नामक स्थान से की जाती है। यहाँ बहुत-सी खंडित प्रतिमाएँ मिली हैं । यहाँ कई जैन मन्दिर है. और मूर्तियों पर लेख खुदे हैं । दक्षिण पांचाल की दूसरी राजधानी माकंदी थी। यह नगरी व्यापार का केन्द्र था। हरिभद्र सूरि की समराइच्चकहा में इस नगरी का वर्णन अाता है । अहिच्छत्रा या अहिक्षेत्र उत्तर पांचाल की राजधानी थी। जैन सूत्रों में इसे जांगल अथवा कुरु जांगल की राजधानी बताया गया है । यह नगरी शंखवती, प्रत्यग्ररथ और शिवपुर नाम से भी पुकारी जाती थी। इसकी गणना अष्टापद, ऊर्जयन्त, गजाग्रपदगिरि, धर्मचक्र और रथावर्त नामक पवित्र तीथों के माथ की गई है। जैन मान्यता के अनुसार यहाँ धरणेन्द्र ने अपने फण से पार्श्वनाथ की रक्षा की थी। लेकिन आजकल यह तीर्थ विच्छिन्न है । हुअन-सांग के समय यहाँ नगर के बाहर नागह्रद था, जहाँ बुद्ध भगवान् ने सात दिन तक नागराज को उपदेश दिया था। इस स्थान पर सम्राट अशोक ने स्तूप बनवाया था । जिनप्रभ सूरि के विविधतीर्थकल्प में कहा गया है कि यहाँ ईटों का किला ( ४२ ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरप्रदेश ग्रौर मीठे पानी के सात कंड थे जिनमें स्नान करने से स्त्रियाँ पत्रवती होती थीं। नगरी के बाहर और भीतर अनेक कुएँ, बावड़ी आदि बने थे जिनमें नहाने से कोढ़ आदि रोग शान्त हो जाते थे। यहाँ अनेक औषधियाँ मिलती थीं, तथा बहुत से तीर्थस्थान थे। अहिच्छत्रा की पहचान बरेली जिले में रामनगर नामक स्थान से की जाती है । यहाँ बहुत से पुराने मिक्के और मूर्तियाँ उपलब्ध हुई हैं, तथा प्राचीन खंडहर पड़े हुए हैं। दक्षिण पांचाल में पूर्व की ओर कान्यकुब्ज नाम का समृद्ध नगर था। यह इन्द्रपुर, गाधिपुर, महोदय और कुशस्थल नामों से भी पुकारा जाता था । कान्यकुब्ज सातवीं सदी से लेकर १०वीं सदी तक उत्तर भारत के साम्राज्य का केन्द्र और समूचे भारत का मुख्य नगर था। चीनी यात्री हुअन-सांग के यागमन के समय यहाँ राजा हर्षवर्धन का राज्य था। उस समय यह नगर शूरसेन में शामिल था। ___ कान्यकुब्ज की पहचान यमुना के पश्चिमी किनारे पर स्थित कन्नौज से की जाती है। जैन सूत्रों में अंतरंजिया नगरी का उल्लेख आता है। अंतरंजिया जैन श्रमणों की शाखा थी, इससे पता लगता है कि यह स्थान जैनों का केन्द्र था । गेहगुप्त प्राचार्य ने यहाँ छठे निह्नव की स्थापना की थी। श्राइने अकवरी में इसे कन्नौज का परगना बताया गया है । __ अंतरंजिया की पहचान एटा जिले के अंतरंजिया नामक खेड़े से की जाती है । यह स्थान काली नदी पर है । संकिस्स अथवा संकिस बौद्धों का तीर्थ स्थान है। यहाँ अशोक ने स्तम्भ बनवाया था। फ़ाहियान और हुअन-सांग यहाँ आये थे। जैन कवि धनपाल की यह जन्मभूमि थी। यह स्थान आजकल इसी नाम से प्रसिद्ध है और काली नदी पर बसा है । यहाँ बहुत से सिक्के और ध्वंसावशेष मिले हैं । कुशात की गणना जैनों के माढ़े पच्चीस आर्य देशों में की गई है । जैन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत के प्राचीन जैन तीर्थ ग्रन्थों में कहा गया है कि राजा शौरि ने अपने लघु भ्राता सुवीर को मथुरा का राज्य सौंपकर कुशार्त देश में जाकर शौरिपुर नगर बमाया । पश्चिम के कुशान नगर से यह भिन्न है। शौरिपुर या सूर्यपुर कुशात की राजधानी थी। जैन परम्परा के अनुसार यह नगर कृष्ण और उनके चचेरे भाई नेमिनाथ की जन्मभूमि थी। शौरिपुर यमुना के किनारे बसा था । इसकी पहचान अागरा जिले के सूर्यपर नामक स्थान से की जाती है । यह स्थान यमुना के दाहिने किनारे बटेमर के पास है । श्वेताम्बर आचार्य हीरविजय सूरि के आगमन के समय इस तीर्थ का जीर्णोद्धार किया गया था । बटेसर में बहुत-से शिव-मन्दिर बने हैं और यहाँ कार्तिक महीने में बड़ा मेला लगता है जिसमें बहुत से घोड़े, ऊँट आदि बिकने आते हैं। प्राचीन ग्रन्थों में शूरसेन का उल्लेख आता है । ब्राह्मण ग्रन्थों के अनुसार इसे राम के छोटे भाई शत्रुघ्न ने बसाया था। यहाँ की भापा शौरसेनी कही जाती थी । मथुरा के ग्रामपास का प्रदेश शूरसेन कहा जाता है । शूरसेन की राजधानी मथुरा थी । उत्तरापथ का यह महत्त्वपूर्ण नगर था । महाभारत के अनुसार मथुरा यादवों की भूमि थी। कंसवध के पश्चात् जरासंध के भय से यादव लोग मथुरा छोड़कर पश्चिम की ओर चले गये और वहाँ उन्होंने द्वारका नगरी बसाई । बृहत्कल्पभाष्य में कहा गया है कि मधुरा के अन्तर्गत ६६ गाँवों के रहने वाले लोग अपने घरों और चौराहों पर जिन भगवान् की प्रतिमा स्थापित करते थे । यहाँ एक सोने का स्तूप था, जिस पर जैन और बौद्धों में झगड़ा हुआ था। कहते हैं कि अन्त में इस स्तूप पर जैनों का अधिकार हो गया। रविपेण के बृहत्कथाकोश तथा सोमदेव सूरि के यशस्तिलक चम्पू में इसे देवनिर्मित स्तूप कहा गया है। राजमल्ल के जम्बूस्वामी चरित में मथुरा में ५०० स्तूपों का उल्लेख है, जिनका उद्धार अकबर बादशाह के समकालीन साहू टोडर द्वारा किया गया था। मथुरा का प्राचीन स्तूप आजकल कंकाली टीले के रूप में मौजूद है, जिसकी खुदाई से पुरातत्त्व संबंधी अनेक महत्त्वपूर्ण बातों का पता लगा है। ( ४४ ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरप्रदेश मथुरा में अन्तिम केवली जम्बूस्वामी का निर्वाण हुअा था, अतएव इसकी गणना सिद्धक्षेत्रों में की गई है। ईसवी सन् की चौथी शताब्दि में जैन यागमां की संकलना के लिए यहाँ जैन श्रमणों का मम्मेलन हुआ था। आर्यमंग और आर्यरक्षित ने इस नगरी में विहार किया था। बौद्ध ग्रन्थों में मथुरा में पाँच दोष बताये गये हैं :-भूमि की विषमता, धूल का आधिक्य, कुत्तों का उपद्रव, यक्षों का उपद्रव और भिक्षा की दुर्लभता । कहते हैं कि एक बार बुद्ध भगवान् नगर में प्रवेश करना चाहते थे, परन्तु यक्षिणी के उपद्रव के कारण वापिस लौट गये । लेकिन मालूम होता है कि फाहियान और हुअन-सांग के समय मथुरा में बौद्ध धर्म का ज़ोर था, और उस समय यहाँ अनेक संघाराम और स्तूप बने हुए थे, तथा यहाँ का राजा और उसके मन्त्री बौद्ध धर्म के अनुयायी थे। प्राचीन काल से ही मथुरा अनेक साधु-सन्तों का केन्द्र रहा है, इसलिय इसे पाखंडिगर्भ कहा गया है। मथुरा मंडीर ( वट वृक्ष) यक्ष की यात्रा के लिए प्रसिद्ध था । इस यात्रा में अनेक नर-नारी सम्मलित होते थे। विविधतीर्थकल्प में मथुरा में १२ वनों का उल्लेख आता है । मथुरा व्यापार का बड़ा केन्द्र था; यहाँ कपड़ा बहुत अच्छा बनता था । यहाँ के लोग खेती-बारी नहीं करते थे, उनकी आजीविका का मुख्य साधन व्यापार था । राजा कनिष्क के समय मथुरा से श्रावस्ति, बनारस आदि नगरों को मूर्तियाँ भेजी जाती थीं। मथुरा आजकल वैष्णवों का परम धाम माना जाता है । यहीं पास में वृन्दावन है । मथुरा के आसपास चौरासी कोस का घेरा ब्रजमंडल कहा जाता है। मथुरा की पहचान मथुरा से दक्षिण-पश्चिम में महोलि नामक ग्राम से की जाती है। मथुरा में चौरासी नामक स्थान पर दिगम्बर जैन मन्दिर बना हुअा है। मथुरा से ऊपर की ओर अच्छा जनपद था। इसकी राजधानी का नाम वरणा था। वारण गण और उच्चानागरी शाखा का उल्लेख कल्पसूत्र में आता है, इससे मालूम होता है, यह प्रदेश जैन श्रमणों का केन्द्र था। वरणा की पहचान बुलन्दशहर से की जाती है जो उच्चानगर का ही Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत के प्राचीन जैन तीर्थ भाषांतर है । आजकल भी यह वारन नाम से प्रसिद्ध है । यहाँ प्राचीन सिक्के उपलब्ध हुए हैं। कुरु या कुरुजांगल का महाभारत में अनेक जगह उल्लेख पाता है । यहाँ के लोग बहुत बुद्धिमान् और स्वस्थ माने जाते थे। भगवान बुद्ध का उपदेश सुनकर यहाँ बहुत-से लोग उनके अनुयायी बने थे । कुरुक्षेत्र या स्थानेश्वर के इर्दगिर्द के प्रदेश को कुरुदेश माना जाता है | जातक ग्रन्थों के अनुसार कुरुदेश की राजधानी इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) थी, और यह यमुना के किनारे बसी हुई थी । राजा युधिष्ठिर की यह मुख्य नगरी थी। ___ जैन सूत्रों के अनुसार कुरु की राजधानी हस्तिनापुर थी। हस्तिनापुर का दूसरा नाम नागपुर था । वसुदेवहिण्डी में इसे ब्रह्मस्थल नाम से कहा गया है । यह स्थान जैन तीर्थकर, चक्रवर्ती तथा पांडवों की जन्मभूमि माना जाता है । इस नगर की गणना अतिशय क्षेत्रों में की गई है । हस्तिनापुर में महावीर द्वारा शिवराजा को दीक्षा दिये जाने का उल्लेख जैन सूत्रों में मिलता है । आजकल यह नगर उजाड़ पड़ा है। जङ्गल में जैन नशियाँ बनी हुई हैं, जहाँ तीर्थकरों की चरण-पादुकाएँ हैं । यह स्थान मेरठ जिले में मवाने के पास इसी नाम से प्रसिद्ध है । अाजकल यहाँ खुदाई चल रही है । इसके अासपास खादर है, सरकार इसे खेती करने योग्य बनाने का उद्योग कर रही है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ w