Book Title: Bharat ke Prachin Jain Tirth
Author(s): Jagdishchandra Jain
Publisher: Jain Sanskriti Sanshodhan Mandal

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Page 59
________________ भारत के प्राचीन जैन तीर्थ भृगुकच्छ लाट की राजधानी थी। यह नगर भृगुपुर नाम से भी प्रसिद्ध था । बौद्ध जातकों में भृगुकच्छ का उल्लेख पाता है । यहाँ कुण्डलमेण्ट नामक व्यंतर देव की स्मृति में उत्सव मनाया जाता था। भूततडाग नाम का यहाँ बड़ा तालाब था। प्राचार्य वज्रभूति ने भृगुकच्छ में विहार किया था । भृगुकच्छ और उज्जैनी के बीच पच्चीस योजन का अन्तर था । भृगकच्छ व्यापार का बड़ा केन्द्र था। यहाँ जल और स्थल दोनों मागों से व्यापार होता था । ईसवी सन् की प्रथम शताब्दि में यहाँ काबुल से माल अाता था। भृगुकच्छ की पहचान अाधुनिक भडौंच से की जाती है । अाजकल यह मुनिसुव्रतनाथ का तीर्थ माना जाता है। अश्वावबोध नामक तीर्थ यहाँ से लगभग छह कोम है। अानन्दपुर का पुराना नाम यानर्तपुर है । इसे नगर भी कहा जाता था। राजा ध्रुवसेन द्वितीय की यह राजधानी थी। जैन परम्परा के अनुमार यहाँ सर्वप्रथम कल्पसूत्र की याचना हुई थी। आनन्दपुर ब्राह्मणों का केन्द्र था । जैन श्रमण यहाँ से मथुरा के लिए विहार करते थे। आनन्दपुर व्यापार का बड़ा केन्द्र था । यहाँ स्थल मार्ग से माल याताजाता था। यहाँ के निवासी सरस्वती नदी के किनारे उत्सव मनाते थे। अानन्दपुर की पहचान उत्तर गुजरात के बड़नगर स्थान से की जाती है । मोढेरगा का उल्लेख सूत्रकृतांग चूर्णि में आता है। यहाँ सिद्धसेन प्राचार्य ने विहार किया था। प्राचीन शिलालेखों में इस नगरी का नाम श्राता है । मोढ वणिकों की उत्पत्ति का यह स्थान है। हेमचन्द्राचार्य मोढ़ जाति में ही उत्पन्न हुए थे। यह स्थान पाटन से लगभग १८ मील की दूरी पर है । यहाँ सूर्य का मन्दिर है। तारङ्गागिरि से वरांग, सागरदत्त, वरदत्त आदि साढ़े तीन करोड़ मुनियों के मोक्ष जाने का उल्लेख जैन ग्रन्थों में आता है । यहाँ सिद्धशिला नाम की पहाड़ी है। पहाड़ के ऊपर प्राचार्य हेमचन्द्र के उपदेश से मम्राट कुमारपाल ( ५२ ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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