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जैन श्रमण-संघ और जैन धर्म का प्रसार
बृहत्कल्प सूत्र और निशीथ सूत्र जैसे प्राचीन जैन सूत्रों से पता लगता है कि भगवान् महावीर जब साकेत नगरी के सुभूमिभाग नामक उद्यान में विहार कर रहे थे तो उन्होंने निम्नलिखित सूत्र कहा था
“निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थिनी साकेत के पूर्व में अङ्ग-मगध तक, दक्षिण में कौशांबी तक, पश्चिम में स्थूणा तक, तथा उत्तर में कुणाला ( उत्तर कोसल ) तक विहार कर सकते हैं । इतने ही क्षेत्र आर्य क्षेत्र हैं, बाकी नहीं, क्योंकि इन्हीं क्षेत्रों में निर्ग्रन्थ भिक्षु और
भिक्षुणियों के ज्ञान-दर्शन और चारित्र अक्षुण्ण रह सकते हैं ।” इससे पता लगता है कि प्रारम्भ में जैन श्रमणों का विहार-क्षेत्र अाधुनिक बिहार, पूर्वीय उत्तरप्रदेश तथा पश्चिमीय उत्तरप्रदेश के कुछ भाग तक मीमित था, इसके बाहर वे नहीं गये थे। __ बृहत्कल्प भाष्य में जनपद-परीक्षा प्रकरण में बताया गया है कि जनपदविहार करने से साधुओं की दर्शन-विशुद्धि होती है, महान् प्राचार्य आदि की संगति से वे अपने आपको धर्म में स्थिर रख सकते हैं, तथा विद्या-मन्त्र आदि की प्राप्ति कर सकते हैं । यहाँ बताया गया है कि साधु को नाना देशों की भाषायों में कुशल होना चाहिए जिससे वह देश-देश के लोगों को उनकी भाषा में उपदेश दे सके । इतना ही नहीं, साधु को इस बात की जानकारी प्राप्त करनी चाहिए कि किस देश में किस प्रकार से धान्य की उत्पत्ति होती हैकहाँ वर्षा से धान्य होते हैं, कहाँ नदी के पानी से होते हैं, कहाँ तालाब के
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