पंजाब-सिन्ध-काठियावाड़-गुजरातराजपूताना-मालवा-बुन्देलखंड १ : पंजाब-सिन्ध मालूम होता है कि निर्दोष खान-पान की सुविधा न होने के कारण पंजाब और सिन्ध में जैनधर्म का इतना प्रचार नहीं हो सका जितना अन्य प्रदेशों में हुआ । सिन्धु देश के विषय में छेदसूत्रों में कहा है कि यदि दुष्काल. विरुद्ध राज्यातिक्रम या अन्य किसी अपरिहार्य आपत्ति के कारण वहाँ जाना पड़े तो यथाशीघ्र वहाँ से लौट आना चाहिये । क्योंकि वहाँ भक्ष्याभक्ष्य का विचार नहीं, लोग मांस और मद्य का सेवन करते हैं, तथा पाखण्डी साधु और साध्वी वहाँ निवास करते हैं। __ प्राचीन जैन ग्रन्थों में गंधार का उल्लेख अाता है । बौद्ध सूत्रों में गंधार को उत्तरापथ का प्रथम जनपद बताया गया है। तक्षशिला और पुष्करावती गंधार देश की क्रम से पूर्वी और पश्चिमी राजधानियाँ थीं । जातक ग्रन्थों के अनुसार तक्षशिला समूचे भारत का विद्याकेन्द्र था, और यहाँ लाट, कुरु, मगध, शिवि आदि दूर-दूर देशों के विद्यार्थी पड़ने अाते थे। प्रसिद्ध वैयाकरणी पाणिनी और प्रख्यात वैद्यराज जीवक ने यहीं विद्याभ्यास किया था। जैन ग्रन्थों में तक्षशिला को बहली देश की राजधानी बताया गया है । जैन परम्परा के अनुसार, ऋषभदेव ने अयोध्या का राज्य भरत को और बहली का राज्य वाहुबलि को सौंपकर दीक्षा ग्रहण की थी। बाद में चलकर भरत और बाहुबलि दोनों में युद्ध हुआ और बाहुबलि ने भी दीक्षा ग्रहण कर ली। ( ४७ ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत के प्राचीन जैन तीर्थ तक्षशिला का दूसरा नाम धर्मचक्रभूमिका था। यह नगरी बहुत समृद्ध थी, तथा यहाँ राजा अशोक अपने पुत्र कुणाल के साथ रहता था । तक्षशिला की खुदाई में अनेक मिक्के, ताम्रपत्र तथा स्तूपों और विहारों के ध्वंसावशेष उपलब्ध हुए हैं। तक्षशिला की पहचान पाकिस्तान में गवलपिंडी ज़िले के शाहजी की ढेरी नामक स्थान से की जाती है । माकेत के पश्चिम में थूणा ( स्थाणुतीर्थ ) जैन श्रमणों के विहार की सीमा थी । इम नगर का संबंध पाण्डवों के इतिहास से है । हुअन-मांग के समय यहाँ अनेक बौद्ध स्तूप बने हुए थे । स्थानेश्वर की पहचान सरस्वती और घाघरा के बीच कुरुक्षेत्र से की जानी है । मल्लों के थूणा से यह भिन्न है । रोहीतक का उल्लेख महाभारत और दिव्यावदान में आता है । प्राचीन ममय में गेहीतक समृद्धिशाली नगर था । इमकी पहचान अाधुनिक रोहतक से की जाती है । अभय देव के अनुसार मौवीर (मिन्ध ) सिन्धु नदी के पास होने के कारण सिन्धु-सौवीर कहा जाता था, यद्यपि बौद्ध ग्रन्थों में सिन्धु और सौवीर को अलग-अलग प्रदेश मानकर रोरुक को मौवीर की राजधानी बताया है । सिन्धु देश की नदियों में बाढ़ बहुत आती थी । दिगम्बर परम्परा के अनुसार रामिल्ल, न्थूलभद्र और भद्राचार्य ने उजयिनी में दुष्काल पड़ने पर मिंधु देश में विहार किया था। जैन ग्रन्थों में सिन्धु-सौवीर की राजधानी का नाम वीतिभय पट्टन बताया गया है । इम नगर का दूसरा नाम कुंभारप्रक्षेप था । कहते हैं कि एक बार महर्षि उदयन किसी कुम्हार के घर ठहरे हुए थे। वहाँ उनके भानजे ने उन्हें विष दे दिया जिससे उनकी मृत्यु हो गई। इस पर देवताओं ने कुम्हार के घर को छोड़कर नगर में सर्वत्र धूल की घोर वर्षा की, अतएव इस नगर का नाम कुंभारप्रक्षेप पड़ा । महावीर द्वारा उदयन को दीक्षा दिये जाने का उल्लेख जैन ग्रन्थों में आता है । इस नगर में महावीर की चन्दन-निर्मित प्रतिमा थी, (४८ ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंजाब-सिन्ध-काठियावाड़-गुजरात-राजपूताना-मालवा-बुन्देलखंड जिसके दर्शन के लिये लोग दूर-दूर से प्राते थे। फाहियान के समय यहाँ बौद्ध धर्म का प्रचार था। वीतिभयपट्टन सिणवल्लि के अन्तर्गत था । सिणवल्लि एक बड़ा विकट रेगिस्तान था, जहाँ शुधा-तृपा से पीड़ित यात्री लोगों को अक्सर प्राणों से हाथ धोना पड़ता था । संभवतः पाकिस्तान में मुज़फ्फरगढ़ जिले के मनावन या सिनावन के आसपास का प्रदेश मिणवल्लि कहा जाता हो । वीतिभय की पहचान पाकिस्तान में शाहपुर ज़िले के भेरा नामक स्थान से की जा सकती है । इसका पुराना नाम भद्रवती बताया जाता है । यहाँ विन्झि नामक गाँव के पास बहुत से खंडहर पाये गये हैं, जिनसे पता लगता है कि प्राचीन काल में यह स्थान बहुत उन्नत दशा में था । २: काठियावाड़ मालूम होता है कि गुजरात और काठियावाड़ में शनैः-शनैः जैन धर्म का प्रसार हुअा । जैन ग्रन्थों में सौराष्ट्र (काठियावाड़) का उल्लेख महाराष्ट्र, द्रविड़, आन्ध्र और कुडुक्क (कुर्ग) देशों के साथ किया गया है, जहाँ परम धार्मिक सम्प्रति राजा ने अपने भटों को भेजकर जैन धर्म का प्रचार किया । आगे चलकर राजा कुमारपाल के समय गुजरात में जैनधर्म काफ़ी फूला फला। सौराष्ट्र की गणना जैनों के साढ़े पच्चीस आर्य देशों में की गई है । जैन ग्रन्थों के अनुसार यहाँ कालकाचार्य ईरान के ६६ शाहों को लेकर आये थे। सौराष्ट्र व्यापार का बड़ा केन्द्र था । द्वारवती सौराष्ट्र की मुख्य नगरी थी। इसका दूसरा नाम कुशस्थली था । द्वारका का वर्णन जैन सूत्रों में आता है । पहले कहा जा चुका है कि जरासंध के भय से यादव लोग मथुरा छोड़कर यहाँ अा बसे थे। जैन ग्रन्थों में द्वारका को बानर्त, कुशार्त, सौराष्ट्र और शुष्कराष्ट्र की राजधानी कहा है। द्वीपायन ऋषि द्वारा द्वारका के विनाश होने का उल्लेख ब्राह्मण और जैन ग्रन्थों में मिलता है । यहाँ कादंबरी नाम की एक गुफ़ा थी । उत्तर की द्वारका से यह भिन्न है। कुछ लोग जूनागढ़ को ही प्राचीन द्वारका मानते हैं । अाजकल यह स्थान वैष्णवों का परम धाम माना जाता है । ( ४६ ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत के प्राचीन जैन तीर्थ द्वारका* के उत्तर-पूर्व में रैवतक पर्वत था। इसका दूसरा नाम ऊर्जयन्त था। यहाँ नन्दनवन नाम का वम था, जिसमें सुरप्रिय यक्ष का सुन्दर मंदिर था । यह पर्वत अनेक पक्षी, लताओं यादि से शोभित था। यहाँ पानी के झरने थे, और लाग प्रतिवर्ष उत्सव ( सखडि ) मनाने के लिए एकत्रित होते थे। रैवतक पर्वत पर भगवान् अरिष्टनेमि ने मुक्तिलाभ किया; इसकी गणना सिद्धक्षेत्रों में की जाती है। यहाँ गुजरात के प्रसिद्ध जैन मन्त्री तेजपाल के बनवाए हुए अनेक मन्दिर हैं । राजीमती ( राजुल ) ने यहाँ तप किया था, उसकी यहाँ गुफ़ा बनी हुई है । दिगम्बर परम्परा के अनुसार, यहाँ चन्द्रगुफा में प्राचार्य धरसेन ने तप किया था, और यहीं पर भूनबलि और पुष्पदन्त प्राचार्यों को अवशिष्ट श्रुतज्ञान को लिपिबद्ध करने का आदेश किया गया था । वैभार पर्वत के समान रैवतक भी क्रीडा का स्थल था । रैवतक के इर्द-गिर्द का प्रदेश गिरिनगर या गिरिनार के नाम से पकारा जाता था । रैवतक की पहचान जूनागढ़ के पास गिरनार से की जाती है । प्रभास क्षेत्र को महाभारत में सर्वप्रधान तीर्थों में गिना है । इसे चन्द्रप्रभास, देवपाटन अथवा देवपट्टन भी कहते हैं । ब्राह्मणों का यह पवित्र धाम माना जाता है । चन्द्रग्रहण के समय यहाँ अनेक यात्री पाते हैं । अावश्यक चूर्णि में प्रभास को जैन तीर्थ माना गया है । प्रभास की पहचान अाधुनिक मोमनाथ से की जाती है । शत्रुजय जैन तीर्थों में ग्रादितीर्थ माना जाता है । इसका दूसरा नाम पुण्डरीक है । जैन मान्यता के अनुसार यहाँ पञ्च पांडव तथा अन्य अनेक ऋषि-मुनियों ने मुक्तिलाभ किया । राजा कुमारपाल के राज्य में लाखों रुपये लगाकर यहाँ के मन्दिरों का जीर्णोद्धार किया गया था । यहाँ पर छोटे-मोटे हज़ारों मन्दिर बने हुए हैं । इन मन्दिरों में कुछ ग्यारहवीं शताब्दि के हैं, बाकी ईसवी सन् १५०० के बाद के बने हुए हैं । ** पटना के दीवान बहादुर राधाकृष्ण जालान के संग्रह में एक जैन स्तूप सुरक्षित है जो मंगमरमर का बना है और द्वारका से लाया गया है । ( ५० ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंजाब-सिन्ध-काठियावाड़-गुजरात-राजपूताना-मालवा-बुन्देलखंड यह स्थान काठियावाड़ में पालिताना स्टेशन से दो मील के फ़ामले पर है । यहाँ जैन यात्रियों के ठहरने के लिए ग्रालीशान धर्मशालाएँ बनी वलभी प्राचीन काल में मौराष्ट्र की राजधानी थी। ईमवी मन की छटी शताब्दि में यहाँ देवधिगणि क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में जैन श्रागमों की ---सङ्कलना के लिये अंतिम सम्मेलन हुअा था । देवधिगणि की यहाँ मूर्ति स्थापित है । हुअन-सांग के समय यहाँ अनेक बौद्ध विहार मौजूद थे। नालन्दा के समान वलभी भी बौद्ध विद्या का केन्द्र था। यहाँ अनेक प्राचीन सिक्के और ताम्रपत्र उपलब्ध हुए हैं। वलभी की पहचान भावनगर से उत्तर-पूर्व में १८ मील पर वला नामक स्थान से की जाती है । हत्थक प्य नगर का उल्लेख जैन सूत्रों में आता है । पञ्च पांडवों का यहाँ आगमन हुआ था। पांडवचरित के अनुसार, यह नगर रैवतक पर्वत से बारह योजन की दूरी पर था । शिलालेखों में हस्तकवप्र का उल्लेख आता है। इस नगर की पहचान भावनगर रियासत के हाथव नामक स्थान से की जाती है। महवा बन्दर भावनगर रियासत में है । इसका दूमरा नाम मधुमती था । पार्श्वनाथ का यह अतिशय क्षेत्र माना जाता है। ३: गुजरात जैन और बौद्ध ग्रन्थों में लाट देश का उल्लेख पाता है, यद्यपि इसकी गणना पृथक रूप से प्रार्य देशों में नहीं की गई । वर्षाऋतु में यहाँ गिरियज्ञ नामक उत्सव, तथा श्रावण सुदी पूर्णिमा के दिन इन्द्र का उत्सव मनाया जाता था। इस देश में वर्षा से खेती होती थी, और यहाँ ग्वारे पानी के कुँए थे । