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साधु यहाँ छतरी लगा सकते थे। यहाँ के लोग फल-फूल के बहुत शौकीन होते थे । यहाँ गिरियज्ञ नाम का उत्सव मनाया जाता था । कोंकण की अटवी का उल्लेख जैन ग्रन्थों में आता है । मच्छर यहाँ बहुत होते थे । यहाँ यूनान के व्यापारी व्यापार के लिए आते थे।
पश्चिमी घाट और समुद्र के बीच के हिस्से को कोंकण कहा जाता है ।
कोंकण की राजधानी शूर्पारक थी। इस नगर का उल्लेख महाभारत में मिलता है । पंच पाण्डव प्रभास जाते हुए यहाँ ठहरे थे। प्राचार्य वज्रसेन,
आर्य समुद्र और आर्य मंगु ने यहाँ विहार किया था । यहाँ बहुत से व्यापारी रहते थे और भृगुकच्छ तथा सुवर्णभूमि तक व्यापार के लिए जाते थे।
शूर्पारक की पहचान बम्बई इलाके के ठाणा जिले में सोपारा स्थान से की जाती है। आजकल यहाँ बड़ी हाट लगती है।
नासिक्यपुर (नासिक ) कोंकण का दूसरा प्रसिद्ध नगर था । यह स्थान गोदावरी के किनारे है और ब्राह्मणों का परम धाम माना जाता है।
यहीं पर दण्डकारण्य था, जहाँ रामचन्द्र जी कर रहे थे। जैन ग्रन्थों में इसका दूसरा नाम कुंभकारकृत बताया गया है। इस नगर के नाश होने की कथा रामायण, जातक तथा निशीथचूर्णि में आती है।
तुगिय पर्वत पर राम बलभद्र के मोक्ष होने का उल्लेख प्राचीन जैन ग्रन्थों में आता है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार यहाँ से राम, हनुमान, सुग्रीव आदि निन्यानवे कोटि मुनि मोक्ष पधारे ।
यह क्षेत्र मनमाड़ स्टेशन से साठ मील दूर है। आजकल इसे माँगीतुंगी कहते हैं।
नासिक से पाँच-छह मील के फ़ासले पर गजपंथा नामक तीर्थ है । यहाँ से सात बलभद्र और यादव आदि मुनियों का मोक्ष होना बताया जाता है, लेकिन यह क्षेत्र काफ़ी अर्वाचीन जान पड़ता है ।
५: प्रान्ध्र आन्ध्र देश में राजा सम्प्रति ने जैन धर्म का प्रचार किया था । बौद्ध
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