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भारत के प्राचीन जैन तीर्थ
द्वारका* के उत्तर-पूर्व में रैवतक पर्वत था। इसका दूसरा नाम ऊर्जयन्त था। यहाँ नन्दनवन नाम का वम था, जिसमें सुरप्रिय यक्ष का सुन्दर मंदिर था । यह पर्वत अनेक पक्षी, लताओं यादि से शोभित था। यहाँ पानी के झरने थे, और लाग प्रतिवर्ष उत्सव ( सखडि ) मनाने के लिए एकत्रित होते थे।
रैवतक पर्वत पर भगवान् अरिष्टनेमि ने मुक्तिलाभ किया; इसकी गणना सिद्धक्षेत्रों में की जाती है। यहाँ गुजरात के प्रसिद्ध जैन मन्त्री तेजपाल के बनवाए हुए अनेक मन्दिर हैं । राजीमती ( राजुल ) ने यहाँ तप किया था, उसकी यहाँ गुफ़ा बनी हुई है । दिगम्बर परम्परा के अनुसार, यहाँ चन्द्रगुफा में प्राचार्य धरसेन ने तप किया था, और यहीं पर भूनबलि और पुष्पदन्त प्राचार्यों को अवशिष्ट श्रुतज्ञान को लिपिबद्ध करने का आदेश किया गया था । वैभार पर्वत के समान रैवतक भी क्रीडा का स्थल था ।
रैवतक के इर्द-गिर्द का प्रदेश गिरिनगर या गिरिनार के नाम से पकारा जाता था । रैवतक की पहचान जूनागढ़ के पास गिरनार से की जाती है ।
प्रभास क्षेत्र को महाभारत में सर्वप्रधान तीर्थों में गिना है । इसे चन्द्रप्रभास, देवपाटन अथवा देवपट्टन भी कहते हैं । ब्राह्मणों का यह पवित्र धाम माना जाता है । चन्द्रग्रहण के समय यहाँ अनेक यात्री पाते हैं । अावश्यक चूर्णि में प्रभास को जैन तीर्थ माना गया है ।
प्रभास की पहचान अाधुनिक मोमनाथ से की जाती है ।
शत्रुजय जैन तीर्थों में ग्रादितीर्थ माना जाता है । इसका दूसरा नाम पुण्डरीक है । जैन मान्यता के अनुसार यहाँ पञ्च पांडव तथा अन्य अनेक ऋषि-मुनियों ने मुक्तिलाभ किया । राजा कुमारपाल के राज्य में लाखों रुपये लगाकर यहाँ के मन्दिरों का जीर्णोद्धार किया गया था । यहाँ पर छोटे-मोटे हज़ारों मन्दिर बने हुए हैं । इन मन्दिरों में कुछ ग्यारहवीं शताब्दि के हैं, बाकी ईसवी सन् १५०० के बाद के बने हुए हैं ।
** पटना के दीवान बहादुर राधाकृष्ण जालान के संग्रह में एक जैन स्तूप सुरक्षित है जो मंगमरमर का बना है और द्वारका से लाया गया है ।
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