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत के प्राचीन जैन तीर्थ भृगुकच्छ लाट की राजधानी थी। यह नगर भृगुपुर नाम से भी प्रसिद्ध था । बौद्ध जातकों में भृगुकच्छ का उल्लेख पाता है । यहाँ कुण्डलमेण्ट नामक व्यंतर देव की स्मृति में उत्सव मनाया जाता था। भूततडाग नाम का यहाँ बड़ा तालाब था। प्राचार्य वज्रभूति ने भृगुकच्छ में विहार किया था । भृगुकच्छ और उज्जैनी के बीच पच्चीस योजन का अन्तर था । भृगकच्छ व्यापार का बड़ा केन्द्र था। यहाँ जल और स्थल दोनों मागों से व्यापार होता था । ईसवी सन् की प्रथम शताब्दि में यहाँ काबुल से माल अाता था। भृगुकच्छ की पहचान अाधुनिक भडौंच से की जाती है । अाजकल यह मुनिसुव्रतनाथ का तीर्थ माना जाता है। अश्वावबोध नामक तीर्थ यहाँ से लगभग छह कोम है। अानन्दपुर का पुराना नाम यानर्तपुर है । इसे नगर भी कहा जाता था। राजा ध्रुवसेन द्वितीय की यह राजधानी थी। जैन परम्परा के अनुमार यहाँ सर्वप्रथम कल्पसूत्र की याचना हुई थी। आनन्दपुर ब्राह्मणों का केन्द्र था । जैन श्रमण यहाँ से मथुरा के लिए विहार करते थे। आनन्दपुर व्यापार का बड़ा केन्द्र था । यहाँ स्थल मार्ग से माल याताजाता था। यहाँ के निवासी सरस्वती नदी के किनारे उत्सव मनाते थे। अानन्दपुर की पहचान उत्तर गुजरात के बड़नगर स्थान से की जाती है । मोढेरगा का उल्लेख सूत्रकृतांग चूर्णि में आता है। यहाँ सिद्धसेन प्राचार्य ने विहार किया था। प्राचीन शिलालेखों में इस नगरी का नाम श्राता है । मोढ वणिकों की उत्पत्ति का यह स्थान है। हेमचन्द्राचार्य मोढ़ जाति में ही उत्पन्न हुए थे। यह स्थान पाटन से लगभग १८ मील की दूरी पर है । यहाँ सूर्य का मन्दिर है। तारङ्गागिरि से वरांग, सागरदत्त, वरदत्त आदि साढ़े तीन करोड़ मुनियों के मोक्ष जाने का उल्लेख जैन ग्रन्थों में आता है । यहाँ सिद्धशिला नाम की पहाड़ी है। पहाड़ के ऊपर प्राचार्य हेमचन्द्र के उपदेश से मम्राट कुमारपाल ( ५२ ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंजाब-सिन्ध-काठियावाड़-गुजरात-राजपूताना-मालवा-बुन्देलखंड द्वारा प्रतिष्ठित विशाल मन्दिर है जिसके निर्माण में लाखों रुपये लगे थे । प्रभावकचरित में इम तीर्थ की उत्पत्ति दी हुई है। म्हैसाणा से तारंगा हिल को रेल जाती है । तारंगा हिल स्टेशन से तीनचार मील के फ़ामले पर है । पावागिरि सिद्धक्षेत्रों में गिना जाता है । यहाँ से रामचन्द्र जी के पुत्र लव और कुश आदि पाँच करोड़ मुनियों के मोक्ष जाने का उल्लेग्व मिलता है । यह तीर्थ शत्रुजय की जोड़ का माना जाता है । पावकगढ़ का उल्लेख शिलालेखों में पाया जाता है। यह स्थान तोमरवंशी राजाओं के अधिकार में था । यहाँ लाखों रुपये की लागत के दिगम्बर जैन मन्दिर बने हुए हैं । पहले यह तीर्थ श्वेताम्बरों का था। यहाँ सुप्रसिद्ध मन्त्री तेजपाल ने मर्वतोभद्र नाम का विशाल मन्दिर बनवाया था। मात्र सुदी १३ से यहाँ तीन दिन तक मेला भरता है। यह स्थान बड़ौदा से अटाईस मील के फासले पर चाँपानेर के पास है । स्तंभन तीर्थ की कथा सोमधर्मगणि की उपदेशसप्ततिका में आती है । चिन्तामणि पार्श्वनाथ का यहाँ प्रसिद्ध मन्दिर है। यहाँ अभयदेव सूरि ने विहार किया था। स्तंभन तीर्थ की पहचान अाधुनिक खंभात से की जाती है । ४: राजपूताना राजपूताने को मरुभूमि कहा जाता था । यहाँ शनैः-शनैः जैन धर्म का प्रसार हुअा। मत्स्य देश का उल्लेख महाभारत में आता है। इस देश की गणना जैनों के साढ़े पच्चीम आर्य देशों में की गई है। मत्स्य देश की पहचान अाधुनिक अलवर रियासत से की जाती है । वैराट या विराटनगर मत्स्य की राजधानी थी। बनवास के ममय यहाँ पांडवों ने गुम वाम किया था । यहाँ अशोक के शिलालेख पाये गये हैं । चीनी ( ५३ ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत के प्राचीन जैन तीर्थ यात्री हुअन-सांग यहाँ पाया था। वैराट में बौद्ध मठों के ध्वंसावशेष उपलब्ध यहाँ के लोग वीरता के लिए प्रमिद्ध थे। पाइने-अकवर्ग में बैगट का उल्लेख आता है । अकबर बादशाह ने इस नगर को फिर से बमाया था । यहाँ ताँबे की बहुत मी खाने थीं। वैराट की पहचान जयपुर रियामत के वैगट नामक स्थान से की जाती है । राजपूताने का दूसरा प्राचीन स्थान पुष्कर था । अावश्यक चूर्णि में इसको तीर्थक्षेत्र बताया है । उजयिनी के राजा चंडप्रद्योत के ममय यह स्थान विद्यमान था। यहाँ पुष्कर तालाब में स्नान करने के लिये याजकल भी अनेक यात्री पाते हैं । यहाँ अनेक उत्तम घाट, धर्मशालाएँ और मन्दिर बने हुए हैं । पुष्कर अजमेर से लगभग ६ मील की दूरी पर है। भिल्लमाल या श्रीमाल में प्राचार्य वज्रस्वामी ने विहार किया था। यहाँ द्रम्म नाम का चाँदी का सिक्का चलता था । छठी शताब्दि से लेकर नौवीं शताब्दि तक यह स्थान श्रीमाल गुर्जरों की राजधानी थी । श्रीमाल उपमितिभवप्रपंचकथा के कर्ता सिद्धर्वि और माघ कवि की जन्मभमि थी। भिल्लमाल की पहचान जोधपुर रियामत में जमवन्तपुर के पाम भिनमाल नामक स्थान में की जाती है । अर्बद जैनों का प्राचीन तीर्थ है । यहाँ ऋषभनाथ और नेमिनाथ के विश्वविख्यात मन्दिर हैं, जिन्हें लाखों रुपये खर्च करके बनवाया गया था। इनमें से एक १०३२ ई० में विमलशाह का बनवाया हुआ है और दूसरा १२३२ ई. में तेजपाल का बनवाया हुया है । दोनों ही शिखर तक संगमरमर के बने हैं । जिनप्रभसूरि के समय यहाँ श्रीमाता, अचलेश्वर, वशिष्ठाश्रम आदि अनेक लौकिक तीर्थ विद्यमान थे । बृहत्कल्पभाष्य में अर्बुद और प्रभास तीर्थों पर उत्सव ( मंखडि ) मनाये जाने का उल्लेख आता है। अर्वद की पहचान मिरोही राज्य के अन्तर्गत ग्राबू पहाड़ से की जाती है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंजाब-सिन्ध-काठियावाड़-गुनरात-राजपूताना-मालवा-बुन्देलखंड इसकी गणना शत्रुजय, सम्मेदशिखर, गिरनार और चन्द्रगिरि नामक तीर्थों के साथ की गई है। माध्यमिका ( मज्झमिया ) नाम की जैन श्रमणों की शाखा का उल्लेख कल्पसूत्र में मिलता है । यहाँ प्राचीन शिलालेख, सिक्के एवं बौद्ध स्तूपों के अवशेष उपलब्ध हुए हैं । . माध्यमिका की पहचान दक्षिण राजपूताने में चित्तौड़ के पाम नगरी नामक स्थान से की जाती है । उदयपुर में धुलेवाजी अथवा केसरियाजी जैन तीर्थ माना जाता है । यहाँ फाल्गुन बदी ८ को बड़ा मेला लगता है, और भगवान् पर मनों केसर चढ़ाई जाती है । भील ग्रादि जातियाँ भी इस तीर्थ को पूजती हैं। विजोलिया उदयपुर से लगभग ११२ मील है । इसका पुराना नाम विन्ध्यावलि था । यहाँ पाश्वनाथ का मन्दिर है । जोधपुर से मेड़ता रोड लाइन पर मेड़ता रोड जंक्शन के पाम फलोधी नाम का तीर्थ है । इस तीर्थ की कथा उपदेशसप्ततिका में आती है। यहाँ प्राचार्य देवसूरि का आगमन हुअा था । यहाँ पार्श्वनाथ की पढ़ाई हाथ लंबी मूर्ति है। विक्रम की १३-१६ शताब्दि में राणकपुर एक उन्नत और महान् नगर था। यहाँ धनाशा और रतनाशा नाम के दो भाइयों ने लाखों रुपया खर्च करके मन्दिरों का निर्माण किया था । मेवाड़ के महाराणा कुम्भा राणा के समय विक्रम संवत् १४३४ में इस तीर्थ के निर्माण का कार्य जारी था । अाज कल यह तीर्थ मारवाड़ और मेवाड़ की संधि पर विद्यमान है । ५ : मालवा मालव की गणना प्राचीन जनपदों में की गई है । यह देश जैन श्रमणों का केन्द्र था, और अवन्तिपति राजा सम्प्रति ने यहाँ जैन धर्म की प्रभावना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत के प्राचीन जैन तीर्थ की थी। यहाँ के बोधिकों का उल्लेख महाभारत तथा जैन ग्रन्थों में याता है । ये लोग उजयिनी निवासियों को भगाकर ले जाते थे । चीनी यात्री हुयनमांग के समय मालवा विद्या का केन्द्र था और यहाँ अनेक मट बने हए थे । अवन्ति मालवा की राजधानी थी। यह दक्षिणापथ की मुख्य नगरी थी। अवन्ति का उल्लेख बौद्ध सूत्रों में याता है । ईसवी सन् की सातवीं-आठवीं सदी के पहले मालव अवन्ति के नाम से प्रख्यात था। यहाँ की मिट्टी काली होती थी, अतएव यहाँ बौद्ध साधुयों को जूते पहनने और स्नान करने की अनुमति प्राप्त थी। अवन्ति की पहचान मालवा, निमार और मध्यप्रदेश के कुछ हिस्सों