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पार्श्वनाथ और उनके शिष्यों का विहार
हुआ और इन्होंने पार्श्वनाथ का चातुर्याम धर्म छोड़कर महावीर के पाँच महाव्रतों को स्वीकार कर लिया। इस प्रसंग पर गौतम इन्द्रभूति ने केशीकुमार को समझाया-“पार्श्व और महावीर दोनों महातपस्वियों का उद्देश्य एक है, और दोनों ही ज्ञान, दर्शन और चारित्र से मोक्ष की सिद्धि मानते हैं । अन्तर इतना ही है कि पार्श्वनाथ ने अहिंसा, सत्य, अचौर्य और अपरिग्रह–इन चार व्रतों को माना है, जब कि महावीर इन व्रतों में ब्रह्मचर्य व्रत मिलाकर पाँच व्रत स्वीकार करते हैं। इसके अतिरिक्त, पार्श्वनाथ का धर्म सचेल (सवस्त्रसन्तरुत्तर) है, और महावीर अचेल (नम ) धर्म को मानते हैं, लेकिन हे महामुने, बाहरी वेष तो साधन मात्र है, वास्तव में चित्त की शुद्धि से मोक्ष की प्राप्ति होती है ।”
पार्श्वनाथ की श्रमण परम्परा में स्त्रियाँ भी दीक्षित हो सकती थीं । ज्ञाता धर्म कथा और निरयावलि सूत्रों में ऐसी अनेक स्त्रियों के नामोल्लेख पाते हैं । पार्श्वनाथ के भिक्षुणी संघ में पुष्यचूला नामक गणिनी मुख्य थी। उनकी एक शिष्या का नाम काली था। मथुरा के जैन शिलालेखों में भी प्रार्यानों का उल्लेख पाया जाता है। __पार्श्वनाथ और उनके शिष्यों ने बिहार और उत्तरप्रदेश के जिन स्थानों में विहार किया था, उन सब स्थानों की गणना भारत के प्राचीनतम जैन तीर्थों में की जानी चाहिए।
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