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________________ उत्तरप्रदेश मथुरा में अन्तिम केवली जम्बूस्वामी का निर्वाण हुअा था, अतएव इसकी गणना सिद्धक्षेत्रों में की गई है। ईसवी सन् की चौथी शताब्दि में जैन यागमां की संकलना के लिए यहाँ जैन श्रमणों का मम्मेलन हुआ था। आर्यमंग और आर्यरक्षित ने इस नगरी में विहार किया था। बौद्ध ग्रन्थों में मथुरा में पाँच दोष बताये गये हैं :-भूमि की विषमता, धूल का आधिक्य, कुत्तों का उपद्रव, यक्षों का उपद्रव और भिक्षा की दुर्लभता । कहते हैं कि एक बार बुद्ध भगवान् नगर में प्रवेश करना चाहते थे, परन्तु यक्षिणी के उपद्रव के कारण वापिस लौट गये । लेकिन मालूम होता है कि फाहियान और हुअन-सांग के समय मथुरा में बौद्ध धर्म का ज़ोर था, और उस समय यहाँ अनेक संघाराम और स्तूप बने हुए थे, तथा यहाँ का राजा और उसके मन्त्री बौद्ध धर्म के अनुयायी थे। प्राचीन काल से ही मथुरा अनेक साधु-सन्तों का केन्द्र रहा है, इसलिय इसे पाखंडिगर्भ कहा गया है। मथुरा मंडीर ( वट वृक्ष) यक्ष की यात्रा के लिए प्रसिद्ध था । इस यात्रा में अनेक नर-नारी सम्मलित होते थे। विविधतीर्थकल्प में मथुरा में १२ वनों का उल्लेख आता है । मथुरा व्यापार का बड़ा केन्द्र था; यहाँ कपड़ा बहुत अच्छा बनता था । यहाँ के लोग खेती-बारी नहीं करते थे, उनकी आजीविका का मुख्य साधन व्यापार था । राजा कनिष्क के समय मथुरा से श्रावस्ति, बनारस आदि नगरों को मूर्तियाँ भेजी जाती थीं। मथुरा आजकल वैष्णवों का परम धाम माना जाता है । यहीं पास में वृन्दावन है । मथुरा के आसपास चौरासी कोस का घेरा ब्रजमंडल कहा जाता है। मथुरा की पहचान मथुरा से दक्षिण-पश्चिम में महोलि नामक ग्राम से की जाती है। मथुरा में चौरासी नामक स्थान पर दिगम्बर जैन मन्दिर बना हुअा है। मथुरा से ऊपर की ओर अच्छा जनपद था। इसकी राजधानी का नाम वरणा था। वारण गण और उच्चानागरी शाखा का उल्लेख कल्पसूत्र में आता है, इससे मालूम होता है, यह प्रदेश जैन श्रमणों का केन्द्र था। वरणा की पहचान बुलन्दशहर से की जाती है जो उच्चानगर का ही Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034773
Book TitleBharat ke Prachin Jain Tirth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherJain Sanskriti Sanshodhan Mandal
Publication Year1952
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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