से की जाती है। अवन्ति के पूर्व में उससे सटा हुअा अाकर देश था । अाकर की राजधानी विदिशा थी। आगे चलकर अवन्ति और पाकर क्रम से पश्चिमी और पूर्वी मालवा कहलाने लगे। उज्जयिनी उत्तर अवन्ति की राजधानी थी। राजा चण्डप्रद्योत यहाँ राज्य करता था । कुछ समय पश्चात् सम्राट अशोक का पुत्र कुणाल यहाँ का सूबेदार हुया । उज्जयिनी का दूसरा नाम कुणाल नगर बताया गया है। कुणाल के बाद राजा सम्प्रति का राज्य हुया । यहाँ जीवन्तस्वामी प्रतिमा के दर्शन के लिये प्रार्य सुस्ति का अागमन हुया था। यहाँ प्राचार्य चंडरुद्र, भद्रकगुप्त, आयरक्षित, आर्यभाषाढ़ आदि मुनियों ने भी विहार किया था। दिगम्बर जैन परम्परा के अनुसार चन्द्रगुप्त सम्राट ने यहाँ भद्रबाहु से दीक्षा ग्रहण कर दक्षिण की यात्रा की थी। श्वेताम्बर जैन परम्परा के अनुसार यहाँ कालकाचार्य ने राजा गर्दभिल्ल को सिंहासन से उतार कर उसके स्थान पर ईरान के शाहों को बैठाया था। बाद में राजा विक्रमादित्य ने अपना राज्य स्थापित किया। सिद्धसेन दिवाकर विक्रमादित्य की सभा के एक रत्न माने जाते थे। उज्जयिनी विशाला और पुष्पकरंडिनी नाम से भी प्रख्यात थी। किसी समय यहाँ बौद्धों का ज़ार था और यहाँ अनेक बौद्ध मठ बने हुए थे । यहाँ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंजाब-सिन्ध-काठियावाड़-गुजरात-राजपूताना-मालवा-बुन्देलखण्ड के लोग मद्यपान के शौकीन होते थे । उज्जयिनी व्यापार का बड़ा केन्द्र था । उज्जयिनी में महाकाल नाम का प्राचीन मन्दिर था, जिसका उल्लेख कालिदास ने मेघदूत में किया है । यह मन्दिर आजकल महाकालेश्वर के नाम से प्रख्यात है। दक्षिण अवन्ति की राजधानी माहिष्मती थी। किसी समय यह बहुत समृद्वावस्था में थी । बौद्ध ग्रन्थों में इसे महेश्वरपुर कहा गया है । - माहिष्मती की पहचान नर्मदा के दाहिने किनारे पर महिष्मति अथवा महेश नामक स्थान से की जाती है। यह स्थान इन्दौर से पैंतालीस मील की दूरी पर है । दशार्ण का नाम जैन आर्य क्षेत्रों में आता है । दशार्ण का उल्लेख महाभारत और मेवदूत में भी मिलता है । यहाँ की तलवारें बहुत अच्छी होती थीं। भिलसा के आसपास के प्रदेश को दशार्ण माना जाता है। मृत्तिकावती दशार्ण की राजधानी थी । यह नगरी नर्मदा के किनारे थी। ब्राह्मणों की हरिवंश पुराण में इसका उल्लेख मिलता है। __ मेघदूत में विदिशा को दशार्ण की राजधानी कहा गया है । यहाँ महावीर की चन्दन-निर्मित मूर्ति थी। प्राचार्य महागिरि तथा सुहस्ति ने यहाँ विहार किया था । भरहत के शिलालेखों में विदिशा का उल्लेख मिलता है। यहाँ बहुत से पुराने स्तूपों के अवशेष उपलब्ध हुए हैं। विदिशा वेत्रवती (बेतवा) के किनारे पर थी, और यहाँ के वस्त्र बहुत अच्छे होते थे । विदिशा की पहचान आधुनिक भिलसा से की जाती है । दशार्णपुर दशार्ण का दूसरा प्रसिद्ध नगर था । जैन अनुश्रुति के अनुसार इसका दूसरा नाम एडकाक्षपुर था । बौद्ध ग्रन्थों में इसे एरकच्छ नाम से कहा गया है । यह नगर वत्थगा (बेतवा ) नदी के किनारे था, और व्यापार का बड़ा केन्द्र था। दशार्णपुर की पहचान झाँसी जिले के एरछ नामक स्थान से की जा सकती है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत के प्राचीन जैन तीर्थ दशार्णपुर के उत्तर-पूर्व में दशार्णकूट नाम का पर्वत था । इसका दूसरा नाम गजाग्रपद अथवा इन्द्रपद भी था । पर्वत चारों तरफ़ गाँवों से घिरा था। जैन सूत्रों के अनुसार यहाँ महावीर ने राजा दशार्णभद्र को दीक्षा दी थी। प्राचार्य महागिरि ने यहाँ तपश्चरण किया था । आवश्यक चूर्णि में दशार्णकुट का वर्णन आता है। दशार्ण का दूसरा नगर दशपुर था । जैन श्रमणों ने इस नगर को अपने विहार से पवित्र किया था । प्राचार्य आर्यरक्षित की यह जन्मभूमि थी। दशपुर में जीवन्तस्वामी प्रतिमा होने का उल्लेख आता है । यहाँ सातवें निह्नव की स्थापना हुई थी। दशपुर की पहचान आधुनिक मंदसौर से की जाती है। विदिशा के पास कुंजरावर्त और रथावर्त नाम के पर्वत थे; दोनों पासपास थे। जैन परम्परा के अनुसार कुंजरावर्त पर्वत पर आर्य वज्रस्वामी ने निर्वाण पाया था । इस पर्वत का उल्लेख रामायण में आता है। रथावर्त पर्वत पर आर्य वज्रस्वामी पाँच सौ श्रमणों के साथ आये थे । इस पर्वत का उल्लेख महाभारत में आता है । बड़वानी दिगम्बरों का तीर्थ है । दिगम्बर परंपरा के अनुसार यहाँ से दक्षिण की ओर चूलगिरि शिखर से इन्द्रजीत, कुंभकर्ण आदि मुनि मोक्ष पधारे। इसे बावनगजा भी कहते हैं । यह स्थान मऊ स्टेशन से लगभग ६० मील की दूरी पर है। मकसी पार्श्वनाथ उज्जैन से बारह कोस है । सिद्धवरकूट रेवा नदी के तट पर है । यहाँ से साढ़े तीन करोड़ मुनियों का मोक्ष जाना बताया जाता है । यहाँ हर वर्ष मेला भरता है । यह स्थान बड़वाह (इन्दौर) से छह मील की दूरी पर है । यह क्षेत्र काफ़ी अर्वाचीन मालूम होता है । इन्दौर के पास ऊन नामक स्थान को पावागिरि (द्वितीय ) कहा जाता ( ५८ ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंजाब-सिन्ध-काठियावाड़-गुजरात-राजपूताना-मालवा-बुन्देलखण्ड है । कहते हैं यहाँ से सुवर्णभद्र आदि मुनि मोक्ष पधारे । यह तीर्थ भी अर्वाचीन मालूम होता है। बुन्देलखण्ड चेदि जनपद की गणना जैनों के ार्य क्षेत्रों में की गई है । प्राचीन काल में यहाँ राजा शिशुपाल राज्य करता था । चेदि बौद्ध श्रमणों का केन्द्र था। बुन्देलखण्ड के उत्तरी भाग को प्राचीन चेदि माना जाता है । शुक्तिमती चेदि देश की राजधानी थी। शुक्तिमती का उल्लेख महाभारत में मिलता है । सुत्तिवइया नामक जैन श्रमणों की शाखा थी। बाँदा जिले के इर्दगिर्द के प्रदेश को शुक्तिमती माना जाता है । प्रारम्भ में मध्यप्रदेश में जैनधर्म का प्रचार बहुत कम था, लेकिन मालूम होता है आगे चल कर यहाँ बहुत से जैन तीर्थों का निर्माण हो गया । बुन्देलखण्ड के द्रोणगिरि, नैनागिरि और सोनागिरि को सिद्धक्षेत्र माना जाता है। बुन्देलखण्ड की बिजावर रियासत के सेंदपा गाँव के समीप का पर्वत द्रोणगिरि माना जाता है। यहाँ से गुरुदत्त आदि मुनियों का मोक्षगमन बताया है । यहाँ चौबीस मन्दिर हैं; वार्षिक मेला भरता है । नैनागिरि क्षेत्र को रेसिन्दीगिरि बतलाया जाता है। कहते हैं यहाँ से वरदत्त आदि मुनियों ने मोक्ष लाभ किया । यह स्थान सागर जिले की ईशान सीमा के पास पन्ना रियासत में है । यहाँ वार्षिक मेला लगता है। . सोनागिरि में दो-चार को छोड़ कर शेष मन्दिर सौ सवा-सौ वर्ष के भीतर के जान पड़ते हैं । यह स्थान ग्वालियर के पास दतिया से पाँच मील है । कुंडलपुर, खजराहा, थोवनजी, पपौरा, देवगढ़, चन्देरी, अहारजी आदि अतिशय क्षेत्र माने जाते हैं । कुण्डलपुर दमोह से बीस मील ईशान कोण में है । मुख्य मन्दिर महावीर का है, और यहाँ महावीर जयन्ती का मेला भरता है। ( ५६ ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत के प्राचीन जैन तीर्थ किसी समय खजराहा बुन्देलखण्ड की राजधानी थी । शिलालेखों में इसका नाम खज्जरवाहक पाता है। हुअन-साँग ने इसका वर्णन किया है । यह नगर चन्देलवंश के राजाओं के समय चरमोन्नति पर था । यहाँ करोड़ों रुपये की लागत के जैन मन्दिर बने हुए हैं, जो ईसवी सन् ६५० से लेकर १०५० तक के हैं । खजराहा में अनेक खण्डित जैन मूर्तियाँ उपलब्ध हुई हैं। यहाँ का मन्दिर-समूह इस काल की कला का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। देवगढ़ जाखलौन स्टेशन से लगभग आठ मील की दूरी पर है । यहाँ लाखों रुपये की लागत के जैन मन्दिर बने हए हैं। यहाँ गुप्तकाल के लेख मौजूद हैं। यहाँ की शिल्पकला बहुत सुन्दर है । देवगढ़ को उत्तर भारत की जैनबद्री कहा जाता है । चन्देरी ललितपुर से बीस मील दूर है। यहाँ अत्यन्त मनोज्ञ जैन मन्दिर बने हुए हैं। थोवनजी चंदेरी से नौ मील के फ़ासले पर है। पपौराजी क्षेत्र टीकमगढ़ से तीन मील है । अहारजी में सुन्दर जैन मूर्तियाँ हैं । यह स्थान टीकमगढ़ से पूर्व की ओर बारह मील है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्षिण बरार-हैदराबाद-महाराष्ट्र-कोंकण-आन्ध्र-द्रविड-कर्णाटक कुर्ग आदि मध्यदेश से जैसे-जैसे जैन श्रमणों ने दक्षिण की ओर विहार किया, दक्षिण में शनैः-शनैः जैनधर्म का प्रसार होता गया । जैनों के साढ़े पचीस आर्य क्षेत्रों में दक्षिण के देशों के नाम नहीं, इससे मालूम होता है कि प्रारंभ में दक्षिण में जैनधर्म नहीं पहुंचा था । लेकिन धीरे-धीरे राजा सम्प्रति ने दक्षिणापथ को जीतकर उसके सामंत राजाओं को अपने वश में किया, और आगे चलकर आन्ध्र, द्रविड, कुडुक्क (कुर्ग) आदि देशों में जैनधर्म फैलाया। परिणाम यह हुआ कि दक्षिण में जैन उपासकों की संख्या बढ़ने लगी, और यहाँ जैन श्रमणों का सन्मान होने लगा । आगे चलकर तो दक्षिण में कुडुक्क प्राचार्य और गोल्ल आचार्य जैसे दिग्गज प्राचार्यों का तथा द्रविड संघ, पुन्नाट संघ आदि संघों का जन्म हुआ, एक से एक सुन्दर तीर्थों की स्थापना हुई, और दिगम्बर जैनों का यह केन्द्र बन गया । १: बरार विदर्भ का उल्लेख महाभारत में आता है । यहाँ गजा नल राज्य करता था। यह देश आजकल दक्षिण कोशल, गोंडवाना या बरार के नाम से पुकारा जाता है। कुण्डिननगर विदर्भ का मुख्य नगर था। इसका उल्लेख बृहदारण्यक उपनिषद् और महाभारत में आता है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत के प्राचीन जैन तीर्थ यह स्थान आजकल अमरावती के चांदूर ताल्लुका में है । यहाँ जैन मन्दिर है। अचलपुर (एलिचपुर ) विदर्भ देश का दूसरा मुख्य नगर था । इसके पास कृष्णा ( कन्हन ) और बेन्या (बेन) नदियाँ बहती थीं। इन नदियों के बीच ब्रह्मदीप नाम का द्वीप था । यहाँ बहुत से तपस्वी रहते थे। ब्रह्मदीपिका नाम की जैन श्रमणों की शाखा का उल्लेख कल्पसूत्र में मिलता है, इससे मालूम होता है कि यह स्थान जैनधर्म का केन्द्र रहा होगा। अचलपुर का उल्लेख प्राचार्य हेमचन्द्र ने अपने प्राकृत व्याकरण में किया है । मुक्तागिरि निर्वाणक्षेत्र माना जाता है। १८वीं सदी के यात्रियों ने इसे शत्रुञ्जय के तुल्य तीर्थ बताते हुए यहाँ चौबीस तीर्थङ्करों के उत्तुङ्ग प्रासादों का उल्लेख किया है। यह स्थान एलिचपुर से बारह मील दूर है। यहाँ के अधिकांश मन्दिर १६वीं सदी के बने हुए हैं। अन्तरीक्ष पार्श्वनाथ की कथा उपदेशसप्ततिका में आती है। यहाँ श्रीपाल का कुष्ठ दूर हुआ था। यह स्थान प्राकोला से लगभग उन्नीस कोस दूर शिरपुर ग्राम के पास है । भातकुली अतिशय क्षेत्र माना जाता है । यह स्थान अमरावती से दस मील के फ़ासले पर है । पार्श्वनाथ की यहाँ मूर्ति है । २: हैदराबाद तगरा श्राभीर देश की सुन्दर नगरी थी। आभीर देश जैन श्रमणों का केन्द्र था । यहाँ आर्य समित और वज्रस्वामी ने विहार किया था । तगरा में राढ़ाचार्य का आगमन हुआ था। करकण्डुअचरिय में इस नगर का इतिहास दिया हुआ है। तगरा की पहचान उसमानाबाद जिले के तेरा नामक स्थान से की जाती है। ( ६२ ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बरार-हैदराबाद-महाराष्ट्रकोंकण-भान्ध्र-द्रविड-कर्णाटक-कुर्ग आदि तगरा से आठ मील पर धाराशिव है । आराधना कथाकोष में तेर नगर और धाराशिव का वर्णन आता है । यहाँ बहुत सी गुफ़ाएँ हैं, जिन्हें राजा करकण्डू ने बनवाया था। अाजकल इस स्थान को उसमानाबाद कहते हैं । कुल्याक की गणना प्राचीन तीर्थों में की जाती है। यह क्षेत्र आदिनाथ का प्राचीन तीर्थ माना जाता है । उपदेशसप्ततिका में कुल्याक की कथा आती है। यहाँ आदिनाथ की प्रतिमा माणिक्यदेव के नाम से प्रख्यात है। ___ यह तीर्थ निज़ाम स्टेट में सिकन्दराबाद के पास है। अजन्ता और एलोरा नाम की प्राचीन गुफ़ाएँ भी इसी रियासत में हैं । अजंता की गुफ़ाओं में बौद्ध जातकों के अनेक दृश्य अंकित हैं। ये गुफ़ाएँ ईसा के पूर्व दूसरी शताब्दि से लेकर ईसवी सन् की छठी शताब्दि तक की मानी जाती हैं । एलोरा का प्राचीन नाम इलापुर है। यहाँ एक समूची पहाड़ी काटकर मन्दिरों में परिवर्तित कर दी गई है, जिनमें चूने - मसाले व कीलकाँटों का नाम नहीं। यह स्थान किसी ज़माने में मान्यखेट के राष्ट्रकूट राजाओं की राजधानी था । यहाँ ब्राह्मण, बौद्ध और जैनों के मन्दिर बने हुए हैं, जिनका समय ८वीं शताब्दि है। ऊखलद अतिशय क्षेत्र माना जाता है । यहाँ नेमिनाथ का मन्दिर है; प्रतिवर्ष माघ का मेला लगता है । यह स्थान निज़ाम स्टेट रेलवे के मीरखेल स्टेशन से तीन-चार मील है। आष्टे हैदराबाद रियासत में दुधनी स्टेशन के पास है । यहाँ जैन चैत्यालय बना हुआ है। कुंथलगिरि की गणना सिद्धक्षेत्रों में की जाती है । यहाँ से कुलभूषण और देशभूषण मुनियों का मोक्षगमन बताया जाता है । यह स्थान बार्सी टाउन रेलवे स्टेशन से लगभग बीस मील है । दहीगाँव महावीर का अतिशय क्षेत्र माना जाता है। यह स्थान शोला ( ६३ ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत के प्राचीन जैन तीर्थ पुर जिले में दिकमाल स्टेशन से लगभग बाईम मील है । स्तवनिधि कोल्हापुर रियासत में, कोल्हापुर शहर से लगभग तीस मील है । श्रीक्षेत्रकुम्भोन कोल्हापुर रियामत में हातकलंगणा स्टेशन से लगभग चार मील है । गाँव में एक मन्दिर है । ३: महाराष्ट्र महाराष्ट्र के अनेक रीति-रिवाजों का उल्लेख जैन छेदसूत्रों की टीकाटिप्पणियों में मिलता है । राजा सम्प्रति ने इस देश में जैनधर्म का प्रचार किया था । लेकिन आगे चलकर मालूम होता है कि यह प्रदेश जैनधर्म का खामा केन्द्र बन गया था। प्रतिष्ठान या पोतनपुर महाराष्ट्र की राजधानी थी। बौद्ध ग्रन्थों में पोतन या पोतलि को अश्मक देश की राजधानी कहा है। प्रतिष्ठान महाराष्ट्र का भूषण माना जाता था। यह नगर विद्या का केन्द्र था। यहाँ श्रमण - पूजा नाम का बड़ा भारी उत्सव मनाया जाता था । जैन ग्रन्थों से पता लगता है कि यहाँ पादलित सूरि ने पइहान के राजा की शिरोवेदना दूर की थी। कालकाचार्य ने यहाँ विहार किया था ! कहते हैं कि एक बार कालकाचार्य उज्जयिनी से यहाँ पधारे और मातवाहन (शालिवाहन) के आग्रह पर इन्द्र महोत्सव के कारण पयूषण पर्व की तिथि बदल कर पंचमी से चतुर्थी कर दी। जैन ग्रन्थों में प्रतिष्ठान को भद्रबाहु (द्वितीय) और वराहमिहिर का जन्म स्थान माना गया है । जिनप्रभ सूरि के समय यहाँ अड़सठ लौकिक तीर्थ थे । प्रतिष्ठान व्यापार का बड़ा केन्द्र था। इसकी पहचान औरङ्गाबाद जिले के पैठन नामक स्थान से की जाती है । ४: कोंकण कोंकण देश में जैन श्रमणों ने विहार किया था। यह देश परशुराम क्षेत्र के नाम से भी पुकारा जाता था । अत्यधिक वर्षा होने के कारण जैन ( ६४ ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बरार-हैदराबाद-महाराष्ट्र-कोंकण-आन्ध्र-द्रविड-कर्णाटक-कुर्ग श्रादि साधु यहाँ छतरी लगा सकते थे। यहाँ के लोग फल-फूल के बहुत शौकीन होते थे । यहाँ गिरियज्ञ नाम का उत्सव मनाया जाता था । कोंकण की अटवी का उल्लेख जैन ग्रन्थों में आता है । मच्छर यहाँ बहुत होते थे । यहाँ यूनान के व्यापारी व्यापार के लिए आते थे। पश्चिमी घाट और समुद्र के बीच के हिस्से को कोंकण कहा जाता है । कोंकण की राजधानी शूर्पारक थी। इस नगर का उल्लेख महाभारत में मिलता है । पंच पाण्डव प्रभास जाते हुए यहाँ ठहरे थे। प्राचार्य वज्रसेन, आर्य समुद्र और आर्य मंगु ने यहाँ विहार किया था । यहाँ बहुत से व्यापारी रहते थे और भृगुकच्छ तथा सुवर्णभूमि तक व्यापार के लिए जाते थे। शूर्पारक की पहचान बम्बई इलाके के ठाणा जिले में सोपारा स्थान से की जाती है। आजकल यहाँ बड़ी हाट लगती है। नासिक्यपुर (नासिक ) कोंकण का दूसरा प्रसिद्ध नगर था । यह स्थान गोदावरी के किनारे है और ब्राह्मणों का परम धाम माना जाता है। यहीं पर दण्डकारण्य था, जहाँ रामचन्द्र जी कर रहे थे। जैन ग्रन्थों में इसका दूसरा नाम कुंभकारकृत बताया गया है। इस नगर के नाश होने की कथा रामायण, जातक तथा निशीथचूर्णि में आती है। तुगिय पर्वत पर राम बलभद्र के मोक्ष होने का उल्लेख प्राचीन जैन ग्रन्थों में आता है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार यहाँ से राम, हनुमान, सुग्रीव आदि निन्यानवे कोटि मुनि मोक्ष पधारे । यह क्षेत्र मनमाड़ स्टेशन से साठ मील दूर है। आजकल इसे माँगीतुंगी कहते हैं। नासिक से पाँच-छह मील के फ़ासले पर गजपंथा नामक तीर्थ है । यहाँ से सात बलभद्र और यादव आदि मुनियों का मोक्ष होना बताया जाता है, लेकिन यह क्षेत्र काफ़ी अर्वाचीन जान पड़ता है । ५: प्रान्ध्र आन्ध्र देश में राजा सम्प्रति ने जैन धर्म का प्रचार किया था । बौद्ध ( ६५ ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत के प्राचीन जैन तीर्थ जातकों में ग्रान्ध्र की राजधानी का नाम अन्धपुर बताया गया है। अन्धपुर नगर का उल्लेख जैन ग्रन्थों में आता है । यह नगर तेलवाह नदी पर था । महाराष्ट्र के पूर्व-दक्षिण तेलुगु भाषा का समूचा क्षेत्र आन्ध्र या तेलंगण देश कहा जाता है। वनवासी नगरी का उल्लेख ब्राह्मणों की हरिवंश पुराण में आता है । जैन ग्रन्थों के अनुसार यहाँ ससय और भसय नामक राजकुमारों ने अपनी बहन सुकुमालिया के साथ जैन दीक्षा ली थी। छठी शताब्दि तक यह नगर कदंवों की राजधानी रही । ग्राजकल यह स्थान उत्तर कनाड़ा में मिरमी ताल्लुका में वरदा नदी के वाँये किनारे इमी नाम से मौजूद है । यहाँ प्राचीन अभिलेख मिले हैं । ६ : गोल्ल गोल्ल देश के अनेक रीति-रिवाजों का उल्लेग्व जैन चूर्णि ग्रन्थों में मिलता है । जैन अनुश्रुति के अनुसार चन्द्रगुप्त का मंत्री चाणक्य यहीं का रहने वाला था। गोल्लाचार्य का उल्लेख श्रवणबेलगोला के शिलालेखों में पाता है। ___ इस देश की पहचान गुन्टूर ज़िले की गल्लरु नामक नदी पर गोलि स्थान से की जा सकती है । यहाँ बहुत से शिलालेख उपलब्ध हुए हैं, इससे भी इस स्थान की प्राचीनता प्रकट होती है। ७: द्रविड़ द्रविड़ ( दमिल ) तमिल का संस्कृत रूप है । द्रविड़ में पहले चोल, चेर और पाण्ड्य देश गर्भित थे । हुअन-साँग के समय द्रविड़ के उत्तर में कोंकण और धनकटक तथा दक्षिण में मासकूट था। जैन ग्रन्थों से पता लगता है कि प्रारंभ में यहाँ जैन साधुयों को वसति ( उपाश्रय ) आदि का कष्ट होता था । कांचीपुर द्रविड़ की राजधानी थी । बृहत्कल्पभाष्य से पता लगता है कि यहाँ नेलक नाम का सिक्का चलता था । यहाँ के दो नेलक कुसुमपुर (पटना) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बरार-हैदराबाद-महाराष्ट्र-कोंकण-आन्ध्र-द्रविड-कर्णाटक-कुर्ग प्रादि के एक नेलक के बराबर होते थे । हुअन-साँग के समय यह नगर बौद्धों का केन्द्र था । स्वामी समंतभद्र की यह जन्मभूमि थी। पाठवीं शताब्दि में जैनों का यहाँ बहुत प्रभाव था । काँचीपुर चोल की राजधानी रही। कांचीपुर की पहचान मद्रास सूबे के कांजीवर नामक स्थान से की जाती है। ८: कर्णाटक - कर्णाटक का पुराना नाम कुन्तल है। महाराष्ट्र के दक्षिण में कनाड़ी भाषा का क्षेत्र कर्णाटक कहा जाता है । इसमें कुर्ग, मैसूर आदि प्रदेश सम्मिलित थे। जैन ग्रन्थों में कुडुक्क देश का अनेक जगह उल्लेख अाता है। राजा सम्प्रति के समय से इस देश में जैन धर्म का प्रचार हुआ । व्यवहारभाष्य में कुडुक्क प्राचार्य का उल्लेख पाता है। कुडुक की पहचान अाधुनिक कुर्ग से की जा सकती है । इस प्रदेश को कोडगू भी कहते हैं। ___ कर्णाटक में श्रवणबेलगोल दिगम्बर जैनों का प्रसिद्ध तीर्थ है। इसे जैनबद्री, जैन काशी अथवा गोम्मट तीर्थ भी कहा जाता है। यहाँ बाहुबलि स्वामी की सत्तावन फ़ीट ऊँची मनोज्ञ मूर्ति है, जो दस-बारह मील से दिखाई देने लगती है । जैन मान्यता के अनुसार भद्रबाहु स्वामी और उनके शिष्य सम्राट चन्द्रगुप्त मुनि ने यहाँ आकर तप किया था। यहाँ लगभग पाँच सौ शिलालेख मौजूद हैं । विन्ध्यगिरि और चन्द्रगिरि नामक यहाँ दो पर्वत हैं । इस तीर्थ की स्थापना राजमल्ल नरेश के राजमंत्री सेनापति चामुण्डराय ने ईसवी सन् ६८३ के लगभग की थी। मूडविद्री होयसल काल में जैनियों का मुख्य केन्द्र था। यहाँ अनेक मंदिर और सुन्दर स्थान हैं । यहाँ पर पुरुष-प्रमाण बहुमूल्य प्रतिमाएँ हैं। प्राचीन ग्रन्थों के यहाँ भंडार हैं। कारकल मूडबिद्री से दस मील है । यहाँ बाहुबलि की विशाल प्रतिमा और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत के प्राचीन जैन तीर्थ सुन्दर मान-स्तंभ है । इस मूर्ति को सन् १४३२ में कारकल नरेश वीर पांड्य ने निर्माण कराया था। वेणूर जैनों का केन्द्र था । कभी यहाँ अजलिर वंश के जैन राजाओं का राज्य था। उनमें से वीर निम्मराज ने सन् १६०४ में बाहुबलि स्वामी की विशाल प्रतिमा बमवाई थी। यह स्थान मूडबिद्री से बारह मील और कारकल से चौबीस मील है । मथुरा या दक्षिण मथुरा का उल्लेख प्राचीन जैन सूत्रों में आता है । इसे पांडु मथुरा भी कहते थे। कृष्ण के कहने से यहाँ पंच पांडव आकर रहे थे । यह स्थान व्यापार का बड़ा केन्द्र था । पुराने ज़माने में यहाँ के पंडित प्रसिद्ध होते थे। मथुरा की पहचान मद्रास सूबे के उत्तर में मदुरा नामक स्थान से की जाती है। ( ६८ ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दानुक्रमणिका ६३ -पावापुरी अकबर ३, ३८, ४४, ५४ –मज्झिमपावा अकंपित २७ अभयकुमार अक्षयवट ३८ अभयदेव अचल ३८ अमरावती अचलपुर अयोध्या ३३, ३५, ३८, ४७ -एलिचपुर -साकेत १४, ३८, ३९, ४८ अचलेश्वर ५४ अरिष्टनेमि ५० अचिरावती-राप्ती ३९ –नेमिनाथ ४४, ५४, ६३ अभिजयंत १७ अर्बुद २६, ५४ अचेल २, ७ –आबू अच्छ १६, १९, ४५ अलवर -अच्छा अलसण्ड (एलेक्जेण्ड्रिया) ४, २४ अजन्ता -आलसन्द अजलिर ६७ अवन्ति १५, १९, ५६, ५७ अजातशत्रु २०, २१, २२, अवाह -कूणिक २५, २७, ३५ अशोक १५, १९, २२, २९, ३७, ४२ अज्जइसिपालिया ४३, ४८, ५३, ५६ अज्जकुबेरी १७ अश्वसेन अज्जजयन्ती अश्वावबोध अज्जतावसी १७ अष्टापद (कैलास) ३, २६, अज्जनाइली १७ असि अज्जवइरी १७ अस्सक अज्जवेडय १७ अहार जी अज्जसेणिया १७ अहिच्छत्रा ४, ५, १६, २५, ४२, ४३ अट्ठियगाम ६, ८, २९ -अहिक्षेत्र अण्णिकापुत्त ३८ अंग १४, १६, १९, २४, ३० अनाथपिण्डक ४० -अंग-मगध अपापा ३, ८, १२, १३, १६, २३, २७, अंगुत्तरनिकाय -पापा ३५, ४१ अंतरञ्जिया १७, १८, ४३ -पावा (दो पावा) ~~~अंतरिझ्या * * * * Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .३७ त्रा अंतरीक्ष पाश्र्वनाथ ६२ आलभिया १०, १२, ३७ अंधपुर ६५ --आलवी अंबठिका २२ आलसन्द (देखो अलसण्ड) अंबापाली २८ आवश्यक चूणि ६, ४० ५०, ५४, ५८ अंबवन आवत्ता ग्राम अंसुवर्मा आसाम आष्टे आइने अकबरी ४३, ५४ आकर आकोला ६२ इक्ष्वाकु भूमि आचारांग सूत्र २, ५ --अयोध्या आचाय धरसेन ५० इन्दपुरग आदिनाथ ३८, ४७, ५४, ६३ इन्द्रपुर ~ऋषभदेव इन्दौर आनर्त ४९ इन्द्रजीत मानर्तपुर इन्द्रपद -आनन्दपुर -गजाग्रपद गिरि–दशार्णकूट आनन्द २९ इन्द्रप्रस्थ आनन्दरक्खिय -दिल्ली आन्ध्र १५, ४९, ६५ इन्द्रभूति २, ६, ७, २२ २३ आबू (देखो अर्बुद) -गौतम स्वामी आभीर ६२ इन्द्रमहोत्सव आमलकप्पा २९ इन्द्रमाला यायागपट इलापुर आरबक २४ --एलोरा आराधना कथाकोष ६३ इलाहाबाद आर्य आषाढ़ ५६ -प्रयाग आर्य महागिरि २, २२, २७, इसिगुत्ति ३७, ५७, ५८ इसिदत्तिय आर्य मंगु ४५, ६५ इसिपत्तन बार्य रक्षित २, ४५, ५६ -सारनाथ बार्य स्कन्द बार्य सुहस्ति २, १५, २२, ३७, ५७ ईरान ४९, ५६ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ४० उमास्वाति उच्चानगर ४५, ४६ उल्लगच्छा -बुलन्दशहर उसमानाबाद ६२, ६३ -वारन उच्चानागरी १७, १८, ४५ ऊखलद उज्जयिनी ४, ३४, ३७, ४८, ऊन ४, ५८ -उज्जनी ५२, ५४, ५६, ५८, ६४ ऊर्जयन्त ३, २६, २९, उज्जैन -गिरनार ४२, ५०, ५५ उडुवाडिय उत्कल ऋजुवालिका -उड़ीसा ओड़ ऋषमदेव ( देखो आदिनाथ) उत्तर कनाड़ा ६६ ऋषभपुर-राजगृह उत्तरद्वार ऋषितडाग उत्तरप्रदेश ७, १३,१४, १५, ३५, ४२ ऋषिपाल उत्तर बलिस्सह उत्तराध्ययन . २, ६ एटा उत्तरापथ १, ३४, ४४, ४७ एडकाक्षपुर उत्पल ६ -एरकच्छ उदक पेढालपुत्त ६ -एरच्छ उदय २० एलिचपुर (देखो अचलपुर) उदयगिरि ३०, ३१ एलोरा (देखो इलापुर) उदयन ३७ ओ उदयन (महर्षि) ४८ ओड़ (देखो उत्कल) उदयपुर औ उदायि २१, २२ औदुम्बर उदुम्बर १८ औपपातिक सूत्र उदंबरिज्जिया २७ औरंगाबाद उद्दण्डपुर २३ -दण्डपुर ककुत्था उद्देहगण कच्छ उन्नाट ११, ३३ कटपूतना सपदेशसप्ततिका ५३, ५५, ६२, ६३ कण्हसह उपमिति मवप्रपंचकथा ५४ कदलीग्राम ___२४, २५ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदंब ६६ कारकल ३, ६७ कनकखल ९ कालक आचार्य ४, ३४, ४९, ५६, ६४ कनाड़ी ६७ कालाय संनिवेश कनिष्क २ कालीदास कन्नौज ४३ कालियपुत्र कन्हन ६२ काली कपिलवस्तु २१, ३६, ४१ कालि (नदी) कम्बोज १९ काशगर कयंगला ९, २७ काशी १६, १९, २०, ३५, -कंकजोल काशी-कोसल करकण्डू ६३ कासव करकण्डूचरिय ६२ कासवज्जिया कर्णाटक ६७ कांचनपुर कलिंग १६. ३० कांचीपुर कलिंगनगर-भुवनेश्वर ३० -कांजीवर कलंबुक १० कांपिल्यपुर __५, १६, २०, ४२ कल्पसूत्र १६, २३, २७, ४५ ५२ -कपिल ५५, ६२ किरात ___४, २४, ३२, ३९ कसया ४१ -चिलात कंकाली टीला २, ४४ किष्किधापुर कंपिल ४२ -खुखुंदो कंपिलनगर ४२ ककट क्षत्रि कुण्डग्राम ८, २८ –मगध क्षितिप्रतिष्ठित-राजगृह कुक्कुटाराम काकंदी कुडुक्क ४९, ६१, ६७ काकंदिया काठियावाड़ दिखो सौराष्ट्र) ४९ कुडुक्क (आचार्य) ६१, ६७ कादम्बरी ४९ कुणाल १५, ४८, कान्यकुब्ज (देखो कन्नौज) कुणाल नगर काबुल ५२ -उज्जनी कामरूप ३१ कुणाल नगरी -आसाम -श्रावस्ति । कामिड्डिम १७ कुणाला १४, १६, ३९ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com -कुर्ग Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्ण '-उत्तर कोशल -पटना कुण्डलमेण्ठ ५२ कुंजरावतं कुण्डग्राम ८, २८, २९ कुंथलगिरि -कुण्डपुर कुंभकर्ण बसुकुण्ड कुंभकारकृत कुण्डलपुर -दण्डकारण्य कुण्डाग ११ कुंभारप्रक्षेप कुण्डिन नगर ६१ -वीतिभय पट्टन कुन्तल ६७ कविय संनिवेश कुमारपाल ४९, ५०, ५२ कूणिक (देखो अजातशत्रु) कुमार श्रमण (केजी) ६ कुमाराय संनिवेस ६, ९ कृष्ण (देखो कन्हन) कुमारी पर्वत–उदयगिरि ३० केकय कुम्मार गाम ८ केकयी अर्ध कुम्म गाम केदार कुरु १६, १९, ३५, ४६, ४७ केवट्ट द्वार ४२, ४६ केवल ज्ञान १२, ३८, ४०, ४१ कुरुक्षेत्र ४८ केशीकुमार २,६,७,४० कुलभूषण ६३ केसरीया जी कुलुहा २६ कोच्छ कुल्पाक कोटिवर्ष १६,१८,३२,३९ कुश ५३ कोडगू (देखिये कुडुक्क) कुशस्थल ४३ कोडिबरिसिया १७, ३२ -कान्यकुब्ज कोडिय गण कुशस्थली कोडंबाणी -द्वारका कोपारी कुशाग्रपुर-राजगृह कोमलिया कुशातं (दो कुशात) ४३, ४४, ४९ कोमिल्ला १८, ३४ कुशावर्त १६ कोली कुशीनारा २१, ३५, ३६, ४१ कोल्लाक संनिवेश -कुसावती. कोल्लाग संनिवेश --कसया कोल्हापुर कुसुमपुर २१, ६६ कोल्हुआ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com कुरु जांगल raam mm" २९ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३, ५९ कोशल १६, १९, २८, ३५, ३८ गंगा ९, ३६, ३७, ४२ कोशला ३९ गंडकी ११, २८, २९ कोशा २२ -गंडक कोसंबिया १७ गंधार कोंकण ६४, ६६ गाधिपुर कौशलिक -कान्यकुब्ज -ऋषभदेव गामाय संनिवेश कौशांबी ४, ५, १२, १४, १६, गांगेय -कोसम १८, २०, ३५, ३७, ३८ ग्वालियर गिरनार (देखो ऊर्जयन्त) खज्जूरवाहक ५९ गिरियज्ञ -खजराहा गिरिव्रज खर्वट --राजगृह खब्बड ३३ गुजरात -दासी खब्बड गुणसिल खण्डगिरि ३०, ३१ -गुणावा खारवेल ३० गुण्टूर खुखुंदो (देखो किष्किघापुर) गुरुदत्त खोमलिज्जिया १७, ३४ गोदास गण -कोलिया गोदावरी खंभात ५३ गोब्बर गाम गोभूमि ११, ३३ गजपंथा ४, ६५ -गोमोह गजपुर १६ गोम्मट -हस्तिनापुर गोयमज्जिया गजाग्रपद गिरि गोरखपुर २६, ४१ –दशार्णकूट-इन्द्रदीप गोलि गणतंत्र २८ गोल्ल गणराजा १३ गोल्ल (आचार्य) गया २६ गोशाल (मंखलिपुत्र) ६, ९, १०, ११, यवेधुया २२, २३, ३७, ४. गर्गरा २५ गोंडवाना गर्दभिल्ल ४, ५६ गोंडा ३९ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गौड़ ३१, ३२ चारण ? (वारण) गौतमस्वामी चांदूर (देखो इन्द्रभूति) चांपानेर घ चित्तौड़ घग्घर ३९, ४८ चिन्तामणि पाश्वनाथ -घाघरा चीन १९, २२, ३२ घोसिताराम ३७ चूलगिरि शिखर चेटक चटगाँव ३४ चेति चणकपुर २० चेदि -राजगृह चेर चण्डप्रद्योत ३७, ५६ चेलना -प्रद्योत चोराय संनिवेश चण्डरुद्र ५६ चोल चतुर्विध संघ ५ चौरासी चन्दनबाला १२ चन्द्रगिरि ५५ छत्र चन्द्रगुप्त १५, ५६, ६६, ६७ छेदसूत्र चन्द्रगुफ़ा ५० छोटा नागपुर चन्द्रपुरी –चन्द्रावती-चन्द्रमाधव-चन्द्रानन जगइ चन्द्रप्रभ (चन्द्रप्रभा अशुद्ध है) ३६ -मिथिला चन्द्रप्रभास ५० जनक —देवपाटन-देवपट्टन जनकपुर-मिथिला चंदनागरी १७ जनकपुरी-मिथिला चंदेरी ५९ जनपद चंपरमणिज्ज जनपद-विहार चंपा ३, ९, १२, १६, १८, २०, जनपद-परीक्षा २१, २४, २५ जमुना ३८, ४३, ४४, ४६ चंपिज्जिया १७ -यमुना चाणक्य ६६ जम्बूद्वीप (भारतवर्ष) चातुर्याम ५, ६, ७ जम्बूसंड चामुण्डराय ६७ जम्बूस्वामी ३६ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ जयन्ती जयपुर ५४ तक्षशिला ४, २१, ३६, ४७, ४८ जरासंध २०, ४४, ४९ तगरा जलमन्दिर -तेर जसभद्द १७ तपोदा जसवंतपुर ५४ -तपोवन जंभियगाम १२, २३ -महातपोपतीरप्रभ ज्ञाताधर्मकथा १, ७ तमिल ज्ञातृखण्ड ८, २९ –दमिल-द्रविड़ जाखलौन ६० तम्बाय जातक ३०,३५,४०,४६,४७,५२,६३,६५ ताम्रलिप्ति १६, १८, ३२ जापान २२ -तामलुक जावा १९, ३२ तामलित्तिया जाङ्गल १६ तारंगागिरी ५२, ५३ जिनकल्प २, ६ तिब्बत जिनप्रभसूरि २२, २३, २७ ३६, तिरहुत ३९, ४०, ४२ ५४ तीर्थमाला जीवक ४७ तुंगिक जीवन्तस्वामी प्रतिमा ३०, ३८, ५६ तुङ्गिय सनिवेश जूनागढ़ ५० तुङ्गिय नगरी ६, २३, ६५ जेतवन ४० तुङ्गिय गाम २३ जैन काशी ६७ तेजपाल ५०, ५३, ५४ जैनबद्री ३, ६७ तेर (देखो तगरा) जैन तीर्थो नो इतिहास २३ तेलवाह जोणग ४ तेलंगण -यवन तेलुगु ६५ जोधपुर तोसलि(तोतलि अशुद्ध छपा है) १२,३१ -धौलि झूसी ३८ तोलि (आचार्य) सा आपापा ३१ त्रिपिटक टीकमगढ़ ६० त्रिशला ८, २७, २८ ५४ ठाणा • ६५ ४८ थूणा (दो थूणा) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थूणाक संनिवेश ९ दितिपयाग थोवन जी ६० -प्रयाग दिल्ली (देखो इन्द्रप्रस्थ) दक्षिण द्वार ४० दिव्यावदान दक्षिण मथुरा ६८ दीघनिकाय -मदुरा दीनाजपुर दक्षिणापथ १, ५६, ६१ द्वीपायन दढभूमि १२, ३२ दुइज्जन्त -धालभूम दुधनी दण्डकारण्य ( देखो कुम्भकारकृत ) देवगढ़ दण्डपुर (देखो उद्दण्डपुर) देवपट्टन (देखो चन्द्रप्रभास) दतिया ५९ देवधिगणि क्षमाश्रमण दधिवाहन १२, २४ देववाराणसी दन्तखात ३६ देवसूरि दन्तपुर ३० देशभूषण दमुण्डा एण्ड देअर कन्ट्री ३३ द्रोणगिरि दशपुर ५८ द्रौपदी मन्दसौर -पांचाली दशवैकालिक २०, २४ दशार्ण १६, ५७ धनकटक दशार्णकट ५८ धनपाल —गजाग्रपदगिरि-इन्द्रदीप धनाशा दशार्णपुर ५७, ५८ धन्यकटक दशार्णभद्र ५८ धरणेन्द्र दहीगाँव ६३ धर्मचक्र दम्म ५४ धर्मचक्रभमिका द्रविड़ १५, ४९, ६१, ६६ धर्मनाथ दासी खब्बडिया (दखो खब्बड) धर्मसागर उपाध्याय दासी खब्बड १७ धाराशिव द्वारवती ४, १६, ४, ४९, ५० धालभूम (देखो दढभूमि) -द्वारिका धुलेवाजी दिकसाल ६४ धौलि (देखो तोसलि) दिगम्बर २, ३४, ५८ ध्रुवसेन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०) प . नगरी ५५ पटना (देखो पाटलिपुत्र) -मध्यमिका पटवारी नन्दनवन ५० पड़रौना नन्दिग्राम १२ पण्हवाहणय नन्दिज्ज १७ पत्तकालय नन्दिपुर १६ पद्मप्रभ नर्मदा ५७ पन्ना नल ६१ पपौरा जी नवादा २१ पयाग पतिट्ठान नंगला ग्राम ९ -प्रयाग नागपुर-हस्तिनापुर ४६ परशुराम क्षेत्र नागभूय १७ परीक्षित नागराज ४२ पर्युषण नागह्रद ४२ पसेनदि नाथनगर २५ पंजाब नालन्दा ९, २२, २३, पृष्ठचम्पा ५१ प्रतिष्ठान (दो प्रतिष्ठान) २१, ३८, नालन्दीय २२ प्रत्यग्ररथ नासिक्यपुर ६५ –अहिच्छत्रा नासिक प्रदेशी निजाम स्टेट ६३ प्रद्योत (देखो चण्डप्रद्योत) ५६ प्रबन्धकोश निम्मराज ६७ प्रभावकचरित निरयावलि ७ प्रभास (गणघर) निशीथ सूत्र १४, २० प्रभास ३६, ५०, ५४, ६५ निशीथ चूर्णि ४, ५६ -चन्द्रप्रभास नील पर्वत १ प्रयाग ३३, ३५, ३८ नेमिनाथ (देखो अरिष्टनेमि) --इलाहाबाद नेलक ६६ प्रवचनपरीक्षा नैनागिरि ५९ पाकिस्तान नेपाल २२, २९, ४१ पाखंडिगर्भ न्यायविजय २३ --मथुरा । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com निमार ४५ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ kuR १७ ८१ पाटन ५२ पांडुवर्धन पाटलिपुत्र २१, २२, २९ पांड्य -पटना ६६ प्राकृत व्याकरण पाटलिपुत्र वाचना २२ प्राचीन वंश पाढ १९ पीइधम्मि पाणिनी ४७ पुन्नकलस पाताल लिंग २७ पुण्डरीक-शत्रुञ्जय पादलिप्त ६४ पुण्डवद्धणिया १७, पादुका ३ पुण्ड पारस पुण्डवर्धन (दो पुण्ड्व र्धन) -ईरान पुण्णपत्तिया परिहासय १७ पुन्नाट संघ पारसनाथ हिल (देखो सम्मेदशिखर) पुरीमताल (दो पुरीमताल) ४,११,३३ पालय १२ पुरी ४, ३० पालिताना ५१ -जगन्नाथ पुरी पावकगढ़ ५३ पुष्कर पावा (देखो अपापा) पुष्करावती पावरिक पुष्करंडिनी पार्श्वनाथ २, ५, ६, ७, ८, २९, -उज्जनी ३०, ३६, ४०, ४१ पुष्पचूला ४२, ५१, ५५, ६२ पुष्पदन्त पापित्य ५, ९ पुष्पपुर पावागिरि ५३ पुष्पभद्र पावागिरि (द्वितीय) ५८ पूर्णभद्र पाँच महाव्रत ६, ७ पूर्वाद्वार पांचाल १६, १९, ४२, ४३ पूसमित्तिज्जा -कहेलखंड पेढाल पांचाली (देखो द्रौपदी) पैठन पांडव ४६, ४८, ५०, ५१, -प्रतिष्ठान ५३, ६५, ६८ पोतनपुर पांडवचरित ५१ –प्रतिष्ठान पांडु मथुरा पोतलि -मदुरा पोलास Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) बज्जि बनिया बंगाल १३, १५ ३१ फ़रूखाबाद ४२ बंभदीविया फलोधी ५५ बंभलिज्ज फ़ाहियान २२, ३१, ४१, ४३ बंबई फैजाबाद ३९ बंस-वत्स ब्रह्मद्वीप बच्छ-वत्स १९ ब्रह्मद्विपिका १९ ब्रह्मस्थलहस्तिनापुर बटेसर बानगढ़ बड़नगर ५२ बार्सी टाउन बड़वानी ५८ बालासर बड़वाह ५८ बालि बड़ागाँव २३ बालुया गाम बड़ौदा ५३ बावनगजा बनारस ३५, ३६, ३७, ४५ बावन गजी -वाराणसी बाहुबलि बाँदा -वाणियगाम ब्राह्मणग्राम बरमा २२, ३४, ४० ब्राह्मणकुण्डग्राम ----सुवर्णभमि विन्दुसार बरार बिम्बिसार बरेली ४३ -श्रेणिक बर्बर २४ बिहार ७, १३, १४, १९ बर्दवान ३४ बिहार शरीफ़ २१, २३ १०, ११, ६५ बुद्ध २१, २२, २४, २६, २७, २८, बलरामपुर ४० ३५, ३७, ३९, ४०, ४१, ४५,४६ बलिस्सह गण १७ बुद्धगया बसाढ़--वैशाली २८ बुलन्दशहर (देखो उच्चानगर) बसुकुण्ड (देखो कुण्डपुर) २ बुन्देलखण्ड बहली ४७ बृहत्कथाकोश बहुसालग ११ बृहत्कल्प सूत्र बंग १६, १९, ३१ बृहत्कल्प भाष्य २, १४, ४४, ५४ ---बंगाल बृहदारण्यक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com बलदेव Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोगरा ४५ १७ बेतवा ५७ भूतबलि ५० बेनीमाधव (डॉक्टर) ३१ भृगुकच्छ ५२, ६५ बेन्या ६२ -भृगुपुर -बेन । -भड़ौच बेलवन २७ भेरा ३४ भेलुपुर बोधिवृक्ष __३ भोगपुर भंगि १६, २६, भगवती सूत्र ६, १९ भंडीर भड़ौच (देखो भृगुकच्छ) भदिया २६ मइपत्तिया भदैनी ३६ मऊ भद्दजसिय १७ मकसी पार्श्वनाथ भद्दगुत्तिय १७ मगध १०, १६, १९ भद्दिज्जिया २१, २४, २७, ३५, ४७ भद्दिय १०, २६ मगधपुर-राजगृह २० भद्रकगुप्त मच्छ-मत्स्य १६, १९, ५३ भद्रबाहु २२, २९, ५६ मज्झमिया भद्रबाहु (द्वितीय) ६४ -मध्यमिका भद्रवती ४९ -मध्यमिका भद्राचार्य __ मज्झिमिल्ला भद्रिलपुर-भदिया -मज्झिमा भरत ४७ मज्झिम पावा (देखो पावापुरी) भागलपुर २५ मणिकर्णिका ३६ भागीरथी ४२ मणिभद्र २, ३३ भातकुली '६२ मथुरा २, ३, ७, १६, १८ भावनगर -:५१ –महोलि २०, ३५, ४४, ४५, भिलसा .५७ ४९, ५२ भिल्लमाल ५४ मदन वाराणसी भिनमाल मदुरा-महुरा . -~-श्रीमाल मद्दणा भुवनेश्वर ३० मद्रास ६६, ६८ भूततडाग - ५२ मधुमती Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ मल्ल माणव -महुआ महोदय मध्यदेश २८, ३५, ६१ -कान्यकुब्ज , मध्यप्रदेश ५६, ५९ महोलि (देखो सथुरा) मनमाड ६५ मंखलिपुत्र (देखो गोशाल) मरुभूमि ५२ मंग (देखो आर्य मंगु) मलय १२, १६, १९, २६ मंडन मिश्र मलधारि १७ मंडिकुच्छ मल्ल १९ मंदसौर (देखो दशपुर) १३, ४१, ४८ मंदार मल्ल पर्वत २६ –मंदिर -सम्मेदशिखर -मंदारगिरि मवाना ४६ माकंदी महाकालेश्वर ५७ मागधी महागिरि (देखो आर्य महागिरि) माघ हमातपोपतीरप्रभ (देखो तपोदा) महाभारत २०, २३, २४, ३०, ३१, माणिक्यदेव ३२, ३३, ३७, ३८, ४२, माध्यमिका (देखो मज्झमिया) ४४, ४८, ५०, ५३, ५६, मानभूमि ५७, ५८, ५९, ६१, ६५ मान्यखेट महाराष्ट्र २, १५, ४९, ६४ मारवाड़ महावग्ग २२ मालकूट महावस्तु ३० मालवय महावोर ६, ९, १०, ११, १२ मालवा १३, २१, २२, २३, २४, मालिज्ज २५, २६, २७, २८, २९, मालिनी ३१, ३२, ३३, ३५, ३७, -चम्पा ३९, ४०, ४१, ५७ मासपुरी महासेन २३ मासपुरिया महास्थान महिष्मती-महेश्वरपुर महुआ (देखो मधुमति) मांगीतुङ्गी ४. मिथिला ३, १२, १६, १८, २०, -श्रावस्ति २५, २७, २८ महेश्वरपुर ५७ मिदनापुर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat महेठि ३.३ www.umaragyanbhandar.com Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) मीरखेल मुक्तागिरि मुग्गरगिरि-मुंगेर मुजफ्फरगढ़ मुजफ्फरपुर मुनिचन्द्र मुनिसुव्रतनाथ मूडबिद्री मृगारमाता मृगावती मृतगंगातीर मृत्तिकावती मेगस्थनीज़ मेघकुमार मेघदूत मेड़तारोड मेतार्य मेदार्य गोत्र मेरठ मेवाड़ मेहकलिज्जिया मेहिय महिल मेंढियगाम मैथिलिया मैसूर मोग्गरपाणि मोढ मोढेरगा मोराग सनिवेश मोलि मोसलि म्हेसाणा ६२ यक्षायतन २६ यमुना (देखो जमुना) ४९ यवन द्वीप २८ यशस्तिलक ६, ९ यादव ४, ४९, ५२ यूनान ३, ६७ योजन=५ मील ४० ३७ रज्जपालिया रज्जुगसभा १६, ५७ रतनशा २२ रत्न २० रत्नपुरी ५७ –रत्नवाह ५५ -रोइनाई ३८ रथयात्रा ६ रथावर्त ४६ रविषण ५५ राजगृह ५, ९, ११, १२ १६ १७ -राजगिर १९, २०, २१, २२, २४, २५, ३७ ६ राजधानी वाराणसी १२ राजपुर २७ राजपूताना ६७ राजमल्ल २१ राजशेखर ५२ राजीमती ५२ राढ–लाट ८ राढाचार्य १९ राणकपुर १२ राधाकृष्ण जालान ३ रामचन्द्र ३५, ३८, ५३, ६५ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ ८५ रामनगर रामपुरी-अयोध्या ३९ वइरी रामायण २४, २७, ३७, ३८, वक्रक रामिल्ल ४८ वच्छलिज्जा रावलपिंडी ४८ वज्जनागरी राष्ट्रकूट ६३ वज्जभूमि रुम्मिनदेई ४१ वज्जि रूपनारायण ३२ वज्जी १९, २७, २८ रूप्यकूला ९ वज्रभूति रेवा ५८ वज्रसेन रेसंदीगिरि ५९ वज्रस्वामी २२, ३०, ५४, रैवतक ५०, ५१ वट्टा रोइनाई (देखो रत्नपुरी) वत्थगा रोमक २४ वत्स रोरुक ४८ वनवासी रोहगुप्त ४३ वयग्गाम रोहिणी ४१ वरघोड़ा रोहीतक ४८ वरदत्त -रोहतक वरणा वरणा नदी बरदा ललितपुर वराहमिहिर लव ५३ वरांग लवणसमुद्र १ वरेन्द्र ३४ -हिन्दमहासागर वर्धमान-अट्ठियगाम लंका १९, २२, ३२ वर्धमानपुर ३३, लाइफ़ इन ऐंशियेण्ट इण्डिया ५ वर्षकार लाट ४७, ५१ वलभी लाढ १०, ११, १६, १९, वला -राढ ३१, ३२ वसिष्ठाश्रम लिच्छवि १३, २७, २८, २९ वसुदेवहिण्डी . लोहग्गल ।.. ११, ३३, वंग ३०, ३१ -लोहरडामा बंस-वत्स Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com १२ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * व्यवहारभाष्य ६७ विपुल व्रजमण्डल ४५ विमलनाथ वाचस्पति २८ विमलशाह वाचाला ८, ९ वियावत्त वाणिज्ज १७ विराट-वैराट वाणियगाम ६, ११, २९ विविधतीर्थकल्प ३६,३९,४०,४२,४५ -वाणियग्राम विशाखा -वेनिया -अयोध्या वामा ५ विशाला वाराणसी ५, १२, १६, १९, -उज्जैनी -बनारस २०, ३५, ३६ वीतीभयपत्तन ४, १६, ४८, वारन (देखो उच्चानगर) वीर पाण्ड्य वासिट्ठिया १७ वृन्दावन वासुदेव ११ वेगवती विक्रमादित्य ५६ -गंडकी विजयवर्धमान ३३ वेणूर विजयवाराणसी ३६ वेत्रवती विजोलिया ५५ --बेतवा विज्जाहरी १७ वेसावडिया विज्झि ४९ वैभार २०, २१, ५० विदर्भ ६१, ६२ वैराट १६, ५३, ५४ विदिशा ५६, ५७ वैशाली ८, १०, ११, १२, ८, १६, २७, २८ –बसाढ़ २२, २७, २८, २९ विदेहदत्ता २७ वैशालीय –त्रिशला -महावीर विदेहपुत्र २७ वैश्यायन -अजातशत्रु विद्यापति २८ शकटमुख विद्युच्चर ३२ शकटार विनयपिटक ४० शतानीक विनीता--अयोध्या ३९ शत्रुघ्न विन्ध्यगिरि ६७ शत्रुजय ३, ५०, ५३, विन्ध्यावलि ५५ -पुण्डरीक ५५, ६२ विदेह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिरपुर ( १८ ) शय्यंभव २०, २४ श्रवणबेलगोला ६६, ६७ शंकराचार्य २८ श्रावस्ति ४, ५, ६, ९, ११, १२, शंख १६, १७, १८, २०, २७, शंखवती-अहिच्छत्रा ३७, ३९, ४०, ४१, ४५ शाक्य ४१ -सहेटमेट शालिवाहन-सातवाहन ६४ श्रीक्षेत्र कुंभोज शाह श्रीपाल शाह जी की ढेरी ४८ श्रीपर्वत शाहपुर ४९ श्रीमाता शांडिल्य १६ श्रीमाल श्यामाक १२ श्रेणिक २०, २५ शिखर सम्मेदशिखर २६ –बिम्बिसार ६२. श्वेताम्बर २, २९, ५६ शिवजी २४ श्वेतिका-सेयविया १६, ४१ शिवपुर-अहिच्छत्रा शिवराजा सचेल शिवि ४७ सनावन शिशुपाल ५९ –सिनावन शीतलनाथ ३६ समतट शीलविजय समराइच्चकहा शुक्तिमिती १६, ५९ समित -सुत्तिवइया समुद्र शुष्क राष्ट्र समंतभद्र शूरसेन—सूरसेन १६, १९, ४३, ४४ सम्प्रति १५, ४९, ५५, ६१, शूर्पारक ६४, ६५, ६७ -सोपारा सम्मेदशिखर ३, ५, २४, २६, ५५ ८, २९ –समाधिशिखर शैलपुर ३१ -समिदगिरि शोलापुर ६४ –पारसनाथ हिल शौरसैनी ४४ सरयू शौरि ४४ सरस्वती ३८, ४८, ५२ शौरीपुर-सूर्यपुर १६, ४४ सर्वतोभद्र श्रमण पूजा ६४ सहेट-महेट (देखो श्रावस्ति) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com शूलपाणि Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬૬ ५४ ३० संकिस्स ४३ सिणवल्ली (देखो सनावन) -संकिस सि-तो संकासिया सिद्धत्थपुर ११, १२ संखडि (उत्सव) ३१, ५०, ५४ सिद्धर्षि संथाल परगना २७ सिद्धवरकूट संभवनाथ ४० सिद्धसेन संभुत्तर—सुम्होत्तर सिद्धशिला स्कन्द १२ सिद्धार्थ स्तवनिधि ६४ सिन्ध स्तम्भन ५३ सिन्धु ४७,४८ -खम्भात सिन्धु–सौवीर १६,४८ स्थविरावति १६ सिरसी स्वर्गद्वार ३९ सिरोही स्वर्ण २० सिंहपुर सुवर्णभूमि २२, २५, ३४, ६५ सिंहपुर-सारनाथ ३६ -बरमा सिंहल साकेत ५, १४, १६, २०, ३८, ३९ -लंका -अयोध्या ४८ सीता सागर ५९ सुकुमालिया सागरखमण ३४ सुग्रीव सागरदत्त ५२ सुच्छेत्ता सातवाहन ६४ सुत्तिवइया सानलट्टिय १२ -सोइत्तिया सारनाथ-सारङ्गनाथ (देखो इसिपत्तन) सुधर्मा सालज्जा ११ सुनीघ सालाटवी ३३ सुपश्य सालिसीसय १० सुपार्श्वनाथ साहु टोडर ४४ सुप्रतिष्ठानपुर मवित्थिया (देखो श्रावस्ति) -प्रतिष्ठानपुर स्थाणुतीर्थ ___४६, ४८ सुन्मभूमि-सुह्म १०, ११, -स्थानेश्वर सुभूमिभाग स्थानांग २० सुभोम सिकन्दराबाद .६३ सुमंगल गाम ६६ १२ ३ " " ३६ 32 २ १२ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) सुम्ह सुरप्रिय ५० हजारीबाग सुरभिपुर ९ हत्थकप्प सुवन्नखलय ९ -हस्तकवप्र सुवर्णकूला -हाथब सुवर्णभद्र ५८ हथिलिज्ज सुवीर ४४ हत्थिसीस सुहस्ति (देखो आर्य सुहस्ति) हनुमान सुंसुमारपुर १२ हरिद्वार सूत्रकृतांग ६, २२ हरिभद्रसूरि सूत्रकृतांग चूर्णि ५२ हरिवंशपुराण सूत्रपिटक ४० हर्षपुरीयगच्छ सूर्यपुर ४४ हलेद्द्य स्थूणा १४ हस्तिगुफ़ा स्थूलभद्र २, २२, -हाथी गुफा २९, ४८ हस्तिद्वीप सेयविया ४१ हस्तिनापुर ३, ५, २०, ३७, -सेतब्या हस्तिपाल सेसदविया २२ हंटरगंज सेंदपा ५९ हातकलंगणा सोपारा ६५ हारियमालागारी सोनागिरि ४९ हालाहला सोमदेव ४४ हालिज्ज सोमधर्म ५३ हिमवत सोमनाथ ५० -हिमालय सोमभूय १७ हीरविजय सोमा ६ हुअन-सांग २१, २२, २८, ३२, ३४, सोरट्ठिया ३६, ४१, ४२, ४३, ४५, सोहावल ३९ ४८,५१, ५४, ५६,५९,६६, सौराष्ट्र १६, ४९ हेमचन्द्र ४० देमचन्द्र ३६, ५२, ६२ -काठियावाड़ हैदराबाद ६२, ६३ सौवीर ४८ होयसल ६७ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ થશો zlcPbl हमारे कुछ प्रकाशन 0 P Rs Studies in Jaina Philosophy Dr. Nathmal Tatia, M.A., D.Litt. Rs. 16/तत्त्वार्थ सूत्रपं० सुखलाल संघवी साढ़े पाँच रुपया Lord Mahavira Dr. Bool Chand, M.A., Ph.D. HastinapuraAmar Chand Rs. 2/4 धर्म और समाजपं० सुखलाल संघवी डेढ़ रुपया Jainism, Shri J. P. Jain, M.A., LL.B. Rs. 1/8 जैन ग्रन्थ व ग्रन्थकार1. श्री फतेहचन्द बेलानी डेढ़ रुपया जैन साहित्य की प्रगति 1949-51 पं० सुखलाल संघवी आठ आना निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय-. पं० सुखलाल संघवी एक रुपया गुजरात का जैन धर्ममुनि श्री जिनविजय जी बारह आना जैनागमपं० दलसुख मालवणिया दस आना विस्तृत सूचीपत्र के लिये लिखें: The Secretary, JAIN CULTURAL RESEARCH SOCIETY, BANARAS HINDU UNIVERSITY